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रविवार, 4 सितंबर 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 15


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आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - प्रेरित: गुण और पहचान

    पिछले लेखों में हमने 1 कुरिन्थियों 12:28 से कलीसिया में उनकी उपयोगिता के आधार पर दी गई आत्मिक वरदानों की सूची में उल्लिखित लोगों के बारे में देखना शुरू कर दिया था। हमने देखा था कि प्राथमिक महत्व वचन की सेवकाई में लगे लोगों का है - प्रेरितों, नबियों और शिक्षकों का। इन वरदानों और ज़िम्मेदारियों के बारे में गलतफहमी और गलत व्याख्याओं से बचने के लिए, हमने उनके बारे में परमेश्वर के वचन में जो लिखा है, उसके आधार पर, और पहली कलीसिया के लोगों तथा प्रारंभिक मसीही विश्वासियों ने उनके बारे में जैसा जाना और समझा होगा, उसके अनुसार विचार करना शुरू किया था, क्योंकि यही दृष्टिकोण ही उनका निर्विवाद, अकाट्य, अपरिवर्तनीय प्राथमिक अर्थ है। हमने देखा कि परमेश्वर का वचन प्रेरित होने के बारे में क्या कहता है और क्या नहीं कहता है; और यह स्पष्ट हो गया था कि नए नियम में प्रेरितों को कभी भी मनुष्यों द्वारा नहीं, बल्कि हमेशा परमेश्वर द्वारा नियुक्त किया गया था; और कभी भी न तो कोई निर्देश और न ही कोई ऐसा मापदंड दिया गया था जिसके आधार पर चर्च में कभी भी किसी भी प्रेरित की नियुक्ति की जानी थी। हमने मरकुस 3:13-15 से यह भी देखा कि जब पहले प्रेरितों को प्रभु यीशु द्वारा नियुक्त किया गया था, तो उनके लिए एक विशेष क्रम में कुछ विशेष उद्देश्य भी तय किये गए थे। इसलिए, आज यदि कोई स्वयं को प्रेरित मानता है, तो इन उद्देश्यों को, उसी क्रम में, उस व्यक्ति के जीवन में भी दिखना चाहिए; वर्तमान प्रेरित मूल प्रेरितों से भिन्न नहीं हो सकते हैं, अन्यथा यह विरोधाभास होगा। आज हम कुछ और गुणों और विशेषताओं को देखेंगे जो पहली कलीसिया में, प्रारंभिक मसीही विश्वासियों के मध्य, प्रेरितों को परिभाषित करते थे।

    परमेश्वर का वचन स्वयं ही अपना सबसे अच्छा व्याख्याकार और समझाने वाला है, और परमेश्वर ने हमें प्रेरितों के काम 1:2-3 में अपने वचन में, एक प्रेरित के गुण और विशेषताएं, उसकी परिभाषा दी है। इन दो पदों में, हम तीन गुण और विशेषताएँ देखते हैं जिन्हें प्रेरित कहलाने वाले किसी भी व्यक्ति में उपस्थित होना था; य़े हैं:

  • प्रभु द्वारा चुना गया (पद 2)
  • प्रभु से निर्देश और आज्ञा प्राप्त किया हुआ (पद 2)
  • उसने पुनरुत्थान हुए प्रभु को देखा है (पद 3)

