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गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 170 – Stewards of The Gifts of the Holy Spirit / पवित्र आत्मा के वरदानों के भण्डारी – 1

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परिचय


    हम 1 राजाओं 2:2-4 से, अर्थात हाल ही में इस्राएल के राजा बने उसके पुत्र सुलैमान को दाऊद द्वारा दिए गए निर्देशों में से, एक सफल और आशीषित जीवन जीने के सम्बन्ध में सीख रहे हैं। वर्तमान में हम इस खण्ड के पद 3 पर विचार कर रहे हैं, जिसमें दाऊद सुलैमान से उस सभी का योग्य भण्डारी होने के लिए कहता है, जो परमेश्वर ने उसे सौंपा है।


    इसी प्रकार से, पौलुस ने भी 1 कुरिन्थियों 4:1-2 में कहा है कि वह किसी विशिष्ट वरदान या ज़िम्मेदारी का नहीं, बल्कि जो कुछ परमेश्वर ने उसे दिया है, जिस की ज़िम्मेदारी उसे सौंपी है, उस सभी का भण्डारी है; और उसे योग्य भण्डारी बनकर रहना है। क्योंकि हमें यह भी निर्देश दिए गए हैं कि हम मसीह का अनुसरण उसी तरह से करें, जैसे कि पौलुस ने किया (1 कुरिन्थियों 11:1); इसलिए, भण्डारीपन के प्रति जो पौलुस का रवैया था, वही प्रत्येक मसीही विश्वासी का भी होना चाहिए। उसे इस बात के एहसास के साथ जीना और काम करना चाहिए कि परमेश्वर की दृष्टि में वह हर उस बात का भण्डारी है जो परमेश्वर ने उसे दी है। हम पहले देख चुके हैं कि प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर ने कम से कम ये चार बातें तो दी ही हैं:

· अपना वचन

· अपना पवित्र आत्मा

· अपनी कलीसिया तथा अपने अन्य बच्चों की संगति

· सेवकाई के लिए पवित्र आत्मा का कोई न कोई वरदान


    इन चार में से हमने पिछले लेखों में पहली तीन बातों, विश्वासी के परमेश्वर का वचन का, पवित्र आत्मा का, और परमेश्वर की कलीसिया और परमेश्वर की अन्य बच्चों के साथ संगति का भण्डारी होने के बारे में देख लिया है। आज से हम चौथे विषय पवित्र आत्मा के वरदानों के बारे में और मसीही विश्वासी के उनका भण्डारी होने के बारे में सीखना आरंभ करेंगे।

    मसीही जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका और उनके द्वारा सभी मसीही विश्वासियों को मसीही जीवन और सेवकाई के लिए दिए जाने वाले आत्मिक वरदानों के अध्ययन में हम यह देख चुके हैं कि परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए कुछ न कुछ कार्य पूर्व-निर्धारित कर रखे हैं (इफिसियों 2:10), और वह चाहता है कि प्रत्येक विश्वासी उसे सौंपे गए कार्य को उद्यम और उचित रीति से करे। परमेश्वर द्वारा निर्धारित इन कार्यों को करने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसमें निवास करने वाले परमेश्वर पवित्र आत्मा की सहायता उपलब्ध है, और साथ ही पवित्र आत्मा ने सभी को उनके कार्य और सेवकाई के लिए उचित और उपयुक्त वरदान, या क्षमताएं और योग्यताएं भी दी हैं, जिससे वह अपनी सेवकाई सुचारु रीति से और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कर सके, कि उसकी सेवकाई परमेश्वर को स्वीकार्य हो। इस संदर्भ में हम मत्ती 7:21-23 से यह भी देख चुके हैं कि परमेश्वर को वही स्वीकार्य होता है जो उसकी इच्छा के अनुसार और उसकी आज्ञाकारिता में होकर किया जाता है। कोई मनुष्य अपनी मन-मर्ज़ी से परमेश्वर के नाम से कुछ भी करे, और अपेक्षा रखे कि परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा, उसके लिए आशीष देगा, तो यह उस मनुष्य की अपनी सोच और समझ है। परमेश्वर उसकी इस सोच और समझ के साथ सहमत नहीं है, और उसे तथा उसके ऐसे सभी कार्यों को अस्वीकार कर देता है, वे चाहे कितने भी भले और सामर्थी क्यों हों। इसलिए अति-आवश्यक है कि जब मसीही विश्वासी अपनी निर्धारित सेवकाई के कार्य करे, अपने वरदानों का उपयोग करे तो इस अनिवार्य बात का ध्यान रखते हुए करे। 

