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पवित्र आत्मा से सीखना – 14
प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी ने, परमेश्वर से अन्य सँसाधनों के साथ, परमेश्वर का पवित्र आत्मा भी प्राप्त किया है; जो उसे उसके उद्धार पाने के पल ही दे दिया जाता है। पवित्र आत्मा उस में उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक बनकर हमेशा निवास करता है, कि मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का निर्वाह करने में सहायता और मार्गदर्शन सके। उसका शिक्षक होने के नाते, पवित्र आत्मा विश्वासियों को परमेश्वर का वचन भी सिखाता है, यदि वे उस से सीखने के लिए तैयार हों, बजाए मनुष्यों से सीखने वाले होने के। परमेश्वर के विभिन्न सँसाधनों के भण्डारी होने के नाते, विश्वासियों को पवित्र आत्मा का भी योग्य भण्डारी होने की आवश्यकता है, उस से सीखने और उसकी सेवाओं तथा सामर्थ्य का बाइबल के अनुसार उचित उपयोग करने के द्वारा। अब हम देख रहे हैं कि कैसे विश्वासी पवित्र आत्मा से परमेश्वर का वचन बाइबल सीख सकते हैं। वर्तमान में हम यह 1 पतरस 2:1-2 से सीख रहे हैं, और हमने इस पद से देखा है कि मसीही विश्वासी में ने केवल वचन को सीखने की एक वास्तविक लालसा होनी चाहिए, बल्कि केवल परमेश्वर का निर्मल वचन ही सीखने की उत्कंठा होनी चाहिए। पिछले लेख में हमने देखा था कि शैतान किस प्रकार से परमेश्वर के वचन में मिलावट करवाता है, और फिर उस मिलावट वाले या मलिन वचन को परमेश्वर के सत्य के समान प्रस्तुत करवाता है। वह यह काम अपने लोगों के द्वारा जान-बूझकर, तथा परमेश्वर के समर्पित विश्वासियों द्वारा अनजाने में करवा देता है, और ये विश्वासी यही सोचते रहते हैं कि वे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं, उसके वचन का प्रसार कर रहे हैं, जबकि वास्तव में वे मिलावट किये हुए वचन को परमेश्वर के सत्य के समान प्रचार कर रहे और सिखा रहे होते हैं। आज से हम देखेंगे कि किस प्रकार से परमेश्वर के समर्पित विश्वासी जो वचन की सेवकाई, वचन के प्रचार और शिक्षा में लगे हुए हैं, वे कैसे अपने आप को तथा औरों को, जिनके मध्य वे सेवकाई करते हैं, शैतान द्वारा लाए गए मिलावटी वचन के कारण गलत शिक्षाओं और झूठे सिद्धान्तों में पड़कर बहकाए और भरमाए जाने से बचाए रख सकते हैं।
परमेश्वर के वचन की सेवकाई में लगे प्रत्येक विश्वासी का यह दायित्व होना चाहिए कि वह जो प्रचार कर रहा और सिखा रहा है, बारंबार उसे जाँचता-परखता रहे, परमेश्वर के वचन से उसकी पुष्टि करता रहे। शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रहने के लिए, उसका यह करते रहना अनिवार्य है। साथ ही उसे कभी लापरवाह नहीं होना चाहिए और कभी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उस से कोई गलती नहीं होगी (1 कुरिन्थियों 10:12)। परमेश्वर ने अपने वचन में जाँचने-परखने के लिए तीन स्तर की प्रक्रिया दी है, जिस से कि उसके वचन बाइबल और उसकी शिक्षाओं की शुद्धता और यथार्थ बना रह सके।
पहला स्तर है परमेश्वर के वचन के प्रचारक और शिक्षक के द्वारा स्वयं को जाँचते-परखते रहना। परमेश्वर के वचन के प्रचारक और शिक्षक को दो बहुत महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना चाहिए। इन बातों को पवित्र आत्मा की अगुवाई में प्रेरित पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 4:6 में लिखा है, “हे भाइयों, मैं ने इन बातों में तुम्हारे लिये अपनी और अपुल्लोस की चर्चा, दृष्टान्त की रीति पर की है, इसलिये कि तुम हमारे द्वारा यह सीखो, कि लिखे हुए से आगे न बढ़ना, और एक के पक्ष में और दूसरे के विरोध में गर्व न करना” और फिर पौलुस तथा अपुल्लोस के उदाहरण के द्वारा उसके पालन किए जाने पर बल भी दिया है। दूसरे शब्दों में यह उनके द्वारा केवल प्रचार की जाने वाली ही बात नहीं थी, बल्कि उनके जीवनों से एक व्यावहारिक उदाहरण भी था, जो इन दोनों बातों के महत्व को रेखांकित करता है। साथ ही इस पर भी ध्यान दीजिए कि पवित्र आत्मा ने यह केवल उन के लिए कहा है जो वचन की सेवकाई में लगे थे, बल्कि यह ‘भाइयों’ अर्थात समस्त मण्डली से कहा गया है। यह इस बात का संकेत है कि मण्डली को भी प्रचारकों और शिक्षकों पर ध्यान रखना है, कि कहीं अपनी सेवकाई के दौरान, जाने या अनजाने में वे इन निर्देशों का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं।
