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व्यावहारिक निहितार्थ – 8
परमेश्वर द्वारा दिए गए प्रावधानों के प्रति परमेश्वर के भण्डारी होने के नाते, मसीही विश्वासियों को उनके लिए परमेश्वर को हिसाब देना होगा, कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का उचित निर्वाह किया अथवा नहीं। परमेश्वर ने विश्वासियों को अपनी कलीसिया का अंग बनाया है और उन्हें अपने अन्य बच्चों की सहभागिता में रखा है, इस कारण विश्वासी, उन्हें प्रदान किए गए इन विशेषाधिकारों के भी भण्डारी हैं। पिछले लेखों में हमने कलीसिया के बारे में तथा परमेश्वर की सन्तानों के साथ सहभागिता करने के बारे में सीखा है, तथा इन बातों को लेकर विश्वासी की जिम्मेदारियों को भी देखा है। वर्तमान में हम इन से संबंधित व्यावहारिक निहितार्थों को, अर्थात, जो हमने सीखा है उसके उपयोग के बारे में सीख रहे हैं। पिछले लेख में हमने परमेश्वर के वचन और विश्वासियों तथा कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी एवं उन्नति के संबंध के बारे में देखा था। इस बढ़ोतरी और उन्नति के होने के लिए, परमेश्वर के वचन को, ठीक और सही गुणवत्ता एवं मात्रा में, बिना उसमें मनुष्य की बुद्धि और विचारों की बातों की मिलावट किए हुए, सेवकों द्वारा नियमित दिया जाना है और विश्वासियों द्वारा लिया भी जाना है। हमने तीन तरह की शिक्षाओं के बारे में भी देखा था जिनका, आत्मिक गिरावट होने को रोके रखने के लिए, विश्वासियों तथा कलीसिया को दिया जाना और याद दिलाए जाना अनिवार्य है। आज हम बाइबल के अनुसार की जाने वाली इस सेवकाई के बारे में कुछ और बातें देखेंगे, जिसके द्वारा विश्वासियों और कलीसिया की बढ़ोतरी एवं उन्नति होती है।
यह बाइबल का तथ्य है, तथा आज भी उतना ही मान्य और लागू है कि वास्तव में नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी तथा परमेश्वर की वास्तविक कलीसिया तब ही बढ़ते और दृढ़ होते हैं जब उन्हें परमेश्वर का परिशुद्ध, बिना किसी मिलावट का वचन प्रचार किया और सिखाया जाता है। यह जितना अधिक निष्ठा से, नियमित, और परिश्रम के साथ किया जाता है; और विश्वासी जितना अधिक अपने आप को उसमें संलग्न करते हैं, अर्थात, उन्हें दी जाने वाली प्रत्येक शिक्षा और संदेश को प्रेरितों 17:11 और 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 के अनुसार जाँचते और परखते हुए, मनुष्यों की अपनी बुद्धि तथा समझ से गढ़ी हुई बातों का नहीं, बल्कि परमेश्वर के परिशुद्ध वचन को सीखने और पालन करने वाले बनते हैं, तो अपने आत्मिक जीवन तथा मसीही व्यवहार में वे उतनी अधिक उन्नति और बढ़ोतरी करते हैं, और फिर इससे कलीसिया की भी उन्नति और बढ़ोतरी होती है।
हम पिछले लेख में देख चुके हैं कि पौलुस और अपुल्लोस ने स्वयं को उदाहरण बनाते हुए दिखाया कि उन्होंने यह ठान रखा था कि वे वचन की अपनी सेवकाई में कभी भी लिखित वचन से आगे नहीं बढ़ेंगे (1 कुरिन्थियों 4:6)। यह बात आज के सेवकों पर और भी अधिक लागू होती है, क्योंकि उनमें यह प्रवृत्ति होती है कि वे उस पर अधिक भरोसा करते हैं जो उन्होंने अपने कॉलेज या सेमनरी में सीखा है, जो कॉमेन्ट्री और बाइबल शिक्षा की अन्य सहायक पुस्तकों में लिखा हुआ है, बजाए इसके कि वे परमेश्वर के वचन को प्रचार करने और सीखने के लिए पवित्र आत्मा पर निर्भर रहें। ध्यान कीजिए कि दोनों, पौलुस और अपुल्लोस, ऐसे लोग थे जिन्होंने उनके समय के “कॉलेज” या “सेमनरी” में मनुष्यों से उत्तम शिक्षा पाई थी; और अपुल्लोस के लिए तो यह भी लिखा गया है कि वह “विद्वान पुरुष था और पवित्र शास्त्र को अच्छी तरह से जानता था” (प्रेरितों 18:24); लेकिन फिर भी अपनी सेवकाई में दोनों, पौलुस और अपुल्लोस ने केवल वही प्रचार किया जो पवित्र आत्मा ने उन्हें दिया, और साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि वे पहले से लिखित वचन से आगे न बढ़ें; अर्थात, उस में किसी भी रीति से कुछ न जोड़ें। इसलिए यह अनिवार्य है कि आज परमेश्वर के वचन के सेवक भी यह ध्यान रखें कि वे प्रचार करने तथा सीखने के लिए उपयुक्त वचन प्राप्त करने के लिए पवित्र आत्मा पर निर्भर रहें और जो परमेश्वर ने अपने वचन में दिया है, उस से कदापि आगे न बढ़ें, अर्थात परमेश्वर के वचन में कभी अपनी बुद्धि और समझ के द्वारा कुछ न जोड़ें और न ही वचन को कोई ऐसे अर्थ अथवा अभिप्राय दें जो उस खण्ड अथवा निर्देश के संबंध में वचन में पहले से ही दिए हुए नहीं हैं।
