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गुरुवार, 4 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 130 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 6


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कलीसिया को समझना – 6 – रूपक – 4

 

    प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर की सन्तान हो जाता है (यूहन्ना 1:12-13), इसलिए वह स्वतः ही परमेश्वर की अन्य सभी सन्तानों, अर्थात अन्य नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासियों की सहभागिता में भी आ जाता है। परमेश्वर के घराने का एक अंग होने के नाते, विश्वासी, अपने-आप ही, परमेश्वर की कलीसिया का अभी एक अंग हो जाता है। उसे ये विशेषाधिकार परमेश्वर की ओर से दिए गए हैं; इसका निहितार्थ है कि वह उनके लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है। इस प्रकार, क्योंकि वह इन विशेषाधिकारों का भण्डारी है, इसलिए उसे इनके बारे में सीखना है ताकि भण्डारी होने के अपने दायित्व का निर्वाह उचित रीति से कर सके। हम परमेश्वर की कलीसिया और उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता के बारे में बाइबल में कलीसिया के लिए उपयोग किये गए रूपकों के द्वारा सीख रहे हैं। पिछले लेखों में हम सात रूपकों की हमारी सूची के पहले तीन रूपकों को देख चुके हैं। आज हम इस सूची के चौथे रूपक, परमेश्वर की खेती होने के संबंध में देखेंगे।

(4) परमेश्वर की खेती 

    परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, पौलुस प्रेरित ने कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों की मण्डली को लिखी अपनी पहली पत्री में लिखा, “क्योंकि हम परमेश्वर के सहकर्मी हैं; तुम परमेश्वर की खेती और परमेश्वर की रचना हो” (1 कुरिन्थियों 3:9); इसे इसके संदर्भ में पद 1 से देखना अधिक उचित है। संदर्भ के साथ देखने से स्पष्ट हो जाता है कि पवित्र आत्मा पौलुस में होकर कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों को उलाहना दे रहा है क्योंकि उन्होंने अपने आप को एकता में रखने की बजाए, अपने आप को उनके मध्य सेवकाई करने वाले सेवकों के अनुसार विभाजित करना आरंभ कर दिया था। विभाजन की इस प्रवृत्ति की भर्त्सना करते हुए, पवित्र आत्मा ने लिखवाया कि न तो पौलुस कुछ है, और न ही अपुल्लोस कुछ है। वे केवल प्रभु के सेवक हैं जिन्हें प्रभु ने अपने लोगों के मध्य कार्य के लिए प्रयोग किया, किन्तु उनके कार्य को सफल और फलवंत करने वाला परमेश्वर है, जिसके कार्य के बिना उन सेवकों का परिश्रम व्यर्थ है। इस बात को समझाने के लिए पवित्र आत्मा ने खेती-किसानी से संबंधित बातों को रूपकों के समान प्रयोग किया। पद 6-8 में मजदूरों द्वारा खेत में बीज के बोने और उगने वाली फसल के पौधों को सींचने वाले को मात्र सेवक, जिन्हें उनके परिश्रम के अनुसार प्रतिफल दिया जाएगा कहा गया है। साथ ही यह बताया गया है कि परमेश्वर ही उनके परिश्रम को स्वामी के लिए फसल का प्रत्यक्ष स्वरूप एवं परिणाम देने वाला है। और तब पद 9 में मण्डली या कलीसिया को परमेश्वर की खेती, परमेश्वर की रचना बताया गया है।

    इसी रूपक से संबंधित दो अलग-अलग दृष्टांत प्रभु यीशु ने मत्ती 13 अध्याय में भी दिए हैं; जिन्हें परस्पर एक समान लेकर भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। इन में से पहला, बीज बोने वाले का दृष्टांत, चार प्रकार की भूमियों के बारे में है। उन चारों भूमियों पर एक ही बीज बोने वाले - प्रभु यीशु (मत्ती 13:37) ने एक ही समान गुणवत्ता के बीज - परमेश्वर का वचन (लूका 8:11) बोया। किन्तु इन चार प्रकार की “भूमि” में से केवल एक ही प्रकार की भूमि “अच्छी” है, जिसमें बोया गया बीज अन्ततः फलवंत हुआ (मत्ती 13:23)। दूसरा दृष्टांत दो भिन्न प्रकार के बीजों के विषय में है। इस दृष्टांत की व्याख्या करते समय, प्रभु यीशु ने बताया कि “खेत” संसार है (मत्ती 13:38), और इसमें दो प्रकार के बीज बो दिए गए हैं - अच्छे बीज, अर्थात, परमेश्वर के राज्य की सन्तान, और बुरे बीज, अर्थात, दुष्ट यानि कि शैतान की सन्तान या लोग (मत्ती 13:38 )। परमेश्वर ने अपने खेत में अच्छे बीज बोए, किन्तु शैतान ने आकर अपने बुरे बीज भी उसी खेत में बो दिए (मत्ती 13:39), जिन्हें फिर जगत के अन्त, कटनी के समय, पृथक करके, अपने-अपने स्थानों पर पहुँचा दिया जाएगा (मत्ती 13:40-42)।