    इसके लिए स्वाभाविक है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी को आत्मिक वरदानों के प्रति सही समझ-बूझ और ज्ञान रखना चाहिए। परमेश्वर ने भी अपने लोगों को इस विषय में अनभिज्ञ एवं निःसहाय नहीं छोड़ा है। पवित्र आत्मा ने बाइबल की पुस्तकों में इन वरदानों, और उनके उपयोग के बारे में उपयुक्त विवरण लिखवाया है। अन्य स्थानों के अतिरिक्त, रोम के, और कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को पौलुस प्रेरित के द्वारा लिखी पत्रियों में इसके विषय इसके बारे में प्रमुख शिक्षाएं मिलती हैं। कुरिन्थुस की मसीही मण्डली को लिखी अपने पहली पत्री में, पौलुस ने लिखा “हे भाइयों, मैं नहीं चाहता कि तुम आत्मिक वरदानों के विषय में अज्ञात रहो” (1 कुरिन्थियों 12:1); और यहाँ से आरंभ कर के 14 अध्याय के अंत तक की चर्चा पवित्र आत्मा के वरदानों के बारे में है। इसी प्रकार से रोमियों को लिखी पत्री का 12 अध्याय भी पवित्र आत्मा के वरदानों के बारे में है। मसीही सेवकाई में लगे प्रत्येक मसीही विश्वासी को प्रार्थना के साथ, इन अध्यायों में दी गई शिक्षाओं के लिए पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मांगते हुए, इन अध्यायों को बहुत गंभीरता से और बारंबार पढ़ना चाहिए, और इनमें लिखी बातों को अपने जीवन और सेवकाई में लागू करना चाहिए। आज से हम 1 कुरिन्थियों 12 में आत्मिक वरदानों के बारे में लिखी बातों को देखना आरंभ करेंगे। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Introduction

    We are studying about leading a successful and blessed life as Born-Again Christian Believers, from 1 Kings 2:2-4, i.e., through the instructions given by David to his son Solomon, recently crowned King of Israel. Presently we are on verse 3 of this passage, where David instructs Solomon to be a steward of all that God has given in his charge.

    Similarly, Paul says in 1 Corinthians 4:1-2, that he is a steward of not just any specific gift or responsibility, but of everything that God has given him, entrusted him with; and he has to be a faithful steward. We have also been instructed to emulate Christ in the same manner as Paul used to emulate Christ (1 Corinthians 11:1). Therefore, Paul’s attitude towards stewardship should also be the attitude of every Christian Believer; he must realize, live, and function knowing that in God’s eyes, he is a steward of everything that has been given to him by God. We have seen that to every Christian Believer, God has given at least four things:

· His Word

· His Holy Spirit

· His Church and Fellowship of His Children

· Some Gift of the Holy Spirit for their Ministry


    Of these four, in the preceding articles, we have seen about the first three, the Believer being the steward of God’s Word, of God the Holy Spirit, and of God’s Church and fellowshipping with God’s other children. From today we will begin learning about the fourth topic, the Gifts of the Holy Spirit, and the Christian Believers stewardship towards them.

    In our study on the role of God the Holy Spirit and the gifts He gives to every Christian Believer for Christian Living and Ministry, we have seen that God has determined some work or the other for every Christian Believer (Ephesians 2:10), and He expects him to be properly and diligently engaged in it. For the help of the Christian Believer to be doing his assigned work properly, not only has God made available to him the help of God the Holy Spirit residing in him, but also the gifts and abilities that the Holy Spirit has given to every Believer, appropriate for his ministry, so that each Believer can do his work and ministry well, in a manner acceptable and pleasing to God. In this context we have also seen from Matthew 7:21-23, that only that which is done in the will of God and in obedience to Him and His Word is acceptable to God. No man should expect that anything he does on his own, but adding to it the name of God, will make it acceptable to God and God will bless him for it; this is his own thinking and belief, and is not in accordance with God’s thinking, working and teachings in His Word. Therefore, God rejects all such men and their works, no matter how good or miraculous they may be. Hence, it is mandatory that when a Believer does his assigned work and ministry, and utilizes his gifts given by the Holy Spirit, he always keeps this principle in mind, so that Satan may not entice him away into something seemingly desirable, but actually disastrous.

    Therefore, it is expected and beneficial that every Christian Believer has a proper understanding and knowledge about the gifts the Holy Spirit gives. God has also not left His people unaware and helpless about them. The Holy Spirit has had proper descriptions written about them in the various books of the Bible. Besides what is written in the other places, in the letters written by Paul to the Churches in Rome and Corinth, we have the main teachings on this subject. In his first letter to the Church at Corinth, Paul wrote, “Now concerning spiritual gifts, brethren, I do not want you to be ignorant” (1 Corinthians 12:1); then from here onwards till the end of chapter 14, the topic of consideration is the gifts of the Holy Spirit. Similarly, in the letter to the Romans, chapter 12 is about the gifts of the Holy Spirit. Every Believer engaged in Christian ministry should prayerfully, carefully, and repeatedly read and study these chapters; ask for the guidance of the Holy Spirit, learn, and apply the teachings given here about these gifts in his life and ministry. We will begin this study by looking at the things written in 1 Corinthians 12 regarding the gifts of the Holy Spirit.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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