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शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 48 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 34

परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 2

 

    एक पिछले लेख में हमने उस सामर्थ्य और आशीष के बारे में देखा था जो परमेश्वर के वचन को अपने जीवनों में उसका उचित स्थान और आदर प्रदान करने से लोगों को मिलती है। अब, पिछले लेख से हमने, मसीही विश्वासी के परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी से संबंधित बातों के बारे में, अपने ध्यान को इसके एक अन्य पक्ष की ओर केन्द्रित किया है। अभी तक हम देखते आ रहे थे कि परमेश्वर के वचन के साथ किन तरीकों से अनुचित व्यवहार करके उसका दुरुपयोग किया जाता है; अब, पिछले लेख से हमने देखना आरम्भ किया है कि मसीही विश्वासी के द्वारा वचन के साथ उचित व्यवहार किस प्रकार का होना चाहिए। इस सन्दर्भ में हमने पिछले लेख में यह भी देखा था कि प्रेरित पौलुस जो कि लगभग दो-तिहाई नए नियम का मानवीय लेखक है, हमारे लिए एक उपयुक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है कि परमेश्वर के वचन के साथ किस प्रकार से व्यवहार करना चाहिए। वह जिस तरह से परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार करता था, उससे हम बहुत बातें सीख सकते हैं, जान सकते हैं कि हमें यह कैसे करना है।


    तो फिर, हम मसीही विश्वासियों को परमेश्वर के वचन के साथ किस प्रकार से व्यवहार रखना और करना चाहिए? पिछले लेख में हमने उन बातों को देखा था जिन पर पौलुस का मसीही जीवन, सेवकाई, और वचन के साथ व्यवहार पूर्णतः आधारित था, वे उसकी नींव थीं; और वह उन बातों के बाहर कभी नहीं गया। क्योंकि पौलुस परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार संबंधित उन सिद्धांतों को लेकर इतना दृढ़ और अडिग था, इसीलिए, परमेश्वर ने भी उसे वचन के गहरे दर्शन दिए, पहले गुप्त रखे गए भेदों को उस पर प्रकट किया, परमेश्वर ने उसे अन्य-जातियों के मध्य बहुत सामर्थ्य के साथ सुसमाचार प्रचार करने के लिए उपयोग किया, यद्यपि वह सामान्यतः पैदल ही यात्राएँ करता था, लेकिन फिर भी परमेश्वर उसे दूर-दूर के बहुत से स्थानों तक लेकर गया, उसे उचित सहकर्मी और साथी दिए, और हमारे आज के संपर्क रखने और वार्तालाप करने के आधुनिक साधनों के बिना भी, वह जहाँ जाता था, वहाँ के लोगों से तथा स्थापित कलीसियाओं के साथ संपर्क बना कर रख सका। दूसरे शब्दों में, यदि हम मसीही विश्वासी भी इन सिद्धान्तों को समझ और स्वीकार कर लें जिन पर पौलुस का जीवन और सेवकाई आधारित थे, तो हम भी परमेश्वर के द्वारा बहुतायत से उसकी महिमा के लिए उपयोग किए जा सकते हैं, उस से आशीषित हो सकते हैं।


    ये सिद्धान्त, जिन का उल्लेख हमने पिछले लेख में किया था, हैं:

·        पौलुस परमेश्वर के और उसके कार्य के लिए बहुत उत्साही और उद्यमी था, उसके मसीही बनाने से पहले भी (फिलिप्पियों 3:6), और फिर उसके बाद भी। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था परमेश्वर को प्रसन्न करना, उसे ऊँचे पर उठाना, उसका आज्ञाकारी रहना, चाहे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।

·        प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने के बाद, उसने अपने आप को बहुत ही दीन कर लिया था, वह अपने आप को प्रभु के एक निम्न-कोटि के दास से अधिक नहीं समझता था (रोमियों 1:1), और वह औरों को मसीह के पास लाने के लिए स्वयं को समायोजित करने, उनकी आवश्यकता के अनुसार अपने आप को अनुकूलित करने के लिए तैयार रहता था (1 कुरिन्थियों 9:19-22); लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि वह किसी भी रीति से अपने विश्वास अथवा परमेश्वर के वचन के साथ कोई समझौता करने को तैयार रहता था।

