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सोमवार, 5 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न - 27 - Partaking Foods Offered to Other Deities / अन्य देवी-देवताओं को अर्पित भोजन ग्रहण करना

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मूर्तियों, देवी-देवताओं आदि को अर्पित वस्तुएँ भोजन वस्तुएँ ग्रहण करना


जबकि बहुधा भोजन वस्तुएं खेतों में उगाईखलिहानों में रखीऔर फिर दुकानों में बेची जाती हैं गैर-मसीही देवी-देवताओं को अर्पित करनेऔर धार्मिक अनुष्ठानों को करने के पश्चाततो क्या मसीही विश्वासियों का उन्हें उपयोग करना उचित है?

चाहे लोग हमारे सच्चे और जीवते परमेश्वर को जानते या मानते नहीं भी होंऔर अपने जीवनों में उसके महत्व और स्थान को स्वीकार नहीं भी करते होंफिर भी परमेश्वर उनसे प्रेम करता है और उनके लिए उपलब्ध करवाता है (भजन 145:9; मत्ती 5:45)। भजनकार कहता है कि प्रभु परमेश्वर ही है जो धरती से वनस्पति को उगवाता है जिससे मनुष्यों और पशुओं को भोजन वस्तु प्राप्त होती है (भजन 104:14)। इसी विचार के अनुरूपपौलुस बीज बोने और उगने के उदाहरण के द्वारा कहता है कि बीज चाहे कोई भी बोएकिन्तु बीज का उगनाबढ़ना और फल लाना परमेश्वर ही के द्वारा होता है (1 कुरिन्थियों 3:6-8)। इसलिए चाहे किसान खेती करते समय कोई धार्मिक अनुष्ठान अथवा मूर्तिपूजा करे भीतो भी खेत में वहीउतनाऔर उसी गुणवत्ता का उगेगाजितना परमेश्वर उस बीज और धरती से करवाएगा। इसलिए हम मसीही विश्वासी इस बात के लिए निश्चिंत और सुनिश्चित रह सकते हैं कि हमारी प्रत्येक भोजन वस्तु में परमेश्वर का हाथ और आशीष हैचाहे उसे उगाने या बेचने वाला कोई भी होऔर यह कैसे भी किया गया हो।

मूर्तियों को अर्पित वस्तुओं को खाने के निषेध के विषय में, 1 कुरिन्थियों 8 और 10 पढ़ेंजहां पर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस इस विषय पर चर्चा करता है। यद्यपि मूर्ति कुछ भी नहीं है (1 कुरिन्थियों 8:4), इसलिए इस दृष्टिकोण से किसी मूर्ति को अर्पित की हुई वस्तु खाने या न खाने का कोई महत्व अथवा प्रभाव भी नहीं है(1 कुरिन्थियों 8:8); परन्तु मूलतःमूर्तियों को अर्पित वस्तु को खाना वर्जित करने के पीछे का उद्देश्यमूर्तियों की उपासना या अराध्य होने का संकेत भी देने से बचना है (1 कुरिन्थियों 8:7) – क्योंकि वेदी की वस्तुओं के प्रयोग के द्वाराव्यक्ति उस वेदी का भी संभागी हो जाता है (1 कुरिन्थियों 10:18)। अधिक परिपक्व मसीही विश्वासियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विश्वास में दुर्बल मसीही भाई इस बात के कारण किसी भ्रम में पड़कर भटक न जाएं (1 कुरिन्थियों 8:7, 10-13); और अविश्वासियों पर भी यह प्रगट रहना चाहिए कि मसीही विश्वासी प्रभु की मेज़ और उनकी मेज़  अर्थात, दुष्टात्माओं की मेज़दोनों में सम्मिलित नहीं हो सकते हैं (1 कुरिन्थियों 10:20-21)। पौलुस यह भी कहता है कि यदि कोई मूर्तियों को अर्पित वस्तु को भोजन वस्तु के रूप में उनके सामने परोसता हैऔर यह बता देता हैतो एक मसीही विश्वासी को उस व्यक्ति के विवेक के कारण उस भोजन वस्तु को स्वीकार नहीं करना चाहिए (1 कुरिन्थियों 10:25-30); दूसरे शब्दों मेंयद्यपि उस भोजन वस्तु को खाना, किसी भी अन्य भोजन वस्तु को खाने से ज़रा भी भिन्न नहीं होगाफिर भी मूर्ति को अर्पित उस वस्तु का उस व्यक्ति के मन और विवेक में एक विशेष स्थान होने के कारणऔर यह दिखाने के लिए की एक मसीही विश्वासी इन बातों से पृथक रहता हैकिसी मसीही विश्वासी को वह भोजन वस्तु नहीं खानी चाहिए।

