ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें : rozkiroti@gmail.com / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

गुरुवार, 23 जनवरी 2025

Christian Believer – Always With the Lord (1) / मसीही विश्वासी - सदा प्रभु के साथ रहे (1)

 

मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 20 

Click Here for the English Translation

मसीही विश्वासी - सदा प्रभु के साथ रहे (1)


पिछले लेखों में हमने देखा है कि परमेश्वर का कोई कार्य कभी निरुद्देश्य नहीं होता है। वह स्वयं कार्यरत है, और अपने अनुयायियों से भी अपेक्षा करता है, चाहता है कि वे उसके लिए कार्यरत रहें। उसने अपने शिष्यों को उद्धार और मसीही विश्वास का जीवन व्यर्थ गँवाने और निठल्ले बैठने, औरों पर निर्भर होकर रहने के लिए नहीं दिया है। वरन, परमेश्वर ने प्रत्येक उद्धार पाए हुए व्यक्ति के लिए कुछ कार्य पहले से निर्धारित किए हैं (इफिसियों 2:10)। वह चाहता है कि प्रत्येक जन अपने उन दायित्वों को पूरे यत्न के साथ पूरा करे, जिसके लिए उसने अपने शिष्यों को उपयुक्त वरदान भी प्रदान किए हैं “और जब कि उस अनुग्रह के अनुसार जो हमें दिया गया है, हमें भिन्न भिन्न वरदान मिले हैं, तो जिस को भविष्यवाणी का दान मिला हो, वह विश्वास के परिमाण के अनुसार भविष्यवाणी करे। यदि सेवा करने का दान मिला हो, तो सेवा में लगा रहे, यदि कोई सिखाने वाला हो, तो सिखाने में लगा रहे। जो उपदेशक हो, वह उपदेश देने में लगा रहे; दान देनेवाला उदारता से दे, जो अगुआई करे, वह उत्साह से करे, जो दया करे, वह हर्ष से करे” (रोमियों 12:6-8); और प्रभु के लिए कार्यरत रहने में आलसी न हो, “प्रयत्न करने में आलसी न हो; आत्मिक उन्माद में भरो रहो; प्रभु की सेवा करते रहो” (रोमियों 12:11)।


हमने मरकुस 3:13-15 यह भी देखा था कि प्रभु ने जब अपने बारह शिष्य, जिन्हें प्रेरित कहा, नियुक्त किए, तो उनके लिए प्रभु के तीन प्रयोजन थे। प्रभु द्वारा दिए गए क्रम के अनुसार इन तीन प्रयोजनों में से पहला था कि वे शिष्य उसके साथ साथ रहें (मरकुस 3:14)। आज हम इस पहले प्रयोजन, प्रभु के साथ रहने, के बारे कुछ विस्तार से देखेंगे, और आते दिनों में शेष प्रयोजनों का अभी अध्ययन करेंगे।