·        पौलुस ने कभी भी अपने विश्वास अथवा परमेश्वर के वचन के साथ किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया (गलातियों 2:5, 14; 4:16)। लेकिन साथ ही, सुसमाचार को प्रस्तुत करने में, उसने कभी अविश्वासियों को कोई ठोकर नहीं दी (प्रेरितों 19:37; 24:12; 25:8; 2 कुरिन्थियों 6:3), तथा साथ ही औरों को भी यही करना सिखाया भी (1 कुरिन्थियों 10:32)।

·        पौलुस इस बात के प्रति बहुत प्रतिबद्ध था कि सेवकाई के लिए उसकी नियुक्ति और उसका भण्डारी होना परमेश्वर की ओर से है, न कि किसी मनुष्य की (1 कुरिन्थियों 9:17; गलातियों 1:1; 1 तीमुथियुस 1:1)। इसलिए उसने अपनी सेवकाई के विषय अपने आप को कभी भी किसी मनुष्य को जवाबदेह होने या उसके आधीन होने के लिए बाध्य नहीं समझा; किन्तु कभी कलीसिया के अनुशासन को भंग नहीं किया, कभी घमण्डी या उद्दण्ड नहीं रहा, कभी अपने आप को ही अपना अधिकारी मान कर काम नहीं किया।

·        पौलुस परमेश्वर के वचन को सीखने के लिए, पूर्णतः परमेश्वर पर ही निर्भर रहता था (1 कुरिन्थियों 11:23; 15:3; इफिसियों 3:3-5; गलातियों 1:11-12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:2)।

·        पौलुस परमेश्वर का आज्ञाकारी रहता था, और जहाँ भी परमेश्वर उसे भेजता था, वहाँ जाता था, और वही कहता था, जो परमेश्वर चाहता था कि वह कहे (प्रेरितों 16:6-10; 23:11)।

·        पौलुस यह जानता और भरोसा रखता था कि जैसे उसकी नियुक्ति, उसका सन्देश, और उसकी सेवकाई परमेश्वर की ओर से थे, उसी प्रकार से उसकी जवाबदेही भी परमेश्वर को थी। पौलुस भली-भांति जानता था कि जैसे अन्य सभी को, वैसे ही उसे भी अपने जीवन और कार्यों के लिए परमेश्वर को जवाब देना ही होगा (रोमियों 2:6; 14:10-12; 1 कुरिन्थियों 3:8; 2 कुरिन्थियों 5:10; गलातियों 6:5; इफिसियों 6:8; कुलुस्सियों 3:24-25)। इसीलिए, वह हमेशा यही प्रयास करता रहता था कि हमेशा, हर बात के लिए परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बना रहे (रोमियों 14:8; 2 कुरिन्थियों 5:9; गलातियों 1:10), साथ ही उसके कारण किसी को ठोकर भी न लगने पाए, और न ही अपने विश्वास और परमेश्वर के वचन के लिए कोई समझौता करे; और वह यही करना सिखाया भी करता था (1 कुरिन्थियों 15:58; कुलुस्सियों 1:10; 1 थिस्सलुनीकियों 4:1; 2 तीमुथियुस 2:4)।

 

    ये सभी गुण, परमेश्वर और उसके कार्य के लिए उत्साहित रहना, हमेशा हर बात के लिए परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बने रहने के लिए प्रयासरत रहना, अपने विश्वास और परमेश्वर के वचन के साथ कोई भी समझौता किए बिना, किसी को भी अपने जीवन से ठोकर नहीं देना, परमेश्वर से वचन को सीखना, बहुत दीनता और नम्रता के साथ परमेश्वर तथा मनुष्यों की सेवा करना, और इस एहसास के साथ सेवकाई करना कि उसके लिए वह किसी मनुष्य को नहीं, केवल परमेश्वर को उत्तरदायी है, वे पूर्वापेक्षित आधारभूत बातें हैं जो परमेश्वर के वचन से प्रभावी रीति से व्यवहार करने के लिए अनिवार्य हैं, ताकि हम परमेश्वर से आशीषित हों और परमेश्वर को महिमा मिलने पाए।