जैसा कि ऊपर उद्धृत पद में बल देने के द्वारा दिखाया गया है, प्रेरित पौलुस, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, परमेश्वर के वचन के प्रचारकों और शिक्षकों के लिए दो महत्वपूर्ण निर्देश लिख रहा है, जिन का पालन किया जाना अनिवार्य है। इनमें से पहला है, कि जैसे पौलुस और अपुल्लोस ध्यान रखते थे, उसे प्रकार से अन्य किसी को भी पवित्र शास्त्र में जो लिखा हुआ है उस से आगे कदापि नहीं बढ़ना है (अंग्रेजी अनुवादों में आया है ‘सोचना भी नहीं है’), परमेश्वर के लिखित वचन के बाहर कुछ प्रचार करने और शिक्षा देना तो बहुत दूर की बात है। परमेश्वर का वचन यह सिखाता है कि परमेश्वर अपने निर्देशों के पालन किए जाने और उनके बाहर न जाने के प्रति बहुत दृढ़ है; उसने कभी भी अपने वचन में कुछ भी जोड़ने अथवा घटाने की अनुमति किसी को भी नहीं दी है, और न ही ऐसा करने को कभी हलके में लिया है। हम इस बात को सम्पूर्ण पुराने नियम में देखते हैं, चाहे वह मिलाप वाले तँबू और उस से संबंधित वस्तुओं के बारे हो, या भेंटों, बलिदानों, पर्वों, आराधना विधि, व्यवस्था और नियम, आदि के बारे में हो; हर बात के लिए परमेश्वर ने अपने लोगों, इस्राएलियों को विशिष्ट निर्देश दिए थे, और उसके लोगों को उनका पालन करना ही था। चाहे वह मूसा हो जिसने चट्टान से बोलने की बजाए उस पर प्रहार किया (गिनती 20:8-10; व्यवस्थाविवरण 1:37; 3:23-26), या, नादाब और अबीहू हों जिन्होंने आवेश में आकर जिसकी आज्ञा उन्हें नहीं दी गई थी वह किया (लैव्यव्यवस्था 10:1-2), या, दाऊद के द्वारा वाचा के सन्दूक को चाहे बहुत आदर और श्रद्धा के साथ किन्तु दी गई विधि से हटकर ले जाने का प्रयास किया गया (1 इतिहास 13 और 15 अध्याय), आदि; जिसने भी परमेश्वर के कहे तथा निर्देश दिए हुए से बाहर किया, उसे उसके लिए बहुत भारी दण्ड चुकाना पड़ा। हमें अपने प्रभु यीशु की हमारे पक्ष में की जा रही सेवकाई (1 यूहन्ना 2:1-2) के लिए उसका बहुत धन्यवादी होना चाहिए, जो हमें सुरक्षित रखती है और पुराने नियम के परमेश्वर के उन लोगों के समान अनाज्ञाकारिता करने के दण्ड से बचाए रखती है।
पौलुस 1 कुरिन्थियों 4:6 में जो दूसरी बात कहता है, वह है कभी भी अपने आप को औरों से बढ़कर, या किसी और को अपने से निम्न स्तर का दिखाने का प्रयास न करें। इनमें से कोई भी कार्य करने की प्रवृत्ति घमण्ड के कारण होती हैं, चाहे वह गुप्त और बहुत सूक्ष्म ही क्यों न हो। परमेश्वर को घमण्ड से घृणा है (नीतिवचन 8:13; 16:5; याकूब 4:6); और घमण्ड हमेशा ही पतन लाता है (नीतिवचन 16:18; 29:23)। साथ ही यह एक से बढ़कर दूसरे को देखना या दिखाना, मण्डली के लोगों में प्रभु यीशु मसीह की बजाए मानवीय अगुवों का अनुसरण करने की प्रवृत्ति को लाता है, कलीसिया में गुटों और विभाजन का कारण बनता है, और मण्डली के लोगों के अपरिपक्व तथा शारीरिक व्यवहार में बने रहने का भी, जिस से वे परमेश्वर की गूढ़ बातों को सीख पाने के अयोग्य हो जाते हैं (1 कुरिन्थियों 1:10-13; 3:1-3; 11:18-19)।
इसलिए परमेश्वर के वचन के प्रत्येक प्रचारक और शिक्षक को नियमित रीति से इस स्वयं-आँकलन को करते रहना चाहिए, और यह सुनिश्चित करते रहना चाहिए कि न तो वह किसी ऐसी बात में स्वयं विश्वास करे जो परमेश्वर के वचन में मिलावट करती है, और न ही औरों को ऐसी किसी बात का प्रचार और शिक्षा प्रदान करे। अगले लेख में हम आँकलन के अन्य दो स्तरों के बारे में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 14
Every Born-Again Christian Believer, along with other provisions from God, has also received God’s Holy Spirit; given to him at the moment of his salvation. The Holy Spirit resides in him as his Helper, Companion, Teacher, and Guide for living his Christian life and fulfilling his God given ministry. As his Teacher, the Holy Spirit teaches God’s Word to the Believers, if they are willing to learn from Him, instead of going after learning from men. As stewards of God’s various provisions, the Believers are also to be worthy stewards of the Holy Spirit, they must learn God’s Word from Him, and also learn about utilizing His power and services properly in their lives and ministry in the intended Biblical manner. Presently we are learning from 1 Peter 2:1-2, how the Believers should learn God’s Word, the Bible from Him. We have seen from this verse that the Believer must not only have a sincere desire to learn, but also to learn only the pure, i.e., unadulterated Word of God. In the previous article we have seen how Satan causes God’s Word to be adulterated, and then has the adulterated or impure Word presented as God’s truth. Satan gets this done by his own agents who deliberately do this; as well as by God’s committed Believers, who do this unknowingly, all the while believing they are serving God and propagating His Word, while actually preaching and teaching the adulterated word as God’s truth. From today we will see how God’s committed Believers engaged in the ministry of preaching and teaching God’s Word, can keep themselves, and thereby others amongst whom they minister, safe from being beguiled and misled by Satan into false teachings and wrong doctrines through the adulterated Word of God.
