परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 11
पिछले लेख में हमने देखा था कि अपनी सेवकाई में प्रचार करने या शिक्षा देने के लिए, पौलुस केवल वही कहता था जो परमेश्वर उसे कहने के लिए देता था। हमने यह भी देखा था कि पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य में होकर, अविश्वासियों, नए विश्वासियों, और विश्वास में अपरिपक्व लोगों से वह प्रभु यीशु मसीह और उसके क्रूस पर चढ़ाए जाने, अर्थात सुसमाचार की बात करता था; और जो परिपक्व विश्वासी थे, उन से परमेश्वर द्वारा पहले कही गई, किन्तु अभी तक गुप्त रखी गई भेद की बातों के बारे में बात करता था। लेकिन दोनों ही स्थितियों में, वह परमेश्वर द्वारा दी गई बात के अतिरिक्त और कुछ नहीं बोलता था। आज हम 1 कुरिन्थियों 4:6 से पौलुस द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और व्यवहार से सम्बन्धित एक अन्य पक्ष को पौलुस के उदाहरण से देखेंगे।
इस पद में अपने आप को तथा अपुल्लोस को उदाहरण के समान प्रस्तुत करते हुए, पौलुस कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों से कहता है कि वे उनके जीवनों से सीखें; और उनके सामने दो बातें रखता है, जिन पर उन्हें ध्यान देना चाहिए। पहली, परमेश्वर के वचन से उपयोग और व्यवहार के लिए कुरिन्थुस के विश्वासियों को पौलुस तथा अपुल्लोस के जीवन से सीखना था कि जो भी लिखा हुआ है, उस से आगे न बढ़ें; हम इसके बारे में अगले लेख में देखेंगे। दूसरा, मण्डली में से किसी को भी किसी एक सेवक के पक्ष में तथा दूसरे के विरोध में किसी प्रकार का कोई गर्व नहीं करना चाहिए, उनमें से किसी को भी दूसरे से बढ़कर नहीं देखना या समझना चाहिए। पौलुस ने इस पद में इस दूसरी बात के विषय में जो कहा है, उसके बारे में वह पहले ही 1 कुरिन्थियों 3:4-8 में लिख चुका था। वह बता चुका था कि दोनों, पौलुस और अपुल्लोस, परमेश्वर के सेवक थे, सेवकाई के लिए परमेश्वर द्वारा ही नियुक्त किए गए थे। जैसे-जैसे वे अपनी सेवकाई को उचित रीति से पूरा करते जाते थे, परमेश्वर उन्हें और उनकी सेवकाई को आशीषित करता जाता था, उन्हें बढ़ाता जाता था। इसलिए किसी व्यक्ति के द्वारा उनमें से एक को दूसरे से बढ़कर समझने या महत्व देने का कोई औचित्य नहीं था। न तो पौलुस, और न ही अपुल्लोस, अपनी किसी योग्यता के कारण सफल होते थे; दोनों ही परमेश्वर की आज्ञाकारिता में होकर काम करने और उससे आशीष पाने के कारण ही सफल थे। इसलिए उनकी सेवकाई की सफलता का सारा श्रेय और सारी महिमा परमेश्वर ही की थी, उन दोनों में से किसी की नहीं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति उनमें से किसी एक को दूसरे से बढ़कर समझाता, तो यह उसके वास्तविकता से अनजान होने का, तथा व्यर्थ बातों के पीछे जाने वाला होने का चिह्न था। उसे जो करना चाहिए था, वह था, दोनों पौलुस और अपुल्लोस के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करे, और उन दोनों से ही सीखे; न कि किसी एक को दूसरे से बढ़कर समझे (1 कुरिन्थियों 1:10-13)।
परमेश्वर किसी भी आधार पर अपनी कलीसिया, जो प्रभु यीशु की देह और उसकी दुल्हन है, में किसी भी विभाजन या गुट बनाने को बड़ी कड़ाई से मना करता है; और यह प्रभु परमेश्वर और उसके वचन के पीछे चलने की बजाए किसी मनुष्य का पक्ष लेकर उसके पीछे चलने के कारण तो कदापि नहीं होना है। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा कहा है कि जो लोग इस तरह से विभाजन और गुट बनाने वाले हैं, वे अपरिपक्व, शारीरिक, और परमेश्वर की संतान के समान नहीं वरन मात्र सांसारिक मनुष्यों के समान व्यवहार करने वाले हैं (1 कुरिन्थियों 3:1-4)। इसलिए, परमेश्वर के वचन के आधार पर, व्यक्ति की आत्मिक परिपक्वता की बाइबल के अनुसार एक पहचान उसकी प्रवृत्ति है – क्या वह परमेश्वर के वचन का आज्ञाकारी है उसका अनुसरण करता है, अथवा मनुष्य और मनुष्यों की शिक्षाओं का आज्ञाकारी और अनुसरण करने वाला है; चाहे वह मनुष्य परमेश्वर का कोई सेवक ही क्यों न हो। प्रकट है कि यही बात इतनी ही सत्य उनके लिए भी होगी जो परमेश्वर की कलीसिया में विभाजन और गुट बनाते हैं, ऐसा करना प्रोत्साहित करते हैं। हम 1 कुरिन्थियों 11:18-19 से देखते हैं कि इस प्रवृत्ति का मुख्य कारण है लोगों का मण्डली में प्रमुख स्थान और उच्च पहचान मिलने की लालसा रखना। और यह इस बात का सूचक है कि ऐसे लोग प्रभु को पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी नहीं हैं, बल्कि व्यक्तिगत लाभ, स्थान, और स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रभु को उपयोग करना चाहते हैं, जिसके विरुद्ध वचन में कड़े शब्दों में कहा गया है (1 यूहन्ना 2:15-17)।