    प्रत्येक स्थानीय कलीसिया या मण्डली के लोग, प्रभु यीशु द्वारा दिए गए प्रथम दृष्टांत की चार प्रकार की भूमियों के समान हैं; जिन्हें परमेश्वर के द्वारा नियुक्त उसके सेवक प्रभु की ओर से, परमेश्वर के एक ही वचन से, एक ही समान शिक्षाएं देते हैं। किन्तु हर एक सदस्य उन शिक्षाओं को समान रीति से ग्रहण तथा अपने जीवन में उपयोग नहीं करता है, और परिणामस्वरूप, कलीसिया के विभिन्न लोगों में आत्मिकता के भिन्न स्तर पाए जाते हैं। यहाँ तक कि अन्त के समय जब प्रतिफल मिलने की बारी आएगी, तब ऐसे भी लोग होंगे जो परमेश्वर के राज्य में खाली हाथ प्रवेश करेंगे, क्योंकि उनका जीवन और कार्य किसी प्रतिफल के योग्य ही नहीं रहे; किन्तु उनका उद्धार या प्रभु की कलीसिया का जन होना उनसे कदापि नहीं छीना जाएगा (1 कुरिन्थियों 3:13-15)। किन्तु उस समय की उनकी दश की कल्पना कीजिए, उन्हें स्वर्ग में प्रवेश तो मिला, किन्तु अनन्त काल के लिए वे खाली हाथ ही रहेंगे, उनके पास स्वर्ग में उपयोग के लिए कोई प्रतिफल नहीं होंगे, और न ही कोई अवसर होगा कि अपनी इस स्थिति को सुधार सकें। वे परमेश्वर की खेती तो हैं, किन्तु “अच्छी भूमि” नहीं बने, पृथ्वी पर अपने समय और योग्यताओं को प्रभु के लिए उपयोग करने के स्थान पर वे उन्हें नश्वर संसार और संसार के लोगों, अधिकारियों, तथा नाशमान बातों के लिए लगाते रहे, और प्रभु के खेती होते हुए भी अपने समय, अवसर, और वरदानों को व्यर्थ कर दिया (1 यूहन्ना 2:15-17)। 

    इसी प्रकार से, प्रभु द्वारा बताए गए दूसरे दृष्टांत के अनुरूप, प्रत्येक स्थानीय कलीसिया में प्रभु के लोग और उनके मध्य शैतान के द्वारा घुसा दिए गए लोग, अर्थात दोनों ही प्रकार के लोग होते हैं। और प्रभु उन शैतानी लोगों को जानता तथा पहचानता भी है; जगत के अन्त के समय के अलग किए जाने के समय वे सभी जो प्रभु की वास्तविक कलीसिया के नहीं हैं, अनन्त विनाश में भेज दिए जाएंगे।

    यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो ध्यान कीजिए कि एक बार फिर यह रूपक स्पष्ट कर देता है कि कोई भी मनुष्य अपनी अथवा किसी अन्य मनुष्य या संस्था की बातों के निर्वाह के द्वारा प्रभु की खेती, उसकी रचना नहीं बन सकता है। और न ही कोई परमेश्वर के वचन की अवहेलना करके, संसार, संसार के लोगों, संसार की बातों और लालसाओं को अपने जीवन में प्राथमिकता देकर, प्रभु की कलीसिया का सदस्य होने पर भी, प्रभु से कुछ प्रतिफल पा सकता है। प्रभु ही अपनी कलीसिया को बनाता है, उसकी देखभाल करता है। इसलिए ध्यान कीजिए कि प्रभु की कलीसिया और प्रभु के वचन की आज्ञाकारिता के प्रति, तथा अपने व्यक्तिगत जीवन में आप के द्वारा उसके वचन को दी गई प्राथमिकता की दशा क्या है? यदि कुछ सुधारे जाने की आवश्यकता है, तो अभी, समय और अवसर रहते यह कर लीजिए; विलंब या लापरवाही बहुत हानिकारक हो सकती है। प्रभु अपने विश्वासियों, अपनी वास्तविक कलीसिया के सच्चे सदस्यों को अपनी खेती, अपनी रचना के समान, अपने लिए भी, तथा उनके अनन्तकाल के लिए भी फलवन्त और आशीषित देखना चाहता है; यदि वे उसके वचन को अपने जीवनों में प्राथमिकता तथा आज्ञाकारिता का उचित स्थान प्रदान करते रहें। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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English Translation

Understanding the Church – 6 – Metaphors – 4

 

    Every Born-Again Christian Believer, since the moment of his salvation, becomes a child of God (john 1:12-13), therefore automatically comes into fellowship with all the other children of God, i.e., the other Born-Again Christian Believers. As a part of the household of God, the Believer automatically, is also a member of God’s Church. These privileges have been given to him by God; implying that he is accountable to God for them. Thus, since he is a steward of these privileges, therefore he must learn about them to be able to fulfil his stewardship worthily. We are learning about the Church of God and about fellowshipping with God’s other children, through the metaphors used in the Bible for the Church. From our list of seven metaphors, we have considered the first three metaphors till the previous articles. Today we will consider the fourth metaphor, being the Field of God.

