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बाइबालानुसार मसीही विश्वास - सदा कार्यरत रहने वाली शिष्यता
हमने पिछले लेखों में देखा है कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार प्रभु यीशु का अनुयायी होना किसी धर्म का निर्वाह करना नहीं है; और न ही यह वंशागत - किसी परिवार विशेष में जन्म ले लेने के द्वारा स्वाभाविक रीति से और स्वतः ही प्राप्त हो जाने वाला कोई विशेषाधिकार है। न तो प्रभु यीशु मसीह ने कभी कोई धर्म बनाया; न कभी अपने नाम से किसी धर्म के बनाए जाने की शिक्षा अथवा निर्देश दिए; न ही कभी लोगों के धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा; और न ही कभी यह कहा या सिखाया कि कुछ धार्मिक अनुष्ठानों और रीतियों की पूर्ति के द्वारा कोई उनका अनुयायी बनाया जा सकता है। न ही प्रभु ने कभी ऐसा कोई आश्वासन अथवा ऐसी कोई प्रतिज्ञा दी कि जो उसके अनुयायी हो जाएंगे, फिर उनके बाद उनकी संतान और भावी पीढ़ियाँ भी स्वतः ही यह विशेषाधिकार प्राप्त करती चली जाएंगी। जिसे भी मसीह यीशु का अनुयायी होना है, उसे व्यक्तिगत रीति से, स्वेच्छा तथा सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु मसीह से अपने पापों की क्षमा माँगकर, पापों की क्षमा के लिए प्रभु यीशु द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान - उनके मारे जाने, गाड़े जाने और तीसरे दिन मृतकों में से जी उठाने को स्वीकार करना होगा, और यीशु को प्रभु मानकर अपने आप को उन्हें समर्पित कर देना होगा; इसे ही उद्धार या नया जन्म प्राप्त करना कहते हैं, जिसके बिना कोई परमेश्वर के राज्य में प्रवेश तो दूर, उसे देख भी नहीं सकता है (यूहन्ना 3:3, 5, 7)। यह उस व्यक्ति के मसीही जीवन का आरंभ है, इस विशिष्ट जीवन यात्रा में उठाया गया पहला कदम है। इस बिन्दु से लेकर फिर उसके शेष जीवन भर वह प्रभु यीशु के वचन और आज्ञाकारिता से सीखता रहता है, प्रभु तथा उस व्यक्ति में निवास करने वाले पवित्र आत्मा के चलाए चलता रहता है, और प्रभु उसे अंश-अंश करके अपने स्वरूप में बदलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18)।
प्रभु यीशु मसीह ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में अपने पीछे चलने वाले लोगों की भीड़ में से बारह लोगों को चुना, जिन्हें उसने प्रेरित कहा (लूका 6:13)। प्रभु ने भविष्य में सारे संसार भर में जाकर प्रभु में उपलब्ध पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार करने का दायित्व इन्हीं को सौंपा, और इस महान एवं महत्वपूर्ण कार्य के लिए इन्हें लगभग साढ़े-तीन वर्ष तक प्रशिक्षित किया। यहूदा इस्करियोती के अलग हो जाने के बाद इस सेवकाई में आगे चलकर पौलुस को जोड़ दिया गया, उसे भी प्रेरित कहा गया। जब प्रभु ने उन बारह शिष्यों को चुना था, तो उनके लिए प्रभु यीशु का एक विशेष प्रयोजन था, जिसके अंतर्गत वह उन्हें उनकी सेवकाई और कार्य के लिए, तथा उसके गवाह होने के लिए तैयार करने जा रहा था। उसके इस प्रयोजन को हम मरकुस 3:13-15 में देखते हैं: “फिर वह पहाड़ पर चढ़ गया, और जिन्हें वह चाहता था उन्हें अपने पास बुलाया; और वे उसके पास चले आए। तब उसने बारह पुरुषों को नियुक्त किया, कि वे उसके साथ साथ रहें, और वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें। और दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखें।” मरकुस के इस खंड में प्रभु ने तीन प्रयोजन अपने शिष्यों के लिए रखे हैं; और वे जिस क्रम में रखे हैं, वह भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम देखते हैं कि क्रम के पहले से तीसरे को बढ़ते जाने तक, परिपक्वता में बढ़ने के साथ, दायित्व एवं कौशल भी बढ़ता जाता है। पद 14 और 15 में दिए गए ये तीन प्रयोजन हैं:
वे उसके साथ साथ रहें (पद 14)
वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें (पद 14)
