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निर्गमन 12:11-12 (6) - प्रभु की मेज़ - परमेश्वर के साथ और सुरक्षा का आश्वासन
जैसे कि हम पहले देख चुके हैं, परमेश्वर ने मूसा में होकर इस्राएलियों से कह रखा था कि वे बहुत अल्प-सूचना पर उनके दासत्व के घर, मिस्र से निकलने के लिए तैयार रहें, और जैसे ही पुकार आए, शीघ्रता से निकल जाने की तैयारी कर के रखें। पद 11 इस निर्देश की पुष्टि है, और इसीलिए उनसे विशेषतः कहा गया है कि फसह को जल्दी में खाएं। इसलिए उन्हें अपनी कमर बाँधे हुए, पाँव में जूती पहने हुए, हाथ में लाठी लिए हुए फसह को खाना था; और जैसा हमने पिछले लेख में देखा था कि साथ ही उन्हें बलि किए हुए शेष मेमने को जलाने के लिए भी तैयार रहना था। परमेश्वर उन्हें यह भी स्मरण दिलाता है कि यद्यपि उन्होंने ये निर्देश मूसा से सुने थे, किन्तु उनका देने वाला वास्तव में परमेश्वर ही था; परमेश्वर ही उन्हें यह सब करने के लिए कह रहा था।
पद 12 में हम देखते हैं कि स्वयं परमेश्वर ही अपने लोगों का पलटा लेने के लिए उतर कर आया था, और मिस्र में दोनों, मनुष्यों और पशुओं के पहिलौठों को घात कर रहा था। प्रभु परमेश्वर एक बार फिर उसे दोहराता है जो उसने पद 11 में कहा है - अपने प्रभुत्व की पुष्टि करता है, और उन्हें आश्वस्त करता है कि वह “मिस्र के सारे देवताओं” को भी उसके लोगों का कुछ बिगाड़ने नहीं देगा, वरन उसी रात उनको भी दण्ड देगा, और इस प्रकार से जो कुछ भी हो रहा है, या होने जा रहा है उस अभी पर परमेश्वर ने अपनी सार्वभौमिकता की पुष्टि की। यदि हम अपने आप को उन इस्राएलियों के स्थान पर रखें, तो समझ सकते हैं कि जो कुछ उन से कहा जा रहा था उसे लेकर वो लोग उस समय कितने घबराए हुए, चिंतित, और अनिश्चित रहे होंगे; ये सारा घटना क्रम उनके लिए कितना अभिभूत करने वाला, कितना बुरी आशंकाओं से भरा हुआ रहा होगा। किन्तु परमेश्वर अपने लोगों को आश्वस्त कर रहा है कि वे चिंतित न हों, घबराएं नहीं, बस केवल उस पर भरोसा बनाए रखें, क्योंकि हर बात उसी के हाथों में है, और वह उनके मिस्र से सुरक्षित निकलने और नए स्थान पर जाने की तैयारी कर रहा है। प्रभु भोज में भाग लेना भी इसी प्रकार से आश्वस्त करने वाला अनुभव होना चाहिए, कि परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, चाहे रात और अंधकार हो, बाहर चाहे कैसी भी शैतानी शक्तियां घात लगाए हुए हों; तब भी सब कुछ परमेश्वर के नियंत्रण और अधीनता में हैं, और परमेश्वर किसी भी शैतानी शक्ति को उनकी कोई हानि नहीं करने देगा। उसने सब बातों के होने का एक समय और तरीका निर्धारित किया है, और अंततः उन सभी में होकर वह अपने लोगों को आशीष देगा, उनका भला करेगा।
इन दो पदों में लिखी बातों के आधार पर सभी भाग लेने वालों को प्रभु भोज में अपने भाग लेने के बारे में मनन करना और निश्चित होना चाहिए। वो लोग जो रस्म के समान, बिना किसी दृढ़ विश्वास के, बिना प्रभु की मेज़ के महत्व और मतलब की किसी समझ के, एक औपचारिकता के समान प्रभु की मेज़ में हिस्सा लेते हैं, क्या उनमें यह शान्ति का अनुभव और आश्वासन होता है कि जो वो कर रहे हैं वह वास्तव में प्रभु द्वारा निर्धारित और स्थापित प्रभु भोज ही है, किसी डिनॉमिनेशन के द्वारा निर्धारित, मनुष्यों के द्वारा बनाई गई परंपरा का पालन नहीं है? प्रभु भोज में भाग लेते समय क्या उन्हें यह आश्वासन रहता है कि उनके विरोध में चाहे शैतान की शक्तियां जो भी षड्यन्त्र बना रही हों, सारा नियंत्रण प्रभु ही के हाथों में है, और वह उन्हें हर परिस्थिति में हर समय कुशल और सुरक्षित रखेगा (रोमियों 8:32)? क्या उनके मनों में यह दृढ़ निश्चय रहता है कि परमेश्वर उन्हें उनकी सामर्थ्य से बाहर किसी भी परीक्षा में कभी भी नहीं पड़ने देगा, और साथ ही उसमें से निकलने के लिए मार्ग भी देगा (1 कुरिन्थियों 10:13)? क्या वे वास्तव में इस बात को जानते और मानते हैं कि उन्हें किसी भी परिस्थिति से होकर क्यों न निकलने पड़े, वह चाहे समझ के बाहर, अप्रत्याशित, अभूतपूर्व, और पीड़ादायक ही क्यों न हो, अन्ततः परमेश्वर उन्हें शैतानी शक्तियों के हाथों से छुड़ाकर बाहर निकाल लेगा, और सभी बातों के द्वारा उनका भला ही करेगा, उन्हें आशीष ही देगा (रोमियों 8:28)?
या कहीं उन लोगों के साथ ऐसा होता है कि प्रभु भोज में अपनी रीति के अनुसार परंपरा को पूरा करने के लिए भाग लेने के बाद, वे लोग उन्हीं अनिश्चितताओं, चिंताओं, उन्हीं तनावों के साथ वापस लौटते हैं, जिन्हें लेकर वे आए थे? क्या उन्हें कभी भी यह एहसास होता है कि वे परमेश्वर के साथ संगति करके, उसकी संतान के समान उसकी मेज़ में से भाग लेकर आए हैं; परमेश्वर उनके कार्यों और व्यवहार का सर्वेसर्वा और नियंत्रक है, उनके लिए कार्य कर रहा है, और चाहे उनके चारों ओर जो हो रहा है वह उन्हें समझ न भी आ रहा हो, किन्तु आखिरकार जयवंत और आशीषित वे ही होंगे।
जब तक कि व्यक्ति वास्तव में नया जन्म पाया हुआ परमेश्वर की संतान न हो, और वह परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार अपने आप को तैयार करके न रखता हो, और प्रभु भोज में परमेश्वर द्वारा निर्धारित विधि के अनुसार, परमेश्वर को आदर देने, उसकी आज्ञाकारिता में रहने के लिए भाग न लेता हो; तब तक परमेश्वर की उपस्थिति का एहसास, उसकी सुरक्षा, और आश्वासनों का अनुभव, मनुष्यों की सुनने वालों, मनुष्यों और मानवीय संस्थाओं को आदर देने वालों के द्वारा नहीं किया जा सकता है। केवल परमेश्वर की संतान ही अपने स्वर्गीय पिता की हर समय उनके साथ बनी रहने वाली उपस्थिति को पहचान और अनुभव कर सकते हैं, और भरोसा बनाए रख सकते हैं कि परमेश्वर हर बात में उनके पक्ष में, उनके भले के लिए कार्य कर रहा है।
ये सभी बातें स्पष्ट दिखाती हैं कि प्रभु भोज में भाग लेना उनके लिए नहीं है जो इसे एक धार्मिक रीति या औपचारिकता के समान लेते हैं, किन्तु उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार है। अगले लेख में हम निर्गमन 12 में से यहीं से आगे देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं कि नहीं? क्या आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु में एक नई सृष्टि बन गए हैं कि नहीं? क्या आप कलीसिया में विभाजनों और गुटों में बांटने में नहीं किन्तु एकता के साथ रहने में प्रयासरत रहते हैं कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु की मेज़ में उसी प्रकार से भाग ले रहे हैं जैसे परमेश्वर ने निर्देश दिये हैं, प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ, बड़ी गंभीरता से मेज़ के महत्व पर मनन करते हुए; या फिर आप किसी डिनॉमिनेशन की परंपरा अथवा किसी के मनमाने विचारों के अनुसार भाग ले रहे हैं? अपने आप को जांच कर देखें कि क्या आप प्रभु के सामने खड़े होकर अपने जीवन का हिसाब देने के लिए तैयार हैं कि नहीं? आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
होशे 9-11
प्रकाशितवाक्य 3
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Exodus 12:11-12 (6) - The Lord’s Table - An Assurance of God’ Presence and Safety
As we have seen earlier, the Israelites had been told by God through Moses to be prepared to leave Egypt, their place of bondage, at a moment’s notice, and make hasty preparations to leave, when the call came. Verse 11 is an affirmation of this instruction, specifically mentioning that they should eat the Passover in haste. Therefore, they had to eat the Passover with their belts tied, sandals on their feet, and staff in their hand; and as we had seen in the last article, also ready to burn the remaining portion of the sacrificial lamb. The Lord also reminds them that though they had heard the instructions through Moses, it was actually God who had given it; it was God Himself who was asking them to do this.
In verse 12 we see that it is God Himself who had come down to avenge His people, and strike the first-borns of Egypt, both man and beast. Then the Lord God once again reiterates what He said in verse 11 - He affirms His Lordship, and assures them that He will not let the “gods of Egypt” do anything to His people, instead the Lord God would judge them that night, affirming His sovereignty over everything happening and about to happen. If we place ourselves in the place of those Israelites, we can understand how troubled, apprehensive, uncertain they would have been about what was being said and what was about to happen; how unnerving and foreboding the whole scenario would have been for them. But God is reassuring His people, not to worry, not to be troubled, but simply trust Him, since everything is in His hands, and He is working things out for their safe deliverance and relocation out of Egypt. Participating in the Holy Communion should similarly be a reassuring experience that no matter what be the situation, whether night and darkness, and whatever powers of darkness be prowling outside; God is still out there in control of everything, and will not allow the satanic forces to harm them in any way. He has ordained things to happen at certain times and in a certain manner, and eventually through them all, He will bless and benefit His people.
It is for all participants to reflect and ascertain their participating in the Holy Communion, in light of these two verses. Do those who ritually, without any conviction, without any understanding of the meaning and importance of the Holy Communion, perfunctorily, participate in the Lord’s Table, have this sense or peace and assurance in them that what they are doing is actually the Lord ordained and established Communion, not a denominational or man-made tradition to be fulfilled? Participating in the Communion do they get the assurance that no matter what the forces of evil are setting up for them, it is the Lord who is in control and will keep them safe and secure at all times (Romans 8:32)? Do they have the conviction in their heart that God will never let them be tested beyond their ability to bear, and will also provide the way out (1 Corinthians 10:13)? Do they know and truly believe that through everything that happens to them, even if it is incomprehensible, unforeseen and unexpected, and seemingly painful, eventually God will deliver them from the satanic forces and only bless and benefit them (Romans 8:28)?
Or, is it that after they have fulfilled their ritualistic observance, they go back with the same uncertainties, same worries, same tensions, that they had come in with? Do they ever get the sense that they have been in company of God, have been at God’s Table, as His children, and that God is in-charge of their affairs, is working things out for them, and though they may not necessarily understand the things happening around them, ultimately, they will come out victorious and blessed.
Unless one truly is a Born-Again child of God, has kept himself ready and prepared as instructed by God, and is partaking in the Communion as God has ordained it to be done, to honor and obey God, instead of obeying men and honoring man-made institutions, these feelings of God’s presence, safety, and assurances are hard to come by. Only God’s children can feel and know the presence of their heavenly Father with them at all times, and remain confident of His working on their behalf all the time, in everything.
All these things show that participating in the Holy Communion is not for those who take it as a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, but is for those who willingly have chosen to live worthy of the Lord, in obedience to His Word, and are willing to pay the price for doing so. In the next article we will carry on from here and see more from these verses, Exodus 12:8-10. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word, are a new creation for the Lord. That you strive for unity, not divisions and factionalism in the Church, and have been participating as the Lord has instructed to be done, participating with full allegiance to the Lord, in all seriousness, and pondering over its significance; instead of doing it in any presumptive manner, or simply as a denominational ritual; and are ready and prepared to stand before the Lord and answer for your life. It is also necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Hosea 9-11
Revelation 3
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