(4) The Field of God

    Under the guidance of the Holy Spirit, the Apostle Paul in his first letter to the Christian Believer’s Assembly in Corinth wrote, “For we are God's fellow workers; you are God's field, you are God's building” (1 Corinthians 3:9); it is better to consider this verse in its context, from verse 1 onwards. When seen in its context, it becomes clear that the Holy Spirit through Paul is admonishing the Church in Corinth, because instead of keeping themselves in unity, they had started to divide themselves into factions, according to the name of the ministers of God serving amongst them. Castigating their tendency of segregating themselves, the Holy Spirit had it written that neither Paul nor Apollos are anything in themselves. They are merely ministers of the Lord, whom He has used amongst His people for some works; but the power to make their works successful and fruitful came from God, and without Him those ministers could not have accomplished anything. To make them understand this concept, the Holy Spirit used an activity related to farming and working in the fields as a metaphor. In verses 6-8 it says that those who plant the seeds in the field, and those who water the plants, take care of them, are all servants of the master, and each will receive his reward from God according to their diligence and labor. It is also written in verse 9 that the Church or the Assembly is the “field of God.”

    The Lord Jesus had given two parables related to this metaphor in Matthew 13; these two parables, their contents, and their implications should not be confused with each other. The first one of these parables, the parable of the “Sower of the Seed” is about the four kinds of soils. One and the same ‘Sower’ - the Lord Jesus (Matthew 13:37) sowed seed of the same quality - the Word of God (Luke 8:11) in all four soils. But of these four kinds of soils, only one kind was the good soil, in which the sown seed brought much returns (Matthew 13:23). The second parable is about two different kinds of seed. While explaining this parable, the Lord Jesus said that the “field” is the world (Matthew 13:38), and in this ‘field’ two kinds of seed have been sown - the good seed, i.e., the ‘sons of the kingdom’ of God, and Satan has come and sown his tares also amongst the good seed (Matthew 13:39). The results of these two kinds of seeds will be segregated at the end and each will be sent to its assigned place (Matthew 13:40-42).

    The members of every local Church or assembly are like the four soils of the first parable given by the Lord; everyone is given the same teachings from the same Word of God, by the same appointed minister of God to work amongst them. But not every member accepts and utilizes the teachings in a similar manner, therefore, in the local Church people of differing Spiritual maturity and growth are found in the Church. Even so, that at the end time, when it is time to give out the rewards to each one, there will be some who will enter the Kingdom of God empty handed, because their life and works were not worthy of any rewards; but their status of being a part of the Church of God, a saved person, will never be taken away from them (1 Corinthians 3:13-15). But just imagine their plight at that time, they will be allowed into heaven, but they will be empty-handed for eternity, they will have no rewards to utilize in heaven, and no opportunity to rectify this situation. They were and are the ‘field of God’ but they never became the good soil. They had not utilized their time and opportunities on earth for the work of the Lord; rather, used their time, talents, and opportunities for the temporal gains of the perishing world, for the people of the world, to please their worldly authorities, and despite being the ‘field of God’ they wasted away their gifts, talents, time, and opportunity (1 John 2:15-17).

    Similarly, in accordance with the second parable of the Lord, in every local Church, amongst the people of God, satanic people have also been infiltrated, i.e., both kinds of people are found in every local Church. The Lord knows about them, recognizes them; and at the end time, all those not actually a part of the true Church of the Lord Jesus Christ, will be sent to their eternal destruction.

    If you are a Christian Believer, then take note that this metaphor too makes it very clear that no person can ever become a part of God’s field, through fulfilling any of his own, or any other person’s or institution’s contrived rules, regulations, and ceremonies. Neither can anyone by ignoring God’s Word, giving more importance to the world, things of the world, and the people of the world, gain any heavenly rewards, despite being a part of the Church of the Lord Jesus Christ. It is the Lord who is building His Church, is looking after it. Therefore, take note and do a careful evaluation - in the Church of the Lord Jesus, what is your status of faith and obedience to the Lord and His Word? Who or what has the primacy in your life, the things of the world or the work of the Lord? If there is something that needs to be corrected, then do it now while you have the time and opportunity; any delay or procrastination can have irreversible, eternally disastrous, and very painful consequences. The Lord wants to see His ‘field,’ His people, fruitful now and for eternity, both for Him as well as for themselves; which comes about by their giving Him and His Word the primary position and required obedience in their lives.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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