भेजे जाने को तैयार हों
जहाँ और जब प्रभु कहे वहाँ और तब जाएं
प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करने को तैयार हों
दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखें (पद 15)
यह हमारे प्रभु परमेश्वर के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य भी प्रकट करता है - परमेश्वर का कोई कार्य, कोई बात निरुद्देश्य नहीं होती है। जैसा प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि सृष्टि करने के हजारों वर्ष बाद भी जिस प्रकार परमेश्वर अभी भी कार्य कर रहा है, उसी प्रकार प्रभु यीशु भी काम में लगा हुआ है “इस पर यीशु ने उन से कहा, कि मेरा पिता अब तक काम करता है, और मैं भी काम करता हूं” (यूहन्ना 5:17)। प्रभु आज भी हमारे सहायक के रूप में कार्य कर रहा है (1 यूहन्ना 2:1), और हमारे लिए स्थान भी तैयार कर रहा है “मेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं, यदि न होते, तो मैं तुम से कह देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूं” (यूहन्ना 14:2)। इसी प्रकार से प्रभु परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी के करने के लिए भी पहले ही से कुछ-न-कुछ कार्य निर्धारित कर के रखा हुए हैं “क्योंकि हम उसके बनाए हुए हैं; और मसीह यीशु में उन भले कामों के लिये सृजे गए जिन्हें परमेश्वर ने पहिले से हमारे करने के लिये तैयार किया” (इफिसियों 2:10)। अर्थात मसीही विश्वासी होने का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति परिश्रम न करे, और केवल परमेश्वर या मण्डली से ही अपेक्षा रखे कि उनके द्वारा उसकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। परमेश्वर के इस सिद्धांत को मनुष्य की सृष्टि के साथ ही दे दिया गया था; परमेश्वर ने मनुष्य के लिए आदान की वाटिका को लगाया था, किन्तु उसकी देखभाल करने का कार्य आदम की ज़िम्मेदारी थी (उत्पत्ति 2:8, 15)। इसलिए, मसीही विश्वासी होने का यह अर्थ नहीं है कि उसे कोई परिश्रम नहीं करना पड़ेगा, और वह परमेश्वर तथा कलीसिया या मण्डली से आशा रखे कि वे उसकी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करेंगे। प्रभु के शिष्य को, मसीही विश्वासी को अपनी आजीविका एवं आवश्यकताओं के लिए कार्य करना अनिवार्य है।
प्रेरित पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से दिखाया कि वह परिश्रम करके अपनी आजीविका कमाता था जिससे वह किसी पर भी बोझ न हो, और मसीही सेवकाई में भी लगा रहता था “और अपने ही हाथों से काम कर के परिश्रम करते हैं। लोग बुरा कहते हैं, हम आशीष देते हैं; वे सताते हैं, हम सहते हैं” (1 कुरिन्थियों 4:12); “क्योंकि, हे भाइयों, तुम हमारे परिश्रम और कष्ट को स्मरण रखते हो, कि हम ने इसलिये रात दिन काम धन्धा करते हुए तुम में परमेश्वर का सुसमाचार प्रचार किया, कि तुम में से किसी पर भार न हों” (1 थिस्स्लुनीकियों 2:9); “और किसी की रोटी सेंत में न खाई; पर परिश्रम और कष्ट से रात दिन काम धन्धा करते थे, कि तुम में से किसी पर भार न हो” (2 थिस्स्लुनीकियों 3:8); अपनी उस कमाई से औरों की सहायता भी करता था “परन्तु जिस तरह माता अपने बालकों का पालन-पोषण करती है, वैसे ही हम ने भी तुम्हारे बीच में रह कर कोमलता दिखाई है” (1 थिस्स्लुनीकियों 2:7); “मैं तुम्हारी आत्माओं के लिये बहुत आनन्द से खर्च करूंगा, वरन आप भी खर्च हो जाऊंगा...” (2 कुरिन्थियों 12:15)। उसने ऐसा ही करने की शिक्षा मसीही विश्वासियों को भी दी “और जैसी हम ने तुम्हें आज्ञा दी, वैसे ही चुपचाप रहने और अपना अपना काम काज करने, और अपने अपने हाथों से कमाने का प्रयत्न करो” (1 थिस्स्लुनीकियों 4:11); और यहाँ तक भी कहा कि “और जब हम तुम्हारे यहां थे, तब भी यह आज्ञा तुम्हें देते थे, कि यदि कोई काम करना न चाहे, तो खाने भी न पाए” (2 थिस्स्लुनीकियों 3:10)।
