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परिचय
एक आम धारणा है कि बाइबल और विज्ञान परस्पर सहमत नहीं हैं, और बाइबल की बातें विज्ञान के समक्ष ठहर नहीं पाती हैं, क्योंकि वे सभी काल्पनिक किस्से-कहानियाँ हैं; निराधार बातें हैं। यदि थोड़ा थम कर सोचा जाए, कि विज्ञान क्या है, तो एक भिन्न ही चित्र हमारे सामने उभर कर आता है। विज्ञान हमारे संसार और सृष्टि की रचना और संचालन, सृष्टि के सभी कार्यों तथा कार्यविधियों का अध्ययन है। जैसे-जैसे नई बातें सामने आती जाती हैं, उन नई बातों के संदर्भ में पुरानी बातों और धारणाओं की समीक्षा, विश्लेषण, और पुनः अवलोकन भी होता रहता है। इस कारण विज्ञान सदा परिवर्तनशील रहता है। आज जो सत्य है, कल किसी अन्य बात की खोज या किसी अन्य तथ्य के सामने आने के कारण वही असत्य भी हो सकता है, बदला भी जा सकता है। विज्ञान के कितने ही सिद्धांत जो पहले तथ्य के रूप में बताए और सिखाए जाते थे, वे बदले जा चुके हैं। इसलिए विज्ञान की कोई भी बात कभी भी अपरिवर्तनीय, संपूर्ण, और अंतिम नहीं हो सकती है।
परन्तु एक अन्य, सत्य किन्तु काम ही जानी तथा मानी जाने वाली बात यह भी है कि विज्ञान की बातों की आधार पर तर्क देने वाले सभी जन अब यथार्थ और सत्यवादी नहीं होते हैं। अब सामान्य धारणा जैसे भी हो सके परमेश्वर के अस्तित्व का इनकार करने और बाइबल को गलत प्रमाणित करने की है। इसलिए विज्ञान के बहुत से तथ्य, खोज, जानकारियाँ, जो प्रचलित धारणाओं के विरुद्ध हैं, उन्हें दबा दिया जाता है, उनकी चर्चा नहीं की जाती है, उन्हें प्रमुखता प्रदान नहीं की जाती है, और उनकी उपेक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए “Evolution Hoaxes” अर्थात, क्रमिक विकसवाद में छल को लेकर इंटरनेट पर ढूंढ लीजिए, और आप विस्मित रह जाएँगे कि कितनी बातें छिपाई गई हैं कितने तथ्य दबाए गए हैं, और किस प्रकार से सही को दबा कर गलत को प्रमुख करने के द्वारा इस अस्वीकार्य धारणा को स्वीकार्य बनाने के प्रयास किए जाते रहे हैं, और अभी भी हो रहे हैं।
कुछ दशक पहले अणु को पदार्थ का सबसे सूक्ष्म कण समझा जाता था; कुछ ही समय में अणु के स्थान पर परमाणु को सबसे सूक्ष्म कण कहा जाने लगा; फिर पता चला कि परमाणु तीन अति-सूक्ष्म कणों से मिलकर बना है; और अब परमाणु की रचना करने वाले सूक्ष्म कणों की संख्या और अधिक हो गई है। साथ ही यह भी समझा जा रहा है कि ये कण अपने आप में कोई ठोस पदार्थ नहीं हैं वरन ऊर्जा का एक स्वरूप हैं। अब यह दिमाग को चकरा देने वाली बात है कि हम और हमारे चारों के ओर के सभी पदार्थ, चाहे वे ठोस हों, या द्रव्य हों, अथवा गैस हों, किसी ठोस पदार्थ से नहीं वरन ऊर्जा के विशिष्ट रीति से एकत्रित होकर एक विशेष रीति से व्यवहार और कार्य करने के द्वारा अस्तित्व में आए हैं। कैसे, वह जो पदार्थ नहीं है, उसने पदार्थ का स्वरूप और गुण प्राप्त कर लिया और सृष्टि की हर वस्तु, बात, और रूप में आ गया? और वह भी स्वतः ही, क्योंकि विज्ञान तो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता है! क्योंकि यह बात विज्ञान और वैज्ञानिक कहते हैं, इसलिए संसार के लोग इसे सम्पूर्ण और अकाट्य सत्य स्वीकार करते हैं, मानते हैं, और इसमें कोई त