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शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 157 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 39

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व्यावहारिक निहितार्थ – 9

 

    परमेश्वर ने नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को अपनी कलीसिया का एक अंग बनाया है, और अपनी कलीसिया में उन्हें अपनी अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता में रखा है। विश्वासी, परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए इन प्रावधानों और विशेषाधिकारों के भण्डारी हैं, और उनके लिए परमेश्वर को जवाबदेह हैं। कलीसिया के तथा परमेश्वर की अन्य सन्तानों के भण्डारी होने के भण्डारीपन को योग्य रीति से निर्वाह करने का एक पक्ष है कलीसिया और विश्वासियों की बढ़ोतरी एवं उन्नति को सुनिश्चित करना। जैसा कि हम हाल के लेखों में देखते आ रहे हैं, यह बढ़ोतरी एवं उन्नति परमेश्वर के परिशुद्ध वचन के उपयुक्त माप – दोनों, गुणवत्ता और मात्रा में, प्रचार तथा सिखाए जाने से होती है। परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बुद्धि के विचारों या वचनों की कोई भी मिलावट, चाहे वह वचन को और अधिक प्रभावी, भक्तिपूर्ण, परमेश्वर के प्रति आदरणीय करने के लिए ही क्यों न की गई हो, वास्तव में इसका ठीक विपरीत कार्य ही करती है; परमेश्वर के वचन को अप्रभावी बनाती है और विश्वासियों तथा कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी एवं उन्नति में कोई योगदान नहीं देती है। पिछले लेख में हमने इसके कुछ पक्ष देखे थे, और आज हम पौलुस द्वारा अपने सह-कर्मी तथा उस से सीख रहे तीमुथियुस को पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में दिए गए निर्देशों से कलीसिया और विश्वासियों की उन्नति के बारे में देखेंगे। इसके लिए हम 1 तीमुथियुस 1:3-4 खण्ड को लेंगे, और आज हम पद 3 पर बाइबल के कुछ अन्य पदों के साथ ध्यान करेंगे।

    हम 1 तीमुथियुस 1:3 से देखते हैं कि जब पौलुस इफिसुस से मकिदुनिया में सेवकाई के लिए गया, तो उसने तीमुथियुस को इफिसुस में ही छोड़ दिया, और उसे यह ज़िम्मेदारी दी कि वह यह देखे कि वहाँ पर जो अन्य “कितने” लोग थे वे कोई अन्य प्रकार की शिक्षा, अर्थात जो पौलुस और तीमुथियुस वहाँ सिखा रहे थे उससे कोई भिन्न शिक्षा न दें। इफिसुस में पौलुस की सेवकाई के बारे में हम प्रेरितों 19 अध्याय में देखते हैं; और फिर प्रेरितों 20 अध्याय के आरंभ में उसके विरुद्ध कठोर विरोध एवं सताव (1 कुरिन्थियों 15:32) के कारण उसे इफिसुस छोड़कर मकिदुनिया जाना पड़ता है, जहाँ जाने का वह पहले भी विचार कर रहा था (प्रेरितों 19:21)। प्रेरितों 20 अध्याय में, यरूशलेम लौटते समय, उसने इफिसुस के अगुवों को बुलवाया (प्रेरितों 20:17), और उनके साथ, उनके मध्य की गई अपनी सेवकाई को स्मरण किया (प्रेरितों 20:18-27), और फिर उन्हें आने वाले दिनों में घटित होने वाली बातों के बारे में कुछ और निर्देश भी दिए (प्रेरितों 20:28-38)।

    यहाँ पर हमारे वर्तमान विषय के लिए ध्यान देने योग्य एक महत्वपूर्ण बात है। इफिसुस में पौलुस की सेवकाई दो वर्ष की थी (प्रेरितों 19:10); और इन दो वर्षों के दौरान, पौलुस से वचन का ठोस आहार पाने के कारण (प्रेरितों 19:20), उस कलीसिया के “कितने” ही लोग वचन का प्रचार करने और सिखाने के योग्य हो गए थे। यह इब्रानियों 5:12 की तीखी तुलना में है। पौलुस उन्हें प्रचार करने और सिखाने से मना नहीं करता है, अर्थात वह उनकी इस योग्यता को पहचानता और मानता था; वह केवल उन्हें परमेश्वर के सत्य वचन से भटक जाने से रोके जाने के लिए कहता है। कलीसिया में जो इस सेवकाई के योग्य हो जाते हैं, उन्हें अवसर और प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, किन्तु अनियंत्रित खुली छूट के साथ नहीं; साथ ही उनके प्रचार और शिक्षा सामग्री पर ध्यान भी रखना चाहिए, कि वे कुछ गलत न सिखाएं या कहें; वास्तव में यह कलीसिया में प्रचार करने और सिखाने वाले सभी सेवकों के साथ किया जाना चाहिए (1 कुरिन्थियों 14:29)।