    पौलुस के जीवन में, दमिश्क के मार्ग पर उसे मिले प्रभु के दर्शन के द्वारा (प्रेरितों के काम 9:3-6), और फिर प्रभु से उसे मिले प्रकाशनों के द्वारा जिसके अनुसार उसने चर्चों को सिखाया और लिखा था (1 कुरिन्थियों 11:23; 15: 3; गलातियों 1:12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:2), ये तीनों गुण और विशेषताएँ पूरी हुईं (प्रेरितों 22:13-14)। पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 9:1-2 में इसकी पुष्टि की, और कई अवसरों पर अपनी पत्रियों में स्वयं को प्रेरित कहा (रोमियों 1:1; 1 कुरिन्थियों 1:1; 15:9; 2 कुरिन्थियों 1:1; गलातियों 1:1 इफिसियों 1:1; 1 तीमुथियुस 1:1)। इसके विपरीत, जैसा कि हमने पहले देखा है, प्रभु के कुछ (सभी नहीं) सेवक, कुछ अवसरों पर प्रभु के "विशेष संदेशवाहक या दूत" के रूप में सेवकाई के समय भी प्रेरित कहलाए थे, उदाहरण के लिए, बरनबास (प्रेरितों के काम 14:14), प्रभु के भाई याकूब (गलातियों 1:19), और संभवतः सीलास (यदि हम 1 थिस्सलुनीकियों 2:6 को 1:1 के साथ देखें), आदि। लेकिन संभवतः प्रेरितों के काम 1:2-3 के ये तीनों मापदंड उनके जीवन में पूरे नहीं हुए थे, और उनके लिए इन एकाकी उल्लेखों के अलावा, उन्हें प्रेरितों के रूप में संबोधित नहीं किया गया है, न ही कलीसिया के अगुवों के द्वारा, न ही स्वयं उन्हीं के द्वारा, जैसा कि हम पौलुस के लिए देखते हैं। निहितार्थ स्पष्ट है कि प्रेरित शब्द का उपयोग उनके लिए यह बताने के लिए किया गया है कि उस अवसर पर जब इस शब्द का उपयोग उनके लिए किया गया था वे "विशेष संदेशवाहक" थे, लेकिन प्रेरित होने की सेवकाई में उन्हें उस प्रकार से नियुक्त नहीं किया गया था, जैसा कि पौलुस को किया गया था। और, इस बारे में कलीसिया में, मसीही विश्वासियों में, कभी कोई भ्रम नहीं था, इसे कभी कोई मुद्दा नहीं बनाया गया था, इसे कभी भी दूसरों को "प्रेरित" कहने के लिए उद्धृत करने और उपयोग करने के लिए एक उदाहरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया गया था, जैसा कि आजकल किया जाता है।

    परमेश्वर द्वारा प्रेरित के रूप में नियुक्त किए जाने के विपरीत का एक और तुलनात्मक विरोधाभास है - एक उदाहरण, मनुष्यों द्वारा इस कार्य को अपने ऊपर ले लेना और एक व्यक्ति को एक प्रेरित के रूप में नियुक्त कर देना - यहूदा इस्करियोती के स्थान पर मत्तिय्याह को एक प्रेरित के रूप में नियुक्त करना। लेकिन इस नियुक्ति का परिणाम अन्ततः अनिश्चित और अस्पष्ट रहा। हम प्रेरितों के काम 1:15-26 में देखते हैं, प्रभु के शिष्य पवित्र आत्मा की शक्ति प्राप्त करने की प्रतीक्षा कर रहे थे, क्योंकि उसके बाद उन्हें सुसमाचार का प्रचार करने के लिए निकलना था। वे अपना प्रतीक्षा का यह समय प्रार्थना में (प्रेरितों 1:4) और मंदिर में आराधना में शामिल होने में व्यतीत करते थे (लूका 24:53)। इस स्थिति में, पतरस स्वतः ही उठा (प्रेरितों 1:15) और उसने औरों को यहूदा इस्करियोती के स्थान पर एक अन्य व्यक्ति को प्रेरित के रूप में नियुक्त करने के लिए मना लिया। हमें कहीं भी यह लिखा हुआ नहीं मिलता है कि पतरस ने प्रभु के निर्देशों के अनुसार ऐसा किया था; न ही पतरस यह कहता है कि उसने इस विषय में प्रार्थना की थी और प्रभु ने उसे ऐसा करने का निर्देश दिया था। इसके विपरीत, प्रभु यीशु ने प्रथम बारह प्रेरितों को नियुक्त करने से पहले (मत्ती 10:2), पूरी रात प्रार्थना में बिताई, इस बारे में परमेश्वर के साथ विचार-विमर्श किया, और उसके बाद ही यह नियुक्ति की (लूका 6:12-13)। यह भी ध्यान देने योग्य है कि, यदयपि अपने स्वर्गारोहण से पहले, प्रभु यीशु ने शिष्यों को उनकी आने वाली सेवकाई के बारे में निर्देश दिया था, उन्हें सुसमाचार प्रचार की महान आज्ञा दी थी, और उन्हें पवित्र आत्मा की शक्ति प्राप्त होने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा था; परन्तु प्रभु ने उन्हें  कभी यहूदा इस्करियोती के स्थान पर किसी अन्य को नियुक्त करने के लिए नहीं कहा। लेकिन फिर भी पतरस अपने मन की इस इच्छा के साथ खड़ा हुआ, पवित्रशास्त्र को उद्धृत करके इसे उचित ठहराया (प्रेरितों 1:16, 20-22), और अंततः मत्तिय्याह को उनके द्वारा यहूदा इस्करियोती के स्थान पर चुन लिया गया। लेकिन इस पूरे स्वयं-निर्धारित कार्य का एक दिलचस्प निष्कर्ष है, जो प्रेरितों के काम 1:26 के अंत में कहा गया है, "तब उन्होंने उन के बारे में चिट्ठियां डालीं, और चिट्ठी मत्तिय्याह के नाम पर निकली, सो वह उन ग्यारह प्रेरितों के साथ गिना गया" - पवित्र आत्मा ने केवल यह लिखा था कि वह (मत्तिय्याह) "उन ग्यारह प्रेरितों के साथ गिना गया"; जबकि यदि यह परमेश्वर की इच्छा से किया गया होता, और परमेश्वर को स्वीकार्य होता, तो एक अधिक उपयुक्त अभिव्यक्ति होती "और वह बारहवां प्रेरित बन गया।" लेकिन नए नियम में कहीं भी मत्तिय्याह का फिर से उल्लेख नहीं किया गया है, और न ही एक प्रेरित के रूप में उसके किसी कार्य या सेवाकाई का कहीं कोई उल्लेख है। बहुत संभव है, प्रभु की इच्छा में, यह पौलुस ही था जिसे यह बारहवां प्रेरित होना था, जैसा कि हम देखते हैं कि बाद में हुआ भी।