It should be the duty of every Believer engaged in the ministry of God’s Word to rigorously keep cross-checking all that he preaches and teaches and keep affirming it from God’s Word from time to time. Doing this is mandatory, as a safeguard against the wiles of the devil. Moreover, he should never become complacent and never assume his not committing any errors (1 Corinthians 10:12). God in His Word has provided a three-stage cross-checking to check and maintain the purity and factualness of His Word the Bible while preaching and teaching from it.
First level is self-evaluation by the preacher or teacher of God’s Word. The preacher and teacher of God’s Word should take care, of two very important things. These things the Holy Spirit through Paul has stated in 1 Corinthians 4:6, “Now these things, brethren, I have figuratively transferred to myself and Apollos for your sakes, that you may learn in us not to think beyond what is written, that none of you may be puffed up on behalf of one against the other” and has emphasized that they must be emulated, through the example of Paul and Apollos. In other words, it was not merely a preaching on their part, but a practical demonstration from their lives, which underscores the importance of these two things. Also note that the Holy Spirit has addressed this instruction not only to those engaged in ministering the Word, but to the ‘brethren,’ i.e., the whole congregation. This is indicative that the whole congregation too must keep an eye on the preachers and teachers that they do not transgress these instructions in their ministry, knowingly or unknowingly.
As emphasized in the quoted verse above, the Apostle Paul under the guidance of the Holy Spirit is writing two essentials principles that preachers and teachers of God’s Word should adhere to. The first is that as Paul and Apollos were careful to do, no one should even think beyond what has already been written in the Scriptures, let alone preach or teach anything outside of God’s written Word. God’s Word teaches that God is very particular about adherence to His instructions and not going beyond them in any manner; He has never permitted any addition or deletion from His Word, nor taken lightly if any does the same. We see this throughout the Old Testament, the Scriptures that Paul had for his Word ministry. Throughout the Old Testament, whether it was for the Tabernacle and its related things, the gifts, sacrifices, feasts, worship, Laws and regulations, etc., for everything God had given specific instructions and they had to be adhered to by His people the Israelites. Whether it was Moses striking the rock instead of speaking to it (Numbers 20:8-10; Deuteronomy 1:37; 3:23-26), or Nadab and Abihu getting carried away and doing what they had not been commanded to do (Leviticus 10:1-2), or David transporting the Ark of the Covenant, though very reverentially, but not in the prescribed manner (1 Chronicles 13 and 15 chapters), etc., everyone who went beyond what God had stated and instructed, paid a very heavy price for it. Today, one very common way of committing this same error is through using Biblical words, phrases, and facts in a manner and with meanings and usage that is unBiblical, i.e., with meanings and implications about those words, phrases, and facts not given or used in the Bible. We should be very thankful for the ministry of the Lord Jesus on our behalf (1 John 2:1-2) that keeps us safe and does not let us suffer what those people of God suffered in the Old Testament times for similar transgressions.
The second thing that Paul states in 1 Corinthians 4:6 is never to engage in the game of one-upmanship; i.e., of trying to project self above others, or, of showing others to be below self. Both these tendencies are because of pride, even when it is subtle and hidden. God hates pride (Proverbs 8:13; 16:5; James 4:6); pride always leads to a downfall (Proverbs 16:18; 29:23). Moreover, this one-upmanship promotes following human leaders instead of following Lord Jesus, leads to factionalism and divisions in Churches, and also to immaturity and carnal behavior in the congregation, rendering them incapable of learning the deeper things of God’s Word (1 Corinthians 1:10-13; 3:1-3; 11:18-19).
So, every preacher and teacher of God’s Word should regularly engage in this discipline of self-evaluation, and make sure that he does not believe, preach, and teach anything that will in any manner adulterate God’s Word. We will look at the other two stages of this cross checking in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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