इसलिएयद्यपि यह बाइबल के अनुसार बिल्कुल सही औए वांछनीय है कि मूर्तियों को चढ़ाई गई वस्तुओं को न तो स्वीकार किया जाए और न ही खाया जाएऔर इस सिद्धांत का यथासंभव पालन भी होना चाहिएपरन्तु हमारे शीर्षक-प्रश्न जैसी विशेष परिस्थितियों के संदर्भ में, इसे एक हठधर्मिता का सिद्धांत भी नहीं बना लेना चाहिएमानो इसी के पालन के द्वारा हम परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और स्वीकार योग्य बनते हैं – क्योंकि यह तो केवल कलवरी के क्रूस पर किए गए प्रभु यीशु के कार्य के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से ही संभव हो सकता हैऔर परमेश्वर हमारे हृदय की दशा भली-भांति जानता है (1 कुरिन्थियों 8:3).

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

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Partaking Foods Offered to Idols and Other Deities


If foods are grown, harvested, stored, and sold after invoking non-Christian deities and religious practices upon them, can a Christian then partake of them?

Even if people do not know or follow the true and living Lord our God, and do not acknowledge Him and His work in their lives, He still continues to love and provide for them (Psalm 145:9; Matthew 5:45). The Psalmist says that it is the Lord God that causes the earth to produce vegetation for food for man and animals (Psalms 104:14). Along the same lines, Paul using the analogy of sowing and growth, states that no matter who does the sowing, it is God who gives the germination, growth, and fruitfulness to whatever is sown (1 Corinthians 3:6-8). So even if the farmer does some supposedly religious ceremony or idol worship, the fields will only produce, both quantitatively and qualitatively what God makes them to produce, and therefore we can rest assured that our food item has God's hand and blessings in it, no matter who has cultivated it and how.

Regarding forbidding eating things offered to idols, read 1 Corinthians 8 and 10, where Paul discusses this issue under the guidance of the Holy Spirit. Although an idol is nothing (1 Corinthians 8:4), and therefore from that point of view eating or not eating something offered to an idol is inconsequential (1 Corinthians 8:8); but basically, in forbidding eating things offered to idols, the intention is to avoid sending out any impression of veneration or acknowledgment of pagan deities(1 Corinthians 8:7), since partaking of things offered on the altar, makes one a partaker of the altar as well (1 Corinthians 10:18). The more mature Christian Believers should make sure that the weaker in faith brethren in Christ are not misled on this count (1 Corinthians 8:7, 10-13); and, it also should be clear to the un-Believers that the Believers in Christ cannot partake in the Lord’s Table as well as their table – the table of demons (1 Corinthians 10:20-21). Paul also states that if someone offers something offered to idols as a food item, and makes it known, then a Christian Believer should refuse it for the sake of that person's conscience (1 Corinthians 10:25-30); in other words, although eating of that food item would not be any different from eating of any other food item, yet in view of the special place and connotations that “offered-to-an-idol” food item has in the beliefs and conscience of the person serving it; and also to show that a Believer is separated from such things, a Christian Believer is not to partake of that food item.

So, while it is absolutely Biblical and desirable to not accept and eat things offered to idols, and this principal should always be adhered to; yet, in context of special situations like our title question, it should not be made something dogmatic for being righteous and acceptable to God – because that is only possible by the grace of God through Christ’s work on the Cross of Calvary, and not by any of our deeds, and God well knows the state of our hearts (1 Corinthians 8:3).

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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