मसीह यीशु के शिष्यों के लिए संदेश और निर्देश स्पष्ट है - परमेश्वर पिता के समान प्रभु यीशु भी कार्य करता रहा; प्रभु ने शिष्यों को चुना और उनके लिए भी प्रयोजन रखे; और भावी मसीही शिष्यों के लिए भी यही शिक्षा और निर्देश दिए कि मसीही सेवकाई में संलग्न होने पर भी वे औरों पर बोझ न बने, परंतु अपने ही परिश्रम से अपना जीवन यापन करें, तथा औरों की भी सहायता करें। मसीही विश्वासी होने का अर्थ औरों पर निर्भर होकर अपना घर चलाना नहीं है, वरन प्रभु के लिए उपयोगी बनकर प्रभु के घर के लिए कार्य करना है। प्रभु यीशु के शिष्यों के लिए प्रभु के उपरोक्त तीनों प्रयोजनों के बारे में हम आगे देखेंगे। किन्तु अभी, हम सभी के लिए परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर भली-भांति जाँच-परख कर, प्रभु यीशु द्वारा सिखाए गए सच्चे मसीही विश्वास की सच्चाइयों तथा हमारे जीवनों के लिए प्रभु परमेश्वर के प्रयोजनों का पालन करना अनिवार्य है, न कि शैतान द्वारा मसीह यीशु के नाम से बनाए और फैलाए गए भ्रम में फँसे रहने का।
इसलिए समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, धर्म-कर्म-रस्म की व्यर्थ धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आना और उसे निभाना अनिवार्य है। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि जिस धर्म का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे कोई लाभ नहीं हुआ, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
अय्यूब 30-31
प्रेरितों 13:26-52
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Biblical Christian Faith - a Discipleship of Being at Work
In the previous article we have seen that Biblically speaking, to be a follower of the Lord Jesus is not the following of any religion, neither is it familial or inherited, i.e., by virtue of being born in a particular family, no one automatically becomes a Christina Believer. The Lord Jesus Christ never started any religion, nor did He ever teach or instruct anybody about starting a religion in His name. Christ Jesus never told His disciples to do any religious conversions, neither did He ever say that through the fulfillment of certain rituals and ceremonies people can be declared as His followers. He never assured anyone nor promised at any time that those who become His disciples, their future generations too would automatically become, or will be accepted as His disciples. It is an evident Biblical fact that whosoever wants to become a follower of the Lord, he has to personally, willingly take this decision; he has to sincerely repent of his sins, ask forgiveness for them from the Lord Jesus Christ, has to accept and believe in the sacrifice the Lord Jesus made on the Cross of Calvary, in His being buried and being resurrected on the third day; and he has to accept the Jesus Christ as Lord, submit his life to Him, decide to live in obedience to Him and His Word - this is being saved or being Born-Again, and no one can even see the Kingdom of God, let alone enter it, unless they are Born-Again (John 3:3, 5, 7). Being Born-Again is the beginning, the first step of the person’s life of Christian Faith. From here onwards, for the rest of his life the person continues to learn God’s Word and living in obedience to the Word of the Lord, learns to walk under the guidance of Holy Spirit who resides in Him, and the Lord gradually changes him bit by bit into His own likeness (2 Corinthians 3:18); the person grows and matures in his life of Christian Faith.