    पहली कलीसिया में, जबकि सच्चे प्रेरित मौजूद थे, उस समय भी, शैतान ने बड़ी चतुराई से अपने लोगों को कलीसिया में घुसा लिया था और उन्हें कलीसिया में "झूठे प्रेरित" (2 कुरिन्थियों 11:13) के रूप में रख दिया था, ताकि वे प्रभु परमेश्वर के काम को बिगाड़ दें और लोगों को सच्चाई के मार्ग से भटका दें। ये झूठे प्रेरित "पेशेवर प्रचारक" के रूप में घूमते थे जो पैसे के लिए प्रचार करते थे और आकर्षक सांसारिक बातों के बारे में बोलते थे, उन बातों के बारे में जिन्हें लोग सुनना चाहते थे, न कि वह जो परमेश्वर लोगों से कहना चाहता था (2 तीमुथियुस 4:3-4)। ऐसे प्रचारक, पद और अधिकार का दावा करने के लिए, दुनिया के लोगों से सिफारिश के पत्र लेकर घूमते रहते थे, और पौलुस द्वारा दी जा रही शिक्षाओं का विरोध करते थे (2 कुरिन्थियों 3:1-3)। यह बहुत कुछ वैसा ही है जैसा आज अक्सर इन स्व-नियुक्त या मनुष्यों द्वारा नियुक्त "प्रेरितों" के बारे में देखा जाता है - वे लोगों से प्राप्त ओहदे, सम्मान, प्रशंसा और लोकप्रियता के बारे में अपनी ही तुरही फूँकते फिरते हैं। फिर, अपनी इस सांसारिक लोकप्रियता और मानवीय प्रशंसा के आधार पर वे स्वयं को, अपनी शिक्षाओं और अपने कार्यों को विशेष और महत्वपूर्ण के रूप में पेश करते हैं, और परमेश्वर के वचन के सच्चे सेवकों द्वारा दी गई परमेश्वर के वचन की सही और तथ्यात्मक शिक्षाओं का, जो बिना किसी नाटक के, विनम्रता और ईमानदारी से दी जाती हैं, विरोध करते हैं या उन्हें गलत दिखाने के प्रयास करते हैं। प्रभु यीशु ने कहा था कि सच्चे और झूठे भविष्यद्वक्ताओं के बीच का अंतर उनके फलों से स्पष्ट हो जाएगा (मत्ती 7:16-20)। प्रभु के इस कथन के आधार पर, पौलुस कोरिन्थ के विश्वासियों से कहता है, कि तुम ही हमारे प्रशंसा-पत्र हो, और हमें अपनी खुद की तुरही फूंकने या किसी व्यक्ति से कोई प्रशंसा लेने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम ही हमारे परिश्रम का फल हो, जिसे लोग देखते हैं, और झूठे प्रेरितों के "फलों" के साथ तुलना करके सत्य को समझ लेते हैं; तथा प्रभु भी हमारी सेवकाई और कार्यों को अच्छी तरह से जानता है, और हमारी सच्चाई को अच्छी तरह जानता है। एक व्यक्ति के प्रेरित होने या न होने के बारे में मूल्यांकन करने और निर्णय लेने का तरीका यही है कि हम मरकुस 3:13-15, प्रेरितों 1:2-3, और उनके जीवनों तथा कार्यों के "फलों" से क्या देखते हैं? कोई भी व्यक्ति जो प्रेरित होने का दावा करता है, लेकिन उसमें बाइबिल में दिये हुए प्रेरित के ये गुण और विशेषताएं नहीं हैं, वह प्रभु यीशु का सच्चा प्रेरित नहीं है।

    यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके ध्यान देने के लिये यह  महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर के वचन के अधिकांश विद्वानों, और परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता में प्रभु के कार्य में लगे अधिकाँश लोगों का मत है कि प्रेरितों के साथ-साथ, प्रेरितों का युग भी समाप्त हो गया है। उनके जाने के बाद, परमेश्वर ने कभी किसी प्रेरित को नियुक्त नहीं किया, और न ही कभी किसी को प्रेरितों को नियुक्त करने का निर्देश दिया। आज "प्रेरितों" शब्द के शब्दार्थ "किसी विशेष उद्देश्य के लिए या संदेश देने के लिए एक विशेष अधिकार के साथ नियुक्त व्यक्ति" का दुरुपयोग कुछ लोग कलीसिया और मसीही समाज में अपना एक विशेष स्थान जताने और इस शब्द के साथ जुड़े हुए विशेषाधिकारों का लाभ उठाने के लिए करते हैं। वे इसके द्वारा अपने लिये नाम और प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, और इसका दुरुपयोग दूसरों पर अधिकार रखने की उपाधि के रूप में करते हैं। हो सकता है कि उनका उपदेश बहुत आकर्षक और लुभावना हो, जिसमें बाइबिल का बहुत ज्ञान हो, और सही भी प्रतीत होता हो - जैसे कि बारहवें प्रेरित को नियुक्त करने के लिए पतरस का संबोधन और तर्क थे। लेकिन उनका वास्तविक सत्य उनके फलों से देखा तथा पहचाना जाएगा - उनके जीवन, उनके प्रचार के सांसारिक और लोकलुभावन विषय, उनके संदेशों में पापों से पश्चाताप और सुसमाचार के महत्त्व एवं पालन की कमी का होना, उनके जीवन में पवित्र आत्मा के फलों की अनुपस्थिति, आदि के द्वारा। इसके बजाय, वे प्रभु से शारीरिक चंगाई और सांसारिक समृद्धि प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित रखते हैं। वर्तमान समय के ये प्रेरित आम तौर पर लोगों को सांसारिक आशीषों, भौतिक समृद्धि, और शारीरिक चंगाई पाने की ओर ही प्रोत्साहित करते हैं, उसी दिशा में जाने के लिए लोगों का नेतृत्व करते हैं; पापों से पश्चाताप, उद्धार और अनन्त जीवन, और उसकी अनन्तकालीन आशीषों की ओर नहीं। और यह बाइबल के अनुसार प्रभु यीशु के सच्चे प्रेरित का गुण नहीं है। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 143-145 

