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क्या मसीही विश्वासियों के लिए बड़ों के पैर छूना उचित है?
किसी आयु में बड़े या वृद्ध व्यक्ति के पैरों को झुक कर हाथ लगाना उसे आदर प्रदान करने का सूचक माना जाता है। कभी-कभी किसी आदरणीय या महान समझे जाने वाले पुरुष के सम्मुख झुकना, उसकी वंदना करने के समान या उसे आराध्य समझने के समान भी माना जा सकता है। झुक कर पैरों को हाथ लगाने में ये दोनों ही अभिप्राय भी सम्मिलित हो सकते हैं। यह करने के द्वारा हाथ लगाने वाला, जिसके पैरों को हाथ लगाया जा रहा है, उसे यह जताता है कि मैं आपकी आयु और आपके अनुभव, आपके दर्जे/स्तर, आपके गुणों, आदि का आदर करता हूँ; आपके सामने मैं आपके पैरों की धूल के समान हूँ, और मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है।
किन्तु वास्तविकता यही है कि हर वह मनुष्य जिसके पाँव छुए जाते हैं वास्तव में सच्चा, खरा, आदर्श, अनुसरण करने योग्य, और बहुधा किसी आदर के योग्य भी नहीं होता है। सामान्यतः, पैरों को छूना उस व्यक्ति के गुणों के लिए नहीं, एक प्रथा निभाने के लिए लिए किया जाता है; और यदि न किया जाए तो जिसे इसकी आशा होती है वह बुरा भी मान जाता है, क्रोधित भी हो जाता है। बहुत बार जो दूसरे के पैर छू रहा होता है, वह मन ही मन उसे उसके चरित्र, व्यवहार, दुष्कर्मों आदि किसी बात के लिए भला-बुरा भी कह रहा होता है। सामान्यतः लोग पैरों को छूने की बजाए, लोग थोड़ा सा झुककर और पैरों की तरफ थोड़ा सा हाथ बढ़ाकर, अपनी ओर से इसे औपचारिकता के रूप में पूरा कर लेते हैं; उनके मन में उस व्यक्ति के प्रति सच्चा आदर नहीं होता है, वे बस प्रथा निभाने भर के लिए इसका संकेत भर कर देते हैं। अर्थात, वर्तमान समाज और व्यवहार में पैर छूना शायद ही कभी वास्तव में आदर देने और उचित कारण से होता है; अधिकांशतः तो यह बिना किसी वास्तविक या उपयुक्त एवं उचित भावना के, मात्र एक औपचारिकता अथवा प्रथा के निर्वाह के लिए किया जाता है।
यह प्रथा मसीही विश्वासियों में नहीं देखी जाती है, क्योंकि परमेश्वर के वचन – बाइबल में किसी भी मनुष्य को वन्दना अथवा आराध्य समझना या मानना वर्जित है, और बाइबल के स्पष्ट उदाहरण हैं कि सृजे हुओं ने अन्य सृजे हुओं से वंदना या आराधना के भाव में नमन को अस्वीकार किया, ऐसा करने के लिए मना किया (प्रेरितों 10:25-26; 14:14-15; प्रकाशितवाक्य 19:10; 22:8-9)। पैर छूने की यह अपेक्षा उनमें ही देखी जाती है जो मसीही विश्वासी नहीं हैं।
एक मसीही विश्वासी, पापों से किए गए पश्चाताप प्रभु यीशु मसीह द्वारा कलवरी के क्रूस पर किए गए कार्य के आधार पर प्रभु के नाम में मांगी गई पापों से क्षमा, और प्रभु परमेश्वर को जीवन समर्पण के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से परमेश्वर की संतान है (यूहन्ना 1:12-13), उसकी देह पवित्र आत्मा का, जो उसमें निवास करता है, मंदिर है (1 कुरिन्थियों 6:19), वह अन्य विश्वासियों के साथ मिलकर परमेश्वर का निवास स्थान बनाया जा रहा है (इफिसियों 2:21-22), प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप में ढाला जा रहा है (रोमियों 8:29; 2 कुरिन्थियों 3:18), और संपूर्ण विश्वव्यापी कलीसिया के एक अंग के रूप में प्रभु यीशु मसीह की दुल्हन (इफिसियों 5:25-27), मसीह यीशु का संगी वारिस (रोमियों 8:16-17), और प्रभु यीशु मसीह की ओर से जगत के मार्गदर्शन के लिए ज्योति (मत्ती 5:14) है।