The Lord Jesus Christ, during His days of ministry on earth, chose twelve disciples from amongst those who used to keep following and moving with Him, and He called these twelve Apostles (Luke 6:13). For about three and a half years the Lord taught these twelve and trained them for their future ministry; after Judas Iscariot went away, the Lord added the Apostle Paul to them. He entrusted the responsibility of going out into the world to preach and teach the gospel of forgiveness of sins and salvation to these twelve Apostles. This by itself shows that the Lord’s discipleship is not a mere formality, nor something without a purpose. At the time the Lord had chosen those twelve, He had a special purpose for them, and He prepared them with that purpose in mind - to be His witnesses, the ministers of His gospel amongst all people of the whole world. This purpose and its methodology is very succinctly but beautifully given in Mark 3:13-15 “And He went up on the mountain and called to Him those He Himself wanted. And they came to Him. Then He appointed twelve, that they might be with Him and that He might send them out to preach, and to have power to heal sicknesses and to cast out demons”. In these verses the Lord has stated three purposes for His disciples; the order in which He has given these purposes is also very important, because we see that each purpose builds upon the previous one and is a step forward in maturity, responsibility, and ability. These three purposes, given in verses 14 and 15 are:
that they might be with Him (v. 14)
that He might send them out to preach (v.14)
Be available to be sent out
Go when and where the Lord asks them to go
Be ready to preach as the Lord asks them to preach
to have power to heal sicknesses and to cast out demons (v.15)
This also brings a very important aspect of the Lord’s behavior - no work of the Lord God is ever without a purpose. Moreover, as the Lord Jesus said for God the Father, thousands of years after completing the creation, God is still at work in it, and similarly, the Lord Jesus too is continually at work, “But Jesus answered them, "My Father has been working until now, and I have been working."” (John 5:17). Even today the Lord Jesus is still working; He is working for us as our advocate (1 John 2:1); He is preparing a place in heaven for us, “In My Father's house are many mansions; if it were not so, I would have told you. I go to prepare a place for you” (John 14:2). Just as the Lord God is always at work, similarly, for every Christian Believer, He has determined some work or the other, which the Believer is to do and fulfill, “For we are His workmanship, created in Christ Jesus for good works, which God prepared beforehand that we should walk in them” (Ephesians 2:10). In fact, this principle of God, for man to work, was given with the creation of man; God planted the Garden of Eden for Adam, but to look after and maintain that garden was Adam’s responsibility (Genesis 2:8, 15). Therefore, to be Christian Believer does not mean or imply that he should not work and labor, and only expect from God and the Assembly or Church to meet his physical needs and requirements. A disciple of Christ has to work for his living and needs.
The Apostle Paul illustrated this principle very well through his life; he used to work and earn for himself, so that he is never a burden upon anyone, and was also deeply involved in Christian ministry “And we labor, working with our own hands. Being reviled, we bless; being persecuted, we endure” (1 Corinthians 4:12); “For you remember, brethren, our labor and toil; for laboring night and day, that we might not be a burden to any of you, we preached to you the gospel of God” (1 Thessalonians 2:9); “nor did we eat anyone's bread free of charge, but worked with labor and toil night and day, that we might not be a burden to any of you” (2 Thessalonians 3:8); Paul even helped others with his earnings “But we were gentle among you, just as a nursing mother cherishes her own children” (1 Thessalonians 2:7); “And I will very gladly spend and be spent for your souls … ” (2 Corinthians 12:15). Paul gave instructions to the Christian Believers to do the same “that you also aspire to lead a quiet life, to mind your own business, and to work with your own hands, as we commanded you” (1 Thessalonians 4:11); and even said “For even when we were with you, we commanded you this: If anyone will not work, neither shall he eat” (2 Thessalonians 3:10).
From this, the message and instructions for Christian Believers are quite clear - Christian discipleship is not living a life of ease and relaxation, but to be working for the Lord to preach His gospel and fulfill the work He has kept for us. God the Father, and the Lord Jesus Christ have been working, and are still at work, so, how can God’s people not be working like them? The Lord Jesus Christ chose His disciples and instructed them that in their Christian ministry they should not be a burden upon others, but they should work for their living as well as help others with what they earn. To be a disciple of Christ Jesus does not mean to be dependent upon others to make ends meet and look after our families; rather it means to be useful and fruitful in and for the House of the Lord. In the coming days, we will be considering the aforementioned Lord’s purposes for His disciples in some detail. But for now, it is essential that we come out of wrong teachings and false notions about Christianity and understand that Christian discipleship is for a purpose, and eventually there will be an accounting of what has been done or not done by everyone.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Job 30-31
Acts 13:26-52
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