  • 1 कुरिन्थियों 14:21-40

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English Translation

Users of the Gifts of the Holy Spirit - Apostles: Characteristics & Identification


In the previous articles we had started to see the about the users of the Spiritual gifts, in the list of 1 Corinthians 12:28 sequentially mentioned, based on their utility in the Church. We had seen that the primary importance is of those engaged in Ministry of the Word - the Apostles, Prophets, and Teachers. To avoid misunderstandings and misinterpretations about these gifts and responsibilities, we started considering them on the basis of what is written in God’s Word about them, and how the people of the first Church, the initial Christian Believers would have understood about them, since that is their incontrovertible, irreplaceable, unalterable primary meaning. We saw what God’s Word says and does not say about being an Apostle, and it became evident that in the New Testament the Apostles were never appointed by men, but always by God; and no instructions or any criteria were ever given on the basis of which any appointment was to be made of any Apostles in the Church by any persons at any time, then or later. We also saw from Mark 3:13-15 that when the first Apostles were appointed by the Lord Jesus, He had a special purpose in a sequential order for them to fulfill; therefore, today, if anyone considers himself an Apostle, these purposes, in that same order, should also be seen in that person’s life; current Apostles cannot be different than the original Apostles, for that would be a contradiction. Today we will see another set of characteristics that defined the Apostles in the first Church, amongst the initial Christian Believers.


God’s Word is its own best interpreter and expositor, and God has given to us the characteristics of an Apostle, his definition, in His Word in Acts 1:2-3. In these two verses, we see three characteristics that had to be present in anyone called an Apostle; these are:

  1. Chosen by the Lord (verse 2)

  2. Received commandments from the Lord (verse 2)

  3. Had seen the resurrected Lord (verse 3)


In Paul’s life, through the vision he had of the Lord on the road to Damascus (Acts 9:3-6), and the revelations he received according to which he taught and wrote to the Churches (1 Corinthians 11:23; 15:3; Galatians 1:12; 1 Thessalonians 4:2), these three characteristics were fulfilled (Acts 22:13-14). Paul affirmed about this in 1 Corinthians 9:1-2, and on multiple occasions called himself an Apostle in his letters (Romans 1:1; 1 Corinthians 1:1; 15:9; 2 Corinthians 1:1; Galatians 1:1; Ephesians 1:1; 1 Timothy 1:1). In contrast, unlike the case of Paul, as we have seen earlier, some (not all) of the ministers, as special “messengers of the Lord”, on occasions, were also called Apostles, e.g., Barnabas (Acts 14:14), Lord’s brother James (Galatians 1:19), and possibly Silas (if we see 1 Thessalonians 2:6 along with 1:1) etc. but probably all the three criteria of Acts 1:2-3 had not been fulfilled in their lives, and other than these isolated mentions for them as Apostles, they have not been addressed as Apostles, neither by the Church Elders, nor by themselves. The evident implication is that the word apostle has been used for them to convey that they were “special messengers” on the occasions the word has been used for them, but had not been appointed to the Apostolic Office, as Paul had been. And, there never was any confusion in the Church about this, it was never made an issue, it was never used as a precedence to cite and use for calling others as “apostles”, as is done these days.