    अगले लेख से हम कुछ विशिष्ट उदाहरणों को देखना आरम्भ करेंगे कि पौलुस किस प्रकार परमेश्वर के वचन के साथ कार्य करता था, और उस दौरान, बीच-बीच में, आवश्यकतानुसार, उपरोक्त बातों और हवालों का भी उपयोग करते रहेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Appropriately Handling God’s Word – 2

 

    In an earlier article, we had seen the power and blessing God’s Word brings in the lives of those who give it it’s due respect and status in their lives. Now, since the previous article, in considering a Christian Believer’s responsibility to be a steward of God’s Word, we have shifted focus from the ways God’s Word is misused and inappropriately handled, to what the proper handling of God’s Word should be like by a Christian Believer. In the last article we have also seen how and why the Apostle Paul, the human author of about two-thirds of the New Testament, serves as an appropriate example about learning the handling of God’s Word; we can learn many things from the way he handled God’s Word, and how we too ought to do it.


    So, how should we Christian Believers handle God’s Word? In the last article we had seen the things that formed the very basis, the foundation, upon which Paul’s Christian life, his ministry, and his handling of God’s Word was based; and he never went outside of those foundational points. Because Paul was so firm and established about these basic principles related to handling God’s Word, therefore, God gave him great insights, opened his understanding to mysteries kept hidden earlier, God used him mightily to preach the gospel amongst the Gentiles, though he usually travelled by foot yet God took him far and wide to many places, gave him suitable companions, and without having our modern means of communication, an ability to keep communicating with the people in the places he had been and in the Churches established through him. In other words, if we Christian Believers can understand and accept these same principles upon which Paul’s ministry was based, we too can be blessed and mightily used by God for His glory.


    These principles, mentioned in the last article, are:

·        Paul was very zealous and hard working for God and God’s work, before his conversion (Philippians 3:6), as well as after it. The sole aim of his life had been to please God, exalt Him, obey Him, at whatever cost.

·        Having accepted Lord Jesus as his savior, he greatly humbled himself, considered himself no more than a lowly slave of the Lord (Romans 1:1), and became willing to adjust and accommodate himself in any required manner, to bring others to Christ (1 Corinthians 9:19-22); but this did not mean his compromising in any manner in faith or on God’s Word.

·        Paul never compromised on his faith, or on God’s Word (Galatians 2:5, 14; 4:16). But in his presenting the gospel, he never offended the non-Believers (Acts 19:37; 24:12; 25:8; 2 Corinthians 6:3), and taught doing the same (1 Corinthians 10:32).

·        Paul was also very committed to the fact that his appointment to his ministry and stewardship was from God, not any person (1 Corinthians 9:17; Galatians 1:1; 1 Timothy 1:1). Therefore, he never felt obliged to, or under any man for his ministry, without breaking Church discipline, or becoming impudent, an authority to himself.

·        Paul solely depended upon God to learn God’s Word (1 Corinthians 11:23; 15:3; Ephesians 3:3-5; Galatians 1:11-12; 1 Thessalonians 4:2).

·        Paul was obedient to God and went where God sent him, and said what God wanted him to say (Acts 16:6-10; 23:11).

·        Paul also knew and trusted that just as his appointment, his message and his ministry were from God, similarly, his accountability too was to God. Paul well knew that like for everyone else, eventually, he too will have to give an account to God for his life and works (Romans 2:6; 14:10-12; 1 Corinthians 3:8; 2 Corinthians 5:10; Galatians 6:5; Ephesians 6:8; Colossians 3:24-25). Therefore, he made it a point to be pleasing to God for all things (Romans 14:8; 2 Corinthians 5:9; Galatians 1:10), without giving any offense to anyone, and being non-compromising in his faith and in God’s Word; and he taught the same (1 Corinthians 15:58; Colossians 1:10; 1 Thessalonians 4:1; 2 Timothy 2:4).


    These qualities of being zealous for God and His work, always endeavoring to be obedient and pleasing to God for everything, not giving offense to others without compromising on faith or God’s Word, learning from God, and very humbly serving God and man with the realization that he is accountable not to any man but to God, are the fundamental pre-requisites of being blessed by God to be able handle God’s Word effectively for God’s glory and own blessings, as Paul was able to do.


    From the next article we will begin to see specific examples of how Paul worked with God’s Word, and will intermittently also use the above facts and references, as and when required.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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