इसकी तुलना में, प्रत्येक मनुष्य पाप स्वभाव के साथ जन्म लेता है (भजन 51:5) और जीवन भर पाप करता रहता है (1 यूहन्ना 1:8, 10); परमेश्वर के सम्मुख मनुष्य की बुद्धिमत्ता भी मूर्खता है (1 कुरिन्थियों 1:25-27); किसी भी मनुष्य के मन में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती है (यिर्मयाह 17:9; मरकुस 7:20-23); मनुष्य की सभी कल्पनाएं बुरी ही होती हैं (सभोपदेशक 9:3, अय्यूब 15:14-16); और उसमें से कोई भली वस्तु नहीं आ सकती है (अय्यूब 14:4); मनुष्य अपने स्वभाव से परमेश्वर के प्रतिकूल रहने वाला है (रोमियों 8:7); मनुष्य नश्वर है (याकूब 4:14); और मनुष्य शारिरिक दशा में कदापि अविनाशी नहीं हो सकता है (1 कुरिन्थियों 15:50)।
मनुष्य के विषय बाइबल में लिखी उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए अब, इस सामान्यतः कहे जाने वाले वाक्य, "मसीही विश्वासी के लिए झुक कर किसी के पैर छूने में कुछ अनुचित अथवा असंगत नहीं है, यह करना केवल आदर प्रदान करने का सूचक है, और कुछ नहीं" को लीजिए, और इसमें कुछ शब्दों के स्थान पर उनके तात्पर्यों को रख कर उसका भावार्थ देखिए कि उसका क्या अर्थ निकलता है। इस वाक्य में 'मसीही विश्वासी' के स्थान पर मसीही विश्वासी के उपरोक्त गुण – "परमेश्वर की संतान, पवित्र आत्मा के मंदिर...", 'किसी के पैर' के स्थान पर उस शारीरिक मनुष्य की वास्तविक दशा और गुण – "पापी, बुराई से भरा हुआ, नश्वर...", तथा 'पैर छूने' के स्थान पर उसके अभिप्राय, "मैं आपकी आयु और आपके अनुभव, आपके दर्जे/स्तर, आपके गुणों, आदि का आदर करता हूँ; आपके सामने मैं आपके पैरों की धूल के समान हूँ, और मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है" को रखकर इस वाक्य का निर्माण करके उसे देखिए, उसकी वास्तविकता को समझिए।
ऐसा करने पर इस वाक्य का स्वरूप कुछ इस प्रकार हो जाएगा : "[मसीही विश्वासी] ‘परमेश्वर की संतान, पवित्र आत्मा के मंदिर, परमेश्वर के निवास स्थान, प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप समान, प्रभु यीशु मसीह की दुल्हन, मसीह के संगी वारिस, जगत के मार्गदर्शन के लिए प्रभु यीशु की ज्योति’ के लिए झुक कर [किसी के] ‘पाप स्वभाव के साथ जन्मे, पाप करते रहने वाले, परमेश्वर के सम्मुख निर्बुद्धि, मन में भली बातों से रहित, जिसकी सभी कल्पनाएं बुरी ही होती हैं, और जिसमें से कोई भली वस्तु नहीं आ सकती है, ऐसा नश्वर मनुष्य, जो स्वभाव से परमेश्वर के प्रतिकूल रहने वाला है’ [के पैर छूने] ‘को यह जताने में कि मैं आपकी आयु और आपके अनुभव, आपके दर्जे/स्तर, आपके गुणों, आदि का आदर करता हूँ; आपके सामने मैं आपके पैरों की धूल के समान हूँ, और मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है’ में कुछ अनुचित अथवा असंगत नहीं है, यह केवल आदर का सूचक है, और कुछ नहीं।" इस आधार पर निर्णय कीजिए कि क्या इस विवरण के साथ इसी बात को कहने पर क्या वह अब भी पहले जैसी उचित और सुसंगत प्रतीत होती है?
अब इस पर विचार कीजिए कि क्या ऐसे व्यक्ति के लिए, जो परमेश्वर की सन्तान, परमेश्वर पवित्र-आत्मा का मंदिर प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप में ढलता जा रहा है और सँसार के सम्मुख मसीह यीशु की ज्योति को प्रकट करने के लिए रखा गया है, एक ऐसे व्यक्ति के सम्मुख यह अभिप्राय देना उचित होगा जो पाप स्वभाव के साथ है, नश्वर है, परमेश्वर की बुद्धिमता से विहीन है, जो स्वभाव से परमेश्वर के प्रतिकूल है, कि मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है क्योंकि मैं आपके सम्मुख आपके पैर की धूल के समान हूँ!
उत्तर स्वतः ही प्रगट है कि मसीही विश्वासी की आत्मिक वास्तविकता और परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान की गई हस्ती और स्तर के आधार पर, उसके लिए किसी मनुष्य के सामने झुककर उसके पैर छूना, उसके अभिप्रायों के आधार पर, उचित नहीं है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Is it appropriate for a Christian Believer touch the feet of elders?