किसी भी हाल में, हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बाइबल यही सिखाती है कि परमेश्वर के वचन में कुछ जोड़ने या उसमें से कुछ घटाने के, ऐसा करने वालों के लिए गम्भीर परिणाम होते हैं (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। और पौलुस ने पवित्र आत्मा के अगुवाई में यह लिखा है कि वचन में कोई परिवर्तन करने, उसे मनुष्य की बुद्धि और समझ के द्वारा और अधिक आकर्षक और प्रभावी बनाने से परमेश्वर के वचन की प्रभावी एवं कार्यकारी होने की केवल हानि ही होती है, और यह विश्वासियों तथा कलीसिया के बढ़ोतरी और उन्नति को बाधित ही करता है (1 कुरिन्थियों 1:17; 2:4-5)।
इन सिद्धांतों का पालन न करने से कलीसिया में फिर दल या गुट बनते हैं, क्योंकि तब प्रभु का नहीं, वरन किसी मनुष्य का अनुसरण करने की प्रवृत्ति आ जाती है (1 कुरिन्थियों 1:11-13)। किसी एक मनुष्य को, किसी एक परमेश्वर के सेवक को, और उसके प्रचार एवं शिक्षाओं को, किसी अन्य से बेहतर अथवा बढ़कर समझने और दिखाने के कारण ही समुदाय और डिनॉमिनेशन बनते हैं (1 कुरिन्थियों 11:18-19)। इससे कलीसिया की एकता भंग हो जाती है। इसीलिए, पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा सचेत किया है, “तुम्हारा विश्वास मनुष्यों के ज्ञान पर नहीं, परन्तु परमेश्वर की सामर्थ्य पर निर्भर हो” (1 कुरिन्थियों 2:5)। जब भी कोई विश्वासी शैतान की चालाकी में फँस कर किसी मनुष्य और उसकी बुद्धि पर आवश्यकता से बढ़कर भरोसा करने तथा निर्भर होने लगता है, तब न केवल वह उस मनुष्य में एक अनुचित विश्वास करने लग जाता है बल्कि साथ ही उस प्रचारक की बातों को परमेश्वर के वचन की बातों से अधिक ऊँचा स्थान देने लग जाता है, क्योंकि तब वह परमेश्वर के वचन को उसी रीति से समझने और व्याख्या करने वाला हो जाता है, जैसा कि वह प्रचारक वचन को प्रस्तुत करता है। अब, यदि कलीसिया के कुछ अन्य सदस्य इस से सहमत नहीं होते हैं, इसे उसके समान दृष्टिकोण से नहीं देखते हैं जैसे कि वह विश्वासी देखता है, तो इन मतभेदों के कारण दल या समूह बनने लगते हैं, जो बिगड़ कर गुट में बदल जाते हैं, परस्पर कड़वाहट और बैर आ जाता है, और अन्ततः फिर कलीसिया में विभाजन होने लगते हैं। इसे न होने दे का उपाय पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 2:5 में बताया है, जिसका हमें पालन करना चाहिए; हमें मनुष्य को मनुष्य ही रहने देना चाहिए – गलतियाँ करने वाला, और अनजाने में ही शैतान द्वारा भरमाए बहकाए जाने तथा औरों को भी भरमाने और बहक देने वाला; और अपना नियंत्रण एवं संचालन हमेशा प्रभु और उसके वचन के हाथों में ही रहने देना चाहिए, न कि किसी भी मनुष्य के।
अगले लेख में हम पौलुस द्वारा इस संदर्भ में उसके संरक्षित तीमुथियुस को दिए गए कुछ निर्देशों को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Practical Implications – 8
As God’s stewards of their God given provisions, the Christian Believers will give an account to Him of how worthily they have fulfilled their responsibilities. God has placed the Believers in His Church and in fellowship with His other children, thereby the Believers are also stewards of these privileges granted to them by God. In the previous articles we have learnt about the Church and fellowshipping with God’s children, and have seen the Believer’s responsibilities towards them. Presently we are learning the practical implications, the applications of what we learnt. In the last article we saw about the relationship between God’s Word and the spiritual growth of the Believers as well as the Church. For the growth to happen, the Word of God, proper and correct in quality and quantity, unadulterated by human thoughts and wisdom, has to be regularly given by the ministers and received by the Believers. We also saw the three categories of the Word that should be taught and reminded to the Church and Believers to prevent spiritual decline. Today we will see some more about this Biblical manner of ministry of God’s Word, the one that edifies the Believers and the Church.
This is a Biblical fact, equally applicable even today, that the truly Born-Again Christian Believer’s and God’s actual Church grows and becomes strong only where the pure, unadulterated Word of God is preached and taught. The more diligently, regularly, and painstakingly it is done; the more the Believer’s involve themselves in learning and following not the contrived teachings of man through human wisdom and thoughts, but the pure Word of God, by applying Acts 17:11 and 1 Thessalonians 5:21 to every teaching and message they receive, the better and stronger they will grow and progress in their spiritual lives and Christian living, and therefore, the better will be the growth and progress of the Church.
We have seen in earlier articles that Paul and Apollos put forth themselves as examples to show that they had made it a point to not go beyond the written Word (1 Corinthians 4:6). This applies even more to the ministers of God’s Word today; since they have the tendency of relying more on what they have learnt in their colleges and Seminaries, and from Commentaries and Bible helps, than on the Holy Spirit to learn, preach, and teach God’s Word. Take note that both Paul and Apollos were people highly trained by men in the “College” or “Seminary” of their times; and for Apollos it is also written that he was “an eloquent man and mighty in the Scriptures” (Acts 18:24); yet, in their ministry of God’s word, both Paul and Apollos they preached only what the Holy Spirit gave them, and made sure that they did not go beyond the already written word, i.e., did not add to it in any manner. Therefore, it is imperative that the ministers of God’s Word today, too should see that they depend upon the Holy Spirit to give them the appropriate Word to preach and teach, and never to go beyond what God has given in His Word, i.e., never add their own wisdom and interpretations to God’s Word to give it meanings and implications that are not stated in God’s Word about that passage or instruction.
In any case, we should never forget that the Bible teaches us that adding or subtracting from God's Word has serious consequences for those who do so (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). And Paul has written through the Holy Spirit that any attempts to modify the Word, to make it look more attractive by adding things of a man’s wisdom, only serves to spoil the efficacy and effects of God’s Word, and hamper the growth of Believers as well as the Churches (1 Corinthians 1:17; 2:4-5).
Deviating from these principles results in factionalism, because then there is the tendency of following a person and not the Lord (1 Corinthians 1:11-13). This tendency of accepting and showing one person, one minister of God, and his preaching and teachings to be better or superior to the others is what leads to creation of sects and denominations (1 Corinthians 11:18-19). This destroys the unity of the Church. That is why the Holy Spirit has cautioned through Paul, “your faith should not be in the wisdom of men but in the power of God” (1 Corinthians 2:5). When a Believer falls for Satan’s trick of overly trusting and relying upon a person and his wisdom, then he not only develops an undue faith in that person but also starts exalting that preacher’s words over God’s Word, by having the tendency to interpret and understand God’s Word only in the manner that preacher presents it. Now, if some other members of the Church do not agree with this, or do not see it in the same manner as that Believer does, then these differences of opinion lead to groups being formed, which deteriorate to factions, bitterness, and eventually to divisions in the Church. The way to prevent it is to follow what Paul wrote in 1 Corinthians 2:5, and let man be man, prone to be fallible and unknowingly be misled by Satan, and thereby mislead others; and leave our control and handling only in the hands of the Lord and His Word, not any man.
In the next article we will look at some instructions given by Paul to his protégé Timothy in this regard.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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