तो, पौलुस द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और व्यवहार से हमें एक और शिक्षा मिलती है कि हम इस बात का ध्यान रखें कि परमेश्वर के वचन का उपयोग और उससे व्यवहार करते समय हम किसी भी रीति से कलीसिया में कोई विभाजन या गुट बनाने वाले न हो जाएँ, और अपने जीवनों को उदाहरण बनाकर कलीसिया में भी इसी बात को सिखाएँ।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 11
In the previous article we had seen that to preach or teach in his ministry, Paul only spoke that which God had given him to say. We also saw that under the guidance and the power of the Holy Spirit, to unbelievers, novices, those immature in faith, he spoke about the Lord Jesus and Him crucified, i.e., the gospel; and to those mature, he spoke about the mysteries of God, which God had ordained earlier, but had not been laid open till now. But in either case, he never spoke anything other than what God had given him to say. Today, we will see another related aspect of Paul’s utilization and handling of God’s Word from 1 Corinthians 4:6.
In this verse, Paul using himself and Apollos as examples, exhorts the Christian Believers of Corinth to learn from them; and puts forth two things that they were to take note of. Firstly, in utilizing and handling God’s Word, the Corinthian Believers should learn from Paul and Apollos, not to go beyond what is written; and we will look at this in the next article. Secondly, none of the congregation should get puffed up, or take pride in either of the ministers serving amongst them, considering one above the other. This second point, Paul had already talked about in 1 Corinthians 3:4-8, that both of them, Paul and Apollos, were God’s servants, ministers appointed by God. As they fulfilled their God assigned ministry appropriately, God blessed them and their ministry, and gave the increase. Hence there was no sense in any person preferring, or giving importance to one over the other in the Church. Neither Paul nor Apollos was successful because of their own abilities; both were successful because of serving God obediently and being blessed by Him. Therefore, all the glory and credit belonged only to God, not either of them. So, anyone preferring one over the other, would be totally missing the point, and going after a vain thing. The actual thing to do was to thank and bless God for both Paul and Apollos, and learn from both of them; instead of following one or the other (1 Corinthians 1:10-13).
God’s Word strongly forbids any divisions and factions on any grounds, in the Church, the Body and Bride of Christ; least of all on grounds of favoring or following men, instead of following the Lord God and His Word. God the Holy Spirit, through Paul has said that those who indulge in such factionalism, are immature and carnal, behaving not like the children of God, but like mere men of the world (1 Corinthians 3:1-4). So, on the basis of God’s Word, one Biblical sign of a person’s spiritual maturity is his tendency – whether of following and obeying Gods Word, or of following and obeying man and his teachings, even if that man is a minister of God. Evidently, the same should be true for those who create and promote divisions and factions in the Church of God. We see from 1 Corinthians 11:18-19, the main cause of this is people wanting to have prominence and recognition in the congregation. This is a definite indication that they are not fully submitted and obedient to the Lord, but want to use the Lord for personal gain, position, and profit, something that has been strongly spoken against and warned about (1 John 2:15-17).
So, another lesson that we learn from Paul about utilizing and handling the Word of God is to make sure that through utilizing God’s Word, we do not in any way promote divisions and factionalism in the Church, and teach the same by becoming an example for the Church.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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