    इसी बात का एक दूसरा महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य पक्ष यह भी है कि कम अनुभव और समझ वाले प्रचारकों को आत्मिक बातों में वरिष्ठ प्रचारकों और शिक्षकों की आलोचना, सुधार, और नियंत्रण के लिए भी तैयार रहना चाहिए; न कि अपने आप को बिना टोके या सुधारे गए कुछ भी कहने और सिखाने के लिए स्वतंत्र समझ लेना चाहिए। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि तीमुथियुस, जिसे पौलुस ने इस कार्य के लिए वहाँ छोड़ा था, आयु में एक युवक ही था, किन्तु पौलुस से सीखने और उसके साथ रहने के कारण, (2 तीमुथियुस 3:10-14), वह वचन में औरों से अधिक परिपक्व हो चुका था, औरों को सिखाने और सुधारने करने की योग्यता रखता था। तभी पवित्र आत्मा ने पौलुस द्वारा उसे यह ज़िम्मेदारी सौंपने दी; और पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में उसे लिखा कि वह परमेश्वर के वचन के द्वारा लोगों को “उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा” दे सकता है (2 तीमुथियुस 3:16); जो पाप कर रहे हैं उन्हें सबके सामने डाँट [BSI की हिन्दी बाइबल में ‘समझा’ लिखा है, किन्तु हिन्दी की ‘मछली’ बाइबल और अंग्रेजी अनुवादों तथा मूल यूनानी भाषा में डाँट कहा गया है] सकता है (1 तीमुथियुस 5:20); और यह उसकी ज़िम्मेदारी है कि “तू वचन को प्रचार कर; समय और असमय तैयार रह, सब प्रकार की सहनशीलता, और शिक्षा के साथ उलाहना दे, और डांट, और समझा” (2 तीमुथियुस 4:2)। उसकी शारीरिक आयु चाहे कम थी, किन्तु आत्मिक आयु औरों से अधिक थी, और इसलिए उसे औरों को सिखाने और नियंत्रण करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, जिसके निर्वाह लिए यदि आवश्यक हो तो उसे कड़ाई से तथा सार्वजनिक रीति से व्यवहार करना था; तथा औरों से यह अपेक्षा की गई थी कि इसके लिए वे उसकी सुनेंगे, मानेंगे और उसके निर्देशों का पालन करेंगे।

    दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का सही वचन जब सही रीति से दिया जाएगा तो कलीसिया और विश्वासियों दोनों की उन्नति एवं बढ़ोतरी करेगा; और सही वचन की सही शिक्षा और पालन के लिए वचन की सेवकाई करने वाले आत्मिक रीति से वरिष्ठ सेवक को कम अनुभवी सेवकों तथा कलीसिया के लोगों को समझाने, सिखाने, सुधारने, और डाँटने का भी अधिकार है, आवश्यक हो तो सब के सामने भी। इसकी तुलना में, कलीसिया में वचन की सेवकाई के बावजूद बढ़ोतरी न होना इस बात का सूचक हो सकता है कि उस वचन में जो प्रचार किया और सिखाया जा रहा है, कोई कमी, कोई मिलावट है, जिस कारण वह आकर्षक, लोकप्रिय, और सराहनीय होने के बावजूद प्रभावी नहीं है।

    पौलुस ने जो “शिक्षा” इफिसुस में दी थी, और जिसके लिए तीमुथियुस से कहा कि सुनिश्चित करे कि और लोग भी उसी शिक्षा का अनुसरण कर रहे हैं, उसके सार को हम प्रेरितों 20:18-20, 27 में देख सकते हैं। प्रेरितों के इन पदों तथा 1 तीमुथियुस 1:4 से हम अगले लेख में सीखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Practical Implications – 9

 