Stooping or bowing to touch the feet of an elder is considered an act of giving honor to the elder. To bow before a person considered honorable, can also be considered as venerating him or considering him worthy of veneration. Generally speaking, in bowing to touch the feet of a person, both of these are implied. By doing so the person touching the feet, is conveying to the person whose feet are being touched, that I respect and honor your age, experience, status, qualities and attributes etc. and consider myself as the dust of your feet, and I need your blessings.
But the reality is that every person, whose feet are touched, is not actually true, honest, ideal, worthy of emulation, and often is not worthy of any honor. Usually, touching of feet is done not for any person's qualities, but to fulfill a tradition; and if it is not done then the one expecting this feels offended, and may even react angrily. Many times, the person who is touching another's feet, in his heart he is cursing the person whose feet he is touching for that person's character, behavior, bad things done by him, etc. Very commonly, people instead of actually touching the feet, often just bend a bit and slightly reach out towards the other person's feet, and thus fulfill the formality from their end; they have no true honor or respect for the other person, they do this merely to fulfill a tradition. In other words, in the present society and behavior, touching of feet is very rarely to give honor or for any other genuine reason; most often this is done without any appropriate or worthy feeling or really meaning it, rather it is usually done to either fulfill a formality or a tradition.
This practice is not seen amongst Christian Believers since the Word of God – the Bible forbids any man from being considered as venerable, and there are clear examples in the Bible where created beings have refused to accept veneration from other created beings, (Acts 10:25-26; 14:14-15; Revelation 19:10; 22:8-9). Usually this expectation of touching of feet is seen in those who are not Christian Believers.
A Christian Believer, by repenting of his sins and having received the forgiveness of sins on the basis of the accomplished work on the Cross of Calvary by the Lord Jesus, and having submitted his life to the Lord, is by the grace of God a child of God (John 1:12-13), his body is the temple of the Holy Spirit who resides in him (1 Corinthians 6:19), he is being built up into a dwelling place for God along with other Christian Believers (Ephesians 2:21-22), he is being changed into the likeness of the Lord Jesus Christ (Romans 8:29; 2 Corinthians 3:18), and as a member of His Worldwide Church is a Bride of Christ (Ephesians 5:25-27), is a joint heir with Christ Jesus (Romans 8:16-17), and is a light to the world on behalf of the Lord Jesus (Matthew 5:14).
In contrast to this, man is born with sin nature (Psalms 51:5) and continues to sin (1 John 1:8, 10), before God his wisdom is foolishness (1 Corinthians 1:25-27), nothing good resides in him (Jeremiah 17:9; Mark 7:20-23), all his imaginations are evil (Ecclesiastes 9:3, Job 15:14-16), and nothing good can come out of him (Job 14:4), and by his very nature is contrary to God (Romans 8:7); man is temporal (James 4:14), and cannot inherit eternity in his state of flesh (1 Corinthians 15:50).
Keeping in mind the various characteristics of man, now, in this sentence, " There is nothing wrong or improper in a Christian Believer bowing to touch the feet of someone, doing this is only a sign of giving honor or respect, nothing more" make some substitutions to see how after the paraphrasing it actually comes out to be. In place of ‘Christian Believer’ put in the afore mentioned attributes of a Christian Believer – "child of God, temple of the Holy Spirit...", in place of “someone” put in the state and attributes of a carnal man – "sinner, full of evil, mortal...", and in place of “touch the feet” put in its implications, "I respect and honor your age, experience, status, qualities and attributes etc. and consider myself as the dust of your feet, and I need your blessings" and thus reconstruct the sentence.
On doing so the form of this sentence will be something like this : "For a [Christian Believer] ‘child of God, temple of the Holy Spirit, dwelling place of God, likeness of the Lord Jesus, Bride of Christ, joint-heir with Christ, light of the Lord for the guidance of the world’ to bow down to a [person] ‘sinner, a fool before God, devoid of anything good within, all of whose imaginations are evil, who cannot bring forth anything good, a mortal man, who by his very nature stays contrary to God’ and to imply [touch his feet] that ‘I respect and honor your age, experience, status, qualities and attributes etc. and consider myself as the dust of your feet, and I need your blessings’ there is nothing wrong or improper, it is only a sign of respect, ।nothing more." On the basis of constructing the sentence in this manner now decide, does it still sound proper and appropriate as before?
Now think it over whether for a person who is, a child of God, a temple of the Holy Spirit, is being conformed to the likeness of Lord Jesus Christ, and has been placed before the world as to reveal the light of the Lord Jesus, would it be appropriate for him to imply to a person having a sin nature, is mortal, is devoid of God’s wisdom, and by nature is contrary to God, that I need your blessings because I am like the dust of your feet!
The answer is self-evident, that for a Christian Believer, by virtue of the reality of his spiritual state and the status and position bestowed upon him by God, it is inappropriate for him to bow before a person and touch his feet, for what this act implies.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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