परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं और उनके आधार पर बपतिस्मे के बारे में समझ प्राप्त करने की हमारी इस शृंखला में अभी हम बपतिस्मे से संबंधित कुछ आधारभूत बातें देख रहे हैं। पिछले लेखों में हमने देखा है कि:
बपतिस्मा हमेशा वयस्कों को ही दिया गया, तब, जब वे अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, स्वेच्छा से बपतिस्मा लेने के लिए आए।
बपतिस्मा हमेशा ही पानी में अन्दर जाने और बाहर निकालने के साथ दिखाया गया है, अर्थात संकेत केवल डुबकी के बपतिस्मे को दिए जाने का ही है, जो “बपतिस्मा” शब्द के मूल यूनानी भाषा शब्द का शब्दार्थ भी है।
बपतिस्मे से न तो कोई धर्मी बनता है, न मसीही, और न “ईसाई”। बपतिस्मा केवल प्रभु यीशु के शिष्य के अन्दर हुए बदलाव का सार्वजनिक अंगीकार करना है; इससे अधिक बपतिस्मा और कुछ नहीं है।
प्रभु यीशु का शिष्य बन जाने के बाद उस शिष्य के लिए बपतिस्मा लेना प्रभु यीशु की आज्ञा है, इसलिए लेना है।
बपतिस्मा लेने या देने के लिए नए मसीही विश्वासी को प्रतीक्षा करने या करवाने की, अथवा उसके अन्दर वास्तव में परिवर्तन आया है कि नहीं, यह देखने की कोई आवश्यकता वचन में नहीं व्यक्त की गई है। सामान्यतः, नए विश्वासियों को तुरंत ही, उनके मसीही विश्वास में आते ही बपतिस्मा दे दिया गया है; चाहे बाद में उनमें से कोई विश्वास में सही नहीं भी निकला हो।
साथ ही हम यह भी देखते आ रहे हैं कि बाइबल में दी गई शिक्षाओं और उदाहरणों के अनुसार, शिशुओं या बच्चों का बपतिस्मा कोई अर्थ, कोई स्थान नहीं रखता है, बपतिस्मे से संबंधित बाइबल की किसी भी शिक्षा से कोई मेल नहीं खाता है; और बाइबल में इसका कोई उदाहरण नहीं है।
आज हम बपतिस्मे से संबंधित एक और आधारभूत प्रश्न को बाइबल के उदाहरणों और शिक्षाओं से समझेंगे, कि “क्या बपतिस्मे के समय प्रयोग किए गए नामों या शब्दों से, अथवा बपतिस्मा देने के लिए प्रयोग किए गए स्थान से, बपतिस्मा जायज़ या ना जायज़ हो जाता है?”
बपतिस्मे के लिए प्रयुक्त नामों, शब्दों, और जल के स्थान का महत्व?
बपतिस्मा लेना प्रभु की आज्ञा है, और आज्ञाकारिता में आशीष है। किन्तु इस तथ्य के साथ एक और तथ्य को भी ध्यान रखना उतना ही आवश्यक है कि बपतिस्मा न लेने से न तो विश्वास और न ही उद्धार चला जाता है; और बपतिस्मा ले लेने से न तो विश्वास और न ही उद्धार मिल जाता है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए, यह प्रकट है कि महत्व बपतिस्मे को लेने का है, बपतिस्मे के समय किस या किन नामों का उच्चारण किया जाता है, उसे बहते पाने में दिया/लिया जाता है अथवा खड़े पानी में, इन बातों का नहीं। मत्ती 28:19 के अनुसार, प्रभु यीशु मसीह के ही शब्दों में बपतिस्मा “पिता, पुत्र, और पवित्र आत्मा” के नाम से दिया जाना है – ये तीनों ही त्रिएक परमेश्वर के स्वरूप हैं और पूर्णतः एक समान हैं, कोई भी दूसरे से न तो भिन्न है और न किसी रीति से कम है। यही “त्रिएक परमेश्वर” जब इस धरती पर अवतरित होकर सदेह आया, तो उसका नाम “यीशु” रखा गया; अर्थात यीशु त्रिएक परमेश्वर ही का नाम है, जो उसके उद्धारकर्ता स्वरूप को दिखाता है (मत्ती 1:21)। इसलिए चाहे तीनों का नाम लो, या किसी एक का, अभिप्राय तो उसी एक परमेश्वर को आदर देने और उसकी आज्ञाकारिता को पूरा करना है। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता है कि केवल प्रभु यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा दिया/लिया जाए, या तीनों, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से कहकर दिया/लिया जाए; बात एक ही है। यह शिक्षा, कि केवल यीशु के नाम में दिया गया बपतिस्मा ही सही है अन्यथा नहीं, मसीही विश्वास से संबंधित कुछ गलत शिक्षाओं का प्रचार और प्रसार करने वाले समुदायों के द्वारा फैलाई जाती रही है। इन गलत शिक्षाओं को देने वाले ये लोग त्रिएक परमेश्वर पर विश्वास नहीं रखते हैं; उनकी और भी कुछ गलत शिक्षाएं हैं। वे केवल यीशु ही को मानते हैं, इसलिए त्रिएक परमेश्वर के अस्तित्व और बातों पर जहाँ और जैसे संभव है, संदेह उत्पन्न करते हैं, उसके विरोध में धारणाएं उत्पन्न करते हैं। और उनके इसी प्रयास की एक कड़ी उनके द्वारा बपतिस्मे के बारे फैलाई जाने वाली यह शिक्षा है।
इसी प्रकार से कुछ मत और समुदाय यह भी सिखाते हैं कि बाइबल में बपतिस्मा हमेशा ही बहते पानी में, नदी में दिया गया, जैसे प्रभु यीशु का बपतिस्मा, और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के द्वारा दिया जाने वाला बपतिस्मा। इसलिए बपतिस्मा तभी सही है, जब वह किसी नदी या बहते पानी में दिया जाए। किन्तु पतरस के प्रचार के बाद विश्वास करने वाले 3000 लोगों के बपतिस्मे के लिए (प्रेरितों 2:41), फिलिप्पुस द्वारा कूश के खोजे को दिए गए बपतिस्मे में (प्रेरितों 2:36), पौलुस के बपतिस्मे में (प्रेरितों 9:18), किसी नदी या बहते पानी के स्थान का कोई उल्लेख नहीं है। फिलिप्पुस द्वारा कूश के खोजे के बपतिस्मे के वर्णन से तो लगता है मानों मार्ग के किनारे किसी तालाब या जलाशय को देखते ही उस खोजे ने बपतिस्मा लेने की लालसा व्यक्त की।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए, यह प्रकट है कि महत्व बपतिस्मे को सच्चे पश्चाताप और खरी मनसा से लेने का है, बपतिस्मे के समय किस या किन नामों का उच्चारण किया जाता है, उसे बहते पाने में दिया/लिया जाता है अथवा खड़े पानी में, इन बातों का नहीं। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता है कि केवल प्रभु यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा दिया/लिया जाए, या तीनों, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से दिया/लिया जाए। इन बातों के द्वारा बपतिस्मा जायज़ या नाजायज़ नहीं हो जाता है। वास्तव में, जब बपतिस्मा केवल अपने मसीही विश्वास का सार्वजनिक अंगीकार है, तो फिर इन बाहरी बातों के द्वारा वह जायज़ या नाजायज़ कैसे हो सकता है, और उसे जायज़ या नाजायज़ कहने का क्या आधार, या व्यक्ति के मसीही विश्वास पर क्या प्रभाव होगा?
यदि वयस्क ने स्वेच्छा से, पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने के बाद, बपतिस्मा लेने की इच्छा व्यक्त करते हुए, डुबकी का बपतिस्मा लिया है, तो फिर चाहे वह “पिता, पुत्र, और पवित्र आत्मा” के नाम से लिया गया हो, या “यीशु” के नाम से; चाहे वह किसी नदी या अन्य बहते पानी में लिया गया हो या किसी जलाशय या तालाब में, वह वचन के अनुसार है, स्वीकार्य है, और उसे नाजायज़ कहने का कोई आधार नहीं है। किन्तु शिशुओं या बच्चों का “बपतिस्मा” या बिना सच्चे पश्चाताप के रस्म के निर्वाह के लिए लिया गए बपतिस्मे का कोई महत्व नहीं है। वह एक झूठी गवाही है, जो अस्वीकार्य है; उसका होना या न होना एक समान है, क्योंकि उसमें मनुष्यों की और उनकी रीतियों की आज्ञाकारिता तो है, किन्तु परमेश्वर की आज्ञाकारिता नहीं है। परमेश्वर के नाम, तथा पानी के स्थान के साथ बपतिस्मे को जायज़-नाजायज़ दिखाना, शैतान के द्वारा लोगों को गलत शिक्षाओं और व्यर्थ के वाद-विवादों में फंसा कर, उनका ध्यान कर्मों की धार्मिकता की ओर लगाने का प्रयास है, जिससे वे परमेश्वर के अनुग्रह से मिलने वाली क्षमा और धार्मिकता की सादगी और आशीष से निकलकर व्यर्थ के अनुचित कर्मों में फँसे रहें, आपस में विवाद करते, लड़ते रहें, पापों से पश्चाताप के स्थान पर विधि-विधानों के निर्वाह के चक्करों में पड़कर प्रभु के मार्गों से भटक जाएँ।
यदि आप मसीही हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः आपका न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए आपके लिए मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बनना अनिवार्य है, नहीं तो अनन्त जीवन में अनंतकाल की हानि उठानी पड़ेगी। अपने जीवन में गंभीरता से झांक कर देख लें, और जिन भी बातों को सही करना है, उन्हें अभी समय और अवसर रहते हुए सही कर लें; कहीं कल या “बाद में” पर टाल देने से बहुत विलंब और हानि न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
1 शमूएल 10-12
लूका 9:37-62
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In our current series on understanding the teachings of God's Word and about baptism, we have been looking at some basic things about baptism from God’s Word. In previous articles we have seen that:
Baptism was always given only to adults when, having repented of their sins, they voluntarily came to be baptized.
Baptism has always been shown to by going into and coming out of water, alluding to baptism only by immersion, which is also the meaning of the original Greek word for "baptism".
Baptism neither make one righteous, nor Christian, nor a "Believer". Baptism is simply a public confession of the change that has taken place within the disciple of the Lord Jesus; There is nothing more to baptism than this simple fact.
It is the command of the Lord Jesus for His disciples to be baptized, after becoming a disciple of the Lord Jesus, therefore, it has to be taken, in obedience to the Lord Jesus.
In the Scriptures there is no mention of any necessity to wait for a new Christian Believer to be baptized, to see if there has actually been a change in him. In general, in the Bible, new believers were baptized immediately, as soon as they came into the Christian faith; even if later some of them turned out not to be true in their faith.
At the same time, we have been seeing that according to the teachings and examples given in the Bible, the baptism of infants or children has no meaning, no place, no agreement with any of the Biblical teachings about baptism; and there is no example of this in the Bible.
Today we will consider another fundamental question related to baptism, from Biblical examples and teachings, “Can baptism be said to be valid or invalid on the basis of the names or words used at the time of baptism; or on the basis of the place used to baptize a person?"
Significance of names, words, and places of water used for baptism?
Getting baptized is a command of the Lord, and obedience to God’s commands brings blessings. But an equally important fact to keep in mind is that by not being baptized neither faith nor salvation is lost; And, by being baptized a person neither comes into faith nor gets salvation.
Keeping these things in mind, it is evident that the importance is of taking the baptism, and not the names are chanted at the time of baptism; neither is it of any significance whether the baptism was given/taken in running water or in standing water. According to Matthew 28:19, in the words of the Lord Jesus Christ, baptism is to be given in the name of “Father, Son, and Holy Spirit” – all three are persons of the Holy Trinity and are fully alike, none is different from the other in any manner, in any aspect. When this “Triune God” came to this earth in the flesh, He was named “Jesus”; i.e., Jesus is the name of the Triune God, the name of His person as the Savior of the world (Matthew 1:21). Therefore, whether to take the name of all three, or any one of the persons of the Holy Trinity, the intention is to honor one and the same God through being obedient to Him. Therefore, it does not matter whether one is baptized in the name of the Lord Jesus Christ alone, or in the name of all three, the Father, the Son and the Holy Spirit; It, effectively, is one and the same thing. There is no instance of any differentiation amongst the initial Christian Believers on the basis of the names used at the time of their baptism; nor is there any instance of one or the other baptism being considered invalid because of certain words or names being used or not used at the time of baptism.
The confusion created is because of the literal rendering of the phrase “in the name of.” The phrase “in the name of” is commonly used in everyday use to denote doing something out of respect for a person, e.g., putting up a plaque, or making a donation, or doing something to honor a person. In those instances, it is said, “in the name of…” this is being done. Or it can also be used to commemorate someone, when it again is said, “in the name of…” this is memorial is being erected or established. This literal use as a noun could be understood, if in the Bible it was written, “in the name of the Savior of the world, you are baptized” and then the actual noun, the name Jesus was used at baptism. Whereas, this has nowhere been stated; therefore, it does make sense to take the phrase “in the name of Jesus” as a way of stating “in obedience to Jesus”, or “in honor of Jesus and what He commanded”. When used in this manner, to denote obedience or respect to the command of the Lord Jesus to take baptism, then Lord Jesus’s command in Matthew 28:19 can easily be understood as also stating to baptize in obedience to, or in honor of the Father, Son, and the Holy Spirit. This also falls in line with giving and taking baptism only to those who repent of their sins, become disciples of Lord Jesus by submitting their lives to Him; and excludes those who want to do this as a ritual or a formality.
The teaching that baptism only in the name of Jesus is correct, has been spread by communities that propagate and spread some false teachings about the Christian faith. Those who give these and other such false teachings do not believe in the Trinity. They claim to believe in Jesus alone as being God. They, therefore look for ways and opportunities to cast doubts on the Holy Trinity of God; and wherever, whenever, and however possible, to create unbelief against Trinity. And one of the ways they spread their wrong teachings is by this confusion they create about the name used at the time of baptism.
Similarly, some sects and communities teach that baptism in the Bible was always given in running water, in a river, as in the baptism of the Lord Jesus, and baptisms given by John the Baptist. Therefore, baptism is valid only if it is given in a river or running water. But for the baptism of 3000 believers after Peter's preaching (Acts 2:41), Philip's baptism to the Ethiopian Eunuch (Acts 2:36), Paul's baptism (Acts 9:18), there is no mention of any river or the presence of running water. From Philip's account of the baptism of the Ethiopian Eunuch, it appears that he wanted to be baptized upon seeing a pond or water body near the road.
With these things in mind, it is evident that the importance is of taking baptism with true repentance and sincerity, and not of what names are used at the time of baptism, nor of whether it is given in running water or in standing water. Therefore, it does not matter whether the baptism is taken or given in the name of the Lord Jesus Christ alone, or in the name of all three, the Father, the Son and the Holy Spirit. These things do not make baptism valid or invalid. In fact, since baptism is simply a public confession of one's Christian faith, then how can it be treated as valid or invalid by these externals? And, how can these externals be taken as the basis for calling it valid or invalid, or what effect can calling it “invalid” possibly have on a person's repentance and coming into Christian faith? Can a supposedly “invalid” baptism undo anyone’s Christian faith and push him back into being unsaved?
If an adult has voluntarily taken the immersion baptism, after expressing a desire to be baptized, having sincerely repented of sins and accepted the Lord Jesus as Savior, then whether He is baptized in the name of “Father, Son, and Holy Spirit”, or of “Jesus”; Whether it is taken in a river, or some other running water; or in a reservoir or pond, it is acceptable, and there is no ground to call it invalid. But “baptism” of infants or children, or baptisms performed without sincere repentance, have no significance. That is giving a false testimony, and is unacceptable; it is as good as not having been done, since it has been done in obedience to men and their customs, but not in obedience to God. To call baptism as valid or invalid through the use of a particular name of God, or because of a particular place of water, is Satan's attempt to draw people's into the righteousness of works, by entrapping people in false teachings and futile debates, so that instead of worshiping God for His forgiveness by grace and His blessings of making us righteous through simple faith, people get trapped in futile works, quarrel among themselves about vain things, and keep arguing, instead of repenting of sins. Satan wants to keep people distracted from the ways of the Lord by enticing them to follow the rules and regulations of men, and observing rituals and ceremonies, instead of following the Bible.
If you are a Christian, it is essential for you to follow the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, you will neither be judged by any man, nor on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which not only are vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But everyone will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), and only on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for you to be pleasing to God, instead of striving to please men; else you will have to suffer the loss of eternal life and eternity. Take a serious account of your life, and whatever things you need to rectify, do it right now, while you have the time and opportunity; procrastinating and postponing it for tomorrow or "later" may be very harmful.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
1 Samuel 10-12
Luke 9:37-62
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