हम पाप और उद्धार से संबंधित लेखों में देख चुके हैं कि पाप के साथ ही मृत्यु ने भी सृष्टि और मानव जीवन में प्रवेश किया। मृत्यु एक ऐसे और स्थाई अलगाव हो जाने को दिखाती है जो मानवीय सामर्थ्य एवं योग्यता से पूर्णतः अपरिवर्तनीय है। यह मृत्यु दो प्रकार की होती है - आत्मिक, और शारीरिक। मनुष्य की आत्मिक मृत्यु के कारण वह तुरंत ही परमेश्वर की संगति से दूर हो गया; और शारीरिक मृत्यु के कारण वह मरनहार बन गया। जन्म लेते ही मनुष्य मरना आरंभ कर देता है, और अन्ततः एक समय पर आकर उसका शरीर भी क्षय हो जाता है। प्रभु यीशु ने संसार के सभी लोगों के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनकी इस मृत्यु को सभी के लिए सह लिया; और अपने कलवरी के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने, और तीसरे दिन मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा समस्त मानव जाति के हर जन के लिए न केवल पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग बनाकर उपलब्ध करवा दिया वरन उनके लिए मृत्यु को पराजित कर दिया। प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाते और उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता ग्रहण करते ही व्यक्ति का परमेश्वर से मेल-मिलाप हो जाता है “क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:10); अर्थात आत्मिक मृत्यु या परमेश्वर से पृथक हो जाने का निवारण हो जाता है। साथ ही हम मसीही विश्वासियों के लिए परमेश्वर की यह भी प्रतिज्ञा है कि हमारे पुनरुत्थान के समय अथवा प्रभु के दूसरे आगमन के समय हमारे मरनहार शरीर पल भर में प्रभु के अविनाशी शरीर के समान हो जाएंगे “देखे, मैं तुम से भेद की बात कहता हूं: कि हम सब तो नहीं सोएंगे, परन्तु सब बदल जाएंगे। और यह क्षण भर में, पलक मारते ही पिछली तुरही फूंकते ही होगा: क्योंकि तुरही फूंकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जांएगे, और हम बदल जाएंगे” (1 कुरिन्थियों 15:51-52); अर्थात शारीरिक मृत्यु का भी निवारण तो किया जा चुका है, बस उसका कार्यान्वित किया जाना शेष है, जो प्रभु के निर्धारित समय पर हो जाएगा।


निष्कर्ष यह कि मसीही विश्वास में प्रवेश करते ही, मसीही विश्वासी की परमेश्वर के साथ संगति बहाल हो जाती है। प्रभु की यह कदापि इच्छा नहीं है कि यह संगति फिर से कभी टूटे। इसीलिए वह चाहता है कि उसका प्रत्येक शिष्य, हर अनुयायी उसके साथ ही बना रहे। जब तक हम प्रभु के साथ बने रहेंगे, शैतान द्वारा हानि पहुंचाए जाने से सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि शैतान प्रभु द्वारा उसके लोगों के चारों ओर बनाए गए बाड़े को लांघ नहीं सकता है, प्रभु द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक प्रभु के जन को छू नहीं सकता है “शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बान्धा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुंह पर तेरी निन्दा करेगा। यहोवा ने शैतान से कहा, सुन, जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना। तब शैतान यहोवा के सामने से चला गया” (अय्यूब 1:9-12)। किन्तु जो इस बाड़े को लाँघेगा, शैतान उसे डस लेगा “जो गड़हा खोदे वह उस में गिरेगा और जो बाड़ा तोड़े उसको सर्प डसेगा” (सभोपदेशक 10:8)। और प्रभु अपने हर जन को शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रखना चाहता है। इसीलिए प्रभु चाहता है कि उसके शिष्य उसके साथ ही रहें। इसीलिए प्रभु ने हमें आश्वासन दिया है “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको” (1 कुरिन्थियों 10:13)।


यदि आपने अभी तक नया-जन्म, उद्धार नहीं प्राप्त किया है; शैतान, उसकी युक्तियों और उसके लोगों से अपने आप को सुरक्षित नहीं किया है;  प्रभु से अपने पापों के लिए क्षमा नहीं माँगी है, तो आपके पास या करने के लिए अभी समय औ अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें 
और
कृपया अपनी स्थानीय भाषा में अनुवाद और प्रसार करें

*************************************************************************

 Christian Faith & Discipleship – 20

English Translation

Christian Believer – Always With the Lord (1)

In the previous articles we have seen that every work of God is for a purpose. He is working, and He wants and expects His followers to be working for Him as well. He has not given salvation and the life of Christian faith to His disciples to waste away, to be doing nothing, and for being dependent on others for their needs. God has already determined something or the other for every Christian Believer to do (Ephesians 2:10). He wants everyone to fulfil their responsibilities diligently and sincerely. For this He has given each of His disciples appropriate gifts as well “Having then gifts differing according to the grace that is given to us, let us use them: if prophecy, let us prophecy in proportion to our faith; or ministry, let us use it in our ministering; he who teaches, in teaching; he who exhorts, in exhortation; he who gives, with liberality; he who leads, with diligence; he who shows mercy, with cheerfulness” (Romans 12:6-8); none should be lazy in working for the Lord “not lagging in diligence, fervent in spirit, serving the Lord” (Romans 12:11).