    God has made the Born-Again Christian Believers part of His Church, and in His Church, He has put them in fellowship with His other children. The Believers are stewards of these God given privileges and provisions, and accountable to God for them. One aspect of their worthily fulfilling their stewardship of the Church and fellowship with God’s other children is to ensure the growth of the Church and of the Believers. As we have been seeing in the recent articles, this growth comes about when God’s pure Word is preached and taught adequately – qualitatively and quantitatively. Any adulteration of God’s Word by words and thoughts of man’s wisdom, even if it is done to make it sound more effective, pious, honoring to God, actually does the opposite; it renders it ineffective and does not help the spiritual growth of the Believer or of the Church. We have seen some aspects of this in the preceding articles, and today, from Paul’s instructions to his co-worker and under-study, Timothy, under the guidance of the Holy Spirit, we will see some more aspects of using God’s Word to build up the Church and the Believers. The main passage that we will be using is 1 Timothy 1:3-4, and today we will be concentrating upon verse 3 along with some other verses from the Bible.

    We see from 1 Timothy 1:3 that when Paul had left for ministry in Macedonia, he had left Timothy behind in Ephesus and charged him to ensure that the “some” others there teach no other doctrine, i.e., nothing other than the one he and Paul had been preaching, teaching, and following. Paul’s ministry in Ephesus is given in Act chapter 19; and at the beginning of Acts chapter 20 we see that compelled by the very strong opposition he faced in Ephesus (1 Corinthians 15:32), he left for Macedonia, which he earlier had been planning to do (Acts 19:21). In Acts chapter 20, while returning to Jerusalem, he called for the Elders from Ephesus (Acts 20:17), and reminisced with them his ministry amongst them (Acts 20:18-27) and then gave them some further instructions about the things that would occur in the coming days (Acts 20:28-38).

    For our current context, there is something important here. Paul’s ministry in Ephesus was for two years (Acts 19:10); and in these two years, because of receiving the solid food of the Word through Paul (Acts 19:20), “some” in that Church had matured to be able to preach and teach God’s Word. This is in sharp contrast to Hebrews 5:12. Paul is not forbidding them from preaching and teaching, implying, he was aware of and supportive of their ability; he is only making sure that they do not deviate from preaching and teaching the true Word of God. Those who mature to take up this ministry of preaching and teaching in the Church, should be encouraged and given opportunity to do so, but not in an uncontrolled, free to say and do anything manner; the content and matter of their preaching and teaching should be kept under evaluation to make sure that they do not say or preach anything inappropriate or incorrect; and this should actually be done for everyone preaching and teaching in the Church (1 Corinthians 14:29).

    There is another important and worthy of consideration aspect of this as well, that those preachers who are newer, less experienced and learned, should remain under the criticism, correction, and control of the spiritually senior or more experienced and learned preachers and teachers; they should not consider themselves to be free from being checked and corrected, and free to preach and teach whatever they think is correct. This is affirmed by the fact that Timothy, whom Paul had left behind to ensure this, was a youth in his physical age, but because of being with and learning from Paul (2 Timothy 3:10-14), he had matured more than others in the Word, and was capable of teaching and correcting others. That is why the Holy Spirit permitted Paul to give him this responsibility; and Paul under the Holy Spirit wrote to him that he should use the Word of God for “doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness” (2 Timothy 3:16); and “Those who are sinning rebuke in the presence of all, that the rest also may fear” (1 Timothy 5:20); and it was his responsibility to “Preach the word! Be ready in season and out of season. Convince, rebuke, exhort, with all longsuffering and teaching” (2 Timothy 4:2).  Though his physical age was less, but his spiritual age was more than the others, therefore, he was given the responsibility of teaching and correcting others, even harshly and publicly, if required; and it was expected that the others would comply and listen to him.

    In other words, when the true Word of God is given in the right and appropriate manner, then the Church as well as the Believers will grow and progress; and for the correct teaching of the correct Word, the spiritually senior minister of God’s Word has the authority to exhort, teach, correct, and rebuke the junior or less experienced ministers and the people of the congregation, if required even publicly. In contrast, despite the ministry of the Word in the Church, if there is no growth and progress, then it can be a sign of something being wrong in that Word which is being preached and taught, of there being some adulteration in the Word, because of which though it may be attractive and popular or appreciated, but it is not effective.

    The “doctrine” that Paul had taught in Ephesus, and had asked Timothy to ensure was being followed by others also, its summary can be seen from Acts 20:18-20, 27. We will learn from these verses of Acts and from 1 Timothy 1:4 in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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