There is another contrast to being appointed as Apostle by God - one instance, of men taking it upon themselves and appointing a person as an Apostle - appointing Matthias as an Apostle in place of Judas Iscariot. But the outcome of this appointment was uncertain and vague. We see in Acts 1:15-26, the disciples of the Lord were waiting to receive the power of the Holy Spirit, and then go out to preach the Gospel. They used to spend their time in prayer (Acts 1:4) and in joining worship in the Temple (Luke 24:53). In this situation, Peter got up on his own (Acts 1:15) and convinced the others to appoint another person as Apostle, in place of Judas Iscariot. Nowhere do we find written that Peter did this under the Lord’s instructions; nor does Peter say that he had prayed about this and was instructed by the Lord to do this. In contrast, the Lord Jesus before appointing the first twelve Apostles (Matthew 10:2), spent the whole night in prayer, conferring with God about this, and only then made this appointment (Luke 6:12-13). Also take note, that before His ascension, the Lord Jesus had instructed the disciples about their coming ministry, given them the Great Commission, and asked them to wait till they received the power of the Holy Spirit; but had never ever asked them to appoint someone in place of Judas Iscariot while they waited. But still, Peter stood up with this desire, justified it by quoting Scripture (Acts 1:16, 20-22), and eventually Matthias was chosen by them to replace Judas Iscariot. But there is an interesting conclusion to this whole contrived exercise, stated at the end of Acts 1:26 “And they cast their lots, and the lot fell on Matthias. And he was numbered with the eleven apostles” - the Holy Spirit only had it written that he (Matthias) was “was numbered with the eleven apostles”; whereas if this had been done in the will of God, and had the approval of God, then a more appropriate expression would have been “and he became the twelfth Apostle.” But nowhere in the New Testament is Matthias mentioned again, nor do we see him being used as an Apostle. Quite likely, in the Lord’s will, it was Paul who was to be this twelfth Apostle, as we see happened later.


As, in the first Church, even while the true apostles were present, at that time, Satan had cleverly brought in his own people and placed them as “false apostles'' (2 Corinthians 11:13) in the Church, so that they may sabotage the Lord’s work and beguile people away from the way of truth. These false apostles went around as “professional preachers'' who would preach for money and they would speak about attractive worldly things, speaking about what the people wanted to hear, and not what God had to say (2 Timothy 4:3-4). Such preachers went around carrying letters of recommendation from the people of the world, to claim status, fame, and authority, and opposed the teachings given by Paul (2 Corinthians 3:1-3). This is quite similar to what is often seen today about these self-appointed or men-appointed “apostles” - they go around blowing their own trumpet about the status, fame, commendations, and popularity they have received from the people. Then, on this basis they project themselves, their teachings, and their works as special and important, and undermine or oppose the correct and factual teachings of God’s Word given out by the true ministers of God’s Word, whose ministry is without any drama, done in humility and in truthfulness to God’s Word, through the guidance and power of the Holy Spirit. The Lord Jesus had said that the difference between the true and false prophets will become evident by their fruits (Matthew 7:16-20). On the basis of this saying of the Lord, Paul tells the Believers in Corinth, that you are our recommendation letters, and we have no need to blow our own trumpet or seek any commendation from any person, since you are the fruits of our labor which people see, and are able to discern the truth by contrasting with the “fruits” of the false apostles. The Lord too is well aware of our ministry and works, and knows the truth very well. We can see that the way of evaluating and deciding about a person being an Apostle is by what we have seen from Mark 3:13-15, from Acts 1:2-3, and by their “fruits”. Anyone claiming to be an Apostle, but not having these Biblical characteristics in him, is not a true Apostle of the Lord Jesus.


If you are a Christian Believer then it is important for you to note that most scholars of God’s Word, and those engaged in the Lord’s work in obedience to God’s Word are of the opinion that along with the passing away of the Apostles, the time of Apostolic office came to an end. After them, God never appointed any Apostles, nor ever instructed anyone to appoint any Apostles. By using the literal meaning of the word “apostles” as someone appointed for a special purpose or with a special authority to convey a message, people can misuse this term to claim a special status and privileges in the Church, acquire name and fame, and use it as a title to have authority over others. Maybe that the preaching of these alleged apostles will be very attractive and appealing, done in the name of the Lord God, having a lot of Biblical knowledge, and appear to be factual - just as Peter’s address and arguments for appointing the twelfth apostle were. But their actual truth will be seen by their fruits - their lives, the worldly and populistic themes of their preaching, their lack of adherence to the Gospel and of call for repentance from sins, the absence of the fruits of the Holy Spirit in their lives. Instead, they concentrate upon physical healings and worldly prosperity. These modern-day apostles usually inspire and lead people towards temporal blessings, and physical healings; but not towards repentance from sins, salvation and eternal life, and its eternal blessings. Biblically speaking, this is not a characteristic of a true Apostle of the Lord Jesus.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 143-145 

  • 1 Corinthians 14:21-40




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