We had also seen from Mark 3:13-15, that when the Lord chose His twelve disciples, whom He called ‘Apostles’, He had three purposes for them. In the sequence stated by the Lord, the first among these purposes was that those disciples “be with Him” (Mark 3:14). Today we will look into this first purpose for the Lord’s disciple in some detail, and in the days ahead, we will study the other purposes as well.


In the previous articles on sin and salvation, we had seen that along with sin, death also entered the creation and in human life. Death is a permanent state of separation, irreversible by any human means and efforts. This death is of two kinds - spiritual and physical. Because of spiritual death man became separated from God’s fellowship; and because of physical death he became perishable. Man begins to die from the moment he is born, and eventually at a particular time, his body dies and decays off. The Lord Jesus took the sins of entire mankind upon Himself and paid for them with His life, suffered this physical death for mankind; by His death on the cross of Calvary, burial, and resurrection, He prepared and made available for all of mankind the way for forgiveness of sins and salvation, and defeated death for everybody. The moment a person comes to faith in the Lord Jesus and accepts Him as his personal savior, he is reconciled with God “For if when we were enemies we were reconciled to God through the death of His Son, much more, having been reconciled, we shall be saved by His life” (Romans 5:10), i.e., the problem of the person’s spiritual death is taken care of. We Christian Believers also have the Lord’s promise that at the time of our resurrection, or at the time of the second coming of the Lord, our perishable bodies will change in a moment to the eternal bodies, like the body of the Lord Jesus after His resurrection “Behold, I tell you a mystery: We shall not all sleep, but we shall all be changed-- in a moment, in the twinkling of an eye, at the last trumpet. For the trumpet will sound, and the dead will be raised incorruptible, and we shall be changed” (1 Corinthians 15:51-52), i.e., the solution to physical death has been made ready as well, now it only has to be applied and activated in our lives, which will be done in the time appointed by the Lord.


The conclusion is that as soon as one enters into the Christian faith, the Christian Believer is restored into fellowship with God. Since it is not God’s will that this fellowship is ever broken again, therefore He wants that each and every one of His Born-Again Believer, His spiritual children remain with Him always. As long as we are with the Lord God, we will remain safe from Satan’s harm. Satan can never cross the boundary, the hedge that God has put around His people, and can never do anything to God’s children over and above the limit set by God for him, as is evident from this passage from Job, “So Satan answered the Lord and said, "Does Job fear God for nothing? Have You not made a hedge around him, around his household, and around all that he has on every side? You have blessed the work of his hands, and his possessions have increased in the land. But now, stretch out Your hand and touch all that he has, and he will surely curse You to Your face!" And the Lord said to Satan, "Behold, all that he has is in your power; only do not lay a hand on his person." So, Satan went out from the presence of the Lord” (Job 1:9-12). But whosoever will transgress this boundary, breach this hedge, he will be bitten by the ‘snake’ “He who digs a pit will fall into it, And whoever breaks through a wall will be bitten by a serpent” (Ecclesiastes 10:8). The Lord wants to keep safe every one of His people from the devices of Satan. That is why, to keep us safe from Satan, the Lord wants that each and every one of His disciples remain with Him; and the Lord has also assured us “No temptation has overtaken you except such as is common to man; but God is faithful, who will not allow you to be tempted beyond what you are able, but with the temptation will also make the way of escape, that you may be able to bear it” (1 Corinthians 10:13).


If you are still not Born Again, have not obtained salvation; have not made yourself safe from Satan, his people, and his ploys; have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well 
&
Please Translate and Propagate in your Regional Language

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें