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शनिवार, 14 मई 2022

बाइबल, पाप और उद्धार / The Bible, Sin, and Salvation – 1


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पाप क्या है? - 1  

   

    पिछले तीन सप्ताह से हम देखते आ रहे हैं कि बाइबल मनुष्यों की कल्पनाओं, धारणाओं, विचारों, और प्रयासों से रची गई पुस्तक नहीं है, वरन संसार की अन्य सभी पुस्तकों से, सभी ग्रंथों से पृथक, अद्भुत, विलक्षण, और अनुपम रचना है, जो अपने लेखों और गुणों के द्वारा अपने आप को प्रमाणित करती है कि वह वास्तव में सृष्टिकर्ता परमेश्वर द्वारा सारे संसार के दृष्टिकोण से, हर काल-समय में कार्यकारी, संसार के सभी लोगों की भलाई और उपयोग के लिए लिखवाया गया सच्चा विश्वासयोग्य वचन है। इस वर्तमान श्रृंखला के आरंभिक लेख (अप्रैल - 19 - परमेश्वर का वचन – बाइबल – परिचय) में हमने देखा था कि बाइबल मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम, मनुष्य के पाप में गिरकर परमेश्वर से दूर हो जाने, और मनुष्य की इस पाप में पतित स्थिति में भी उसके प्रति परमेश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति है। 


बाइबल बताती है कि किस प्रकार मनुष्य की अपने साथ संगति को बहाल करने के लिए परमेश्वर ने साधारण, सामान्य, निर्धन मनुष्य - यीशु के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया, उन्होंने एक निष्पाप, निष्कलंक जीवन बिताया, और समस्त मानव जाति के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड, मृत्यु, को भी अपनी ऊपर ले लिया; वह सभी मनुष्यों के स्थान पर क्रूस पर बलिदान हुए, मारे गए, गाड़े गए, और तीसरे दिन फिर मृतकों में से जी उठे। उस लेख में हमने देखा था कि मनुष्य और परमेश्वर की संगति में बाधा उत्पन्न, एक को दूसरे से पृथक करने वाली समस्या पाप है; और पाप का निवारण, उसका परमेश्वर और मनुष्य के मध्य से हटाया जाना ही इस समस्या का समाधान है। आज से हम इन बातों को थोड़ा और विस्तार से देखना आरंभ करेंगे। विनम्र निवेदन है कि कृपया उस प्रथम लेख को एक बार फिर पढ़ लें, जिससे आगे के लिए सहज हो जाए।

 

    आज हम परमेश्वर के वचन के अनुसार पाप क्या है, इस पर विचार आरंभ करेंगे। सामान्यतः लोग समझते हैं कि पाप करने का अर्थ है शारीरिक रीति से कोई जघन्य अपराध करना, जैसे कि हत्या, व्यभिचार, चोरी-डकैती, लूट, धोखा, इत्यादि। सामान्य प्रयोग में अभद्र भाषा, छिछोरा व्यवहार या वार्तालाप, बिना कुछ भी कहे किसी को कुदृष्टि से देखना, सामान्य व्यवहार में झूठ बोलने अथवा बहाने बनाने या बात को छिपाने, उसे उसकी सच्चाई से भिन्न स्वरूप में व्यक्त करने आदि को लोग आम तौर से पाप नहीं मानते हैं। कुछ तो यह भी कहते हैं कि किसी की भलाई के लिए यदि इस प्रकार का व्यवहार कर भी लिया जाए तो वह भला कार्य ही है, कोई पाप नहीं है। इसलिए ऐसी बातों के लिए चिंतित नहीं होना चाहिए, उन्हें लेकर किसी असमंजस में नहीं पड़ना चाहिए। किन्तु ये मनुष्यों की धारणाएं हैं, मनुष्यों द्वारा अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार, अपने आप को संतुष्ट रखने के लिए अपने मन से गढ़ी गई बातें हैं। इनमें से कोई भी बात बाइबल के पवित्र निष्पाप सृष्टिकर्ता परमेश्वर द्वारा दी गई पाप की परिभाषा और व्याख्या से मेल नहीं खाती है। 


बाइबल के अनुसार पाप, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है “जो कोई पाप करता है, वह व्यवस्था का विरोध करता है; ओर पाप तो व्यवस्था का विरोध है” (1 यूहन्ना 3:4); किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है “सब प्रकार का अधर्म तो पाप है . . .” (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी रीति से, किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत, किसी भी उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। बाइबल के अनुसार पाप में होना एक मानसिक दशा है; पाप का निवास, उसकी जड़ मनुष्य के मन में है; उसके बाहरी प्रकटीकरण का आरंभ मनुष्य के मन में से ही होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रकट हो जाता है:

  • याकूब 1:14-15 “परन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा में खिंच कर, और फंस कर परीक्षा में पड़ता है। फिर अभिलाषा गर्भवती हो कर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है।”

  • मरकुस 7:20-23 “फिर उसने कहा; जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि भीतर से अर्थात मनुष्य के मन से, बुरी बुरी चिन्ता, व्यभिचार। चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।”

  • गलतियों 5:19-21 “शरीर के काम तो प्रगट हैं, अर्थात व्यभिचार, गन्‍दे काम, लुचपन। मूर्ति पूजा, टोना, बैर, झगड़ा, ईर्ष्या, क्रोध, विरोध, फूट, विधर्म। डाह, मतवालापन, लीलाक्रीड़ा, और इन के जैसे और और काम हैं, इन के विषय में मैं तुम को पहिले से कह देता हूं जैसा पहिले कह भी चुका हूं, कि ऐसे ऐसे काम करने वाले परमेश्वर के राज्य के वारिस न होंगे।”

 

इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में केवल शारीरिक क्रियाएं नहीं, उन क्रियाओं के पीछे के सभी प्रकार के अपवित्र, अधर्मी विचार पाप हैं - चाहे वे क्रियाओं में परिवर्तित नहीं भी हुए हों, तो भी।  परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं “परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा: और जो कोई अपने भाई को निकम्मा कहेगा वह महासभा में दण्ड के योग्य होगा; और जो कोई कहे “अरे मूर्ख” वह नरक की आग के दण्ड के योग्य होगा।परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई किसी स्त्री पर कुदृष्टि डाले वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका।” (मत्ती 5:22, 28)।


इसलिए बाइबल का परमेश्वर, प्रभु यीशु मसीह में होकर, हमारे मन में बसे पाप को मिटाता है; वह हमारे धर्म को नहीं, हमारे मन को बदलता है, जहाँ पर पाप की जड़ छुपी हुई है; और वहाँ से हमारे मनों में जमी हुई पाप की उस जड़ को उखाड़ कर फेंक देता है। मनुष्य अपनी सामर्थ्य से पाप की इस जड़ को नहीं उखाड़ सकता है; वो अपने कर्मों और धार्मिकता के कार्यों आदि से कुछ समय के लिए उस जड़ में से नई डालियाँ फूटना और उन डालियों में नई कोंपलें उत्पन्न होना चाहे दबा लें, किन्तु पापमय विचारों को जो शरीर में तो प्रकट नहीं होते, प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते, उन मन में होने वाले पापों को नहीं रोक सकता है। पाप की जड़ पर निर्णायक प्रहार और मन में बसे पाप का स्थाई निवारण केवल प्रभु परमेश्वर के द्वारा ही संभव है। 


    कल हम बाइबल के अनुसार पाप की इस व्याख्या को और आगे देखेंगे। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 एक साल में बाइबल:

  • 2 राजाओं 19-21
  • यूहन्ना 4:1-30

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What Is Sin? - 1


For the past three weeks, we have been seeing that the Bible is not a book created out of human imaginations, notions, thoughts, and efforts. It is unique, wonderful, astounding, and unparalleled in comparison to any other book of the world, to any other scriptures. It proves itself through its writings and qualities, that it is indeed the true and trustworthy, one and only Word of God, given by the Creator of the universe for the whole world, for the benefit and utilization of the entire mankind, equally applicable at all times and places. In the opening article of this current series (April 19 - The Word of God - The Bible - Introduction) we saw that the Bible is an expression of God's love for man, even in his sinful state, despite man's falling away from God.


The Bible describes how God took birth on earth as an ordinary, average, poor common man – Jesus, to restore man's fellowship with Him. He lived a sinless, spotless life, and took the sins of all mankind on Himself, suffered their punishment, death, for them. He was crucified, killed, buried in the place of mankind, and on the third day rose again from the dead. In that article we had seen that sin is the problem that breaks the fellowship of man with God, separates one from the other. And the solution to this problem is the removal of sin. From today we will start looking at these things in a little more detail. It is a humble request that please read that first article once again, so that it becomes easier to follow the coming articles.


Today we will begin by considering and understanding what sin is according to the Word of God. People generally assume and believe that committing a sin means physically committing a heinous crime, such as murder, adultery, theft, robbery, dacoity, gross cheating, etc. Generally speaking, people do not think of things like intemperate or abusive language, uncouth behavior or conversation, just looking at someone with inappropriate thoughts without saying or doing anything, lying, making excuses and hiding things to avoid facing truth, etc. as sin. Some even say that if this is done for the benefit of someone, then it is a good deed, it is not a sin; therefore, one should not be worried about such things, and should not get confused about them. But these are all human concepts and reasonings, the things contrived by the human mind, for men to pacify themselves according to their convenience and need. None of this matches the Bible's definition and explanation of sin as given by the holy sinless Creator God, who alone has the authority to define sin.


According to the Bible, sin is, essentially, a violation of God's laws, “Whoever commits sin also commits lawlessness, and sin is lawlessness" (1 John 3:4); Any kind of unrighteousness is a sin, “All unrighteousness is sin …” (1 John 5:17), in whatever manner, under whatever circumstances, for whatever purpose this may have been done, by any person. According to the Bible, being in sin is a state of the mind. Sin lives in, and has its roots in the mind of man. Its outward manifestations start from the mind of man, then in conducive circumstances and a favorable time it manifests itself in various kinds of bodily actions:

  • James 1:14-15 "But each one is tempted when he is drawn away by his own desires and enticed. Then, when desire has conceived, it gives birth to sin; and sin, when it is full-grown, brings forth death.”

  • Mark 7:20-23 "And He [Jesus] said, "What comes out of a man, that defiles a man. For from within, out of the heart of men, proceed evil thoughts, adulteries, fornications, murders, thefts, covetousness, wickedness, deceit, lewdness, an evil eye, blasphemy, pride, foolishness. All these evil things come from within and defile a man.”

  • Galatians 5:19-21 "Now the works of the flesh are evident, which are: adultery, fornication, uncleanness, lewdness, idolatry, sorcery, hatred, contentions, jealousies, outbursts of wrath, selfish ambitions, dissensions, heresies, envy, murders, drunkenness, revelries, and the like; of which I tell you beforehand, just as I also told you in time past, that those who practice such things will not inherit the kingdom of God."


That's why in the eyes of God, not just physical actions, but all kinds of impure, unrighteous thoughts behind those actions - even if they haven't been converted into any actions, yet they are sin. In the eyes of God, sins committed in the mind and thoughts are just as punishable as sins committed in deeds. “22 But I say to you that whoever is angry with his brother without a cause shall be in danger of the judgment. And whoever says to his brother, 'Raca!' shall be in danger of the council. But whoever says, 'You fool!' shall be in danger of hell fire.” “28 But I say to you that whoever looks at a woman to lust for her has already committed adultery with her in his heart." (Matthew 5:22, 28).


So, the God of the Bible, through the Lord Jesus Christ, has given the way to take away the sin that is residing in our hearts; He changes our mind where the root of sin lies, not our religion; And the Lord pulls out and removes the roots of sin that are in our hearts and throws them away. Man by his own power is incapable of pulling out these roots of sin from within themselves. They may, by their pious deeds, religious behavior, and acts of righteousness, be able to suppress for some time the sprouting of new shoots and branches from those roots, but these cannot prevent the sins that happen in the mind, cannot eliminate the sinful thoughts which neither manifest physically nor are visible externally. The decisive attack on the root of sin and the permanent removal of sin settled in the heart and mind is possible only through the Lord God.


Tomorrow we will look further into this Biblical interpretation of sin.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can say this prayer and make your submission in this manner, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.



Through the Bible in a Year: 

  • 2 Kings 19-21

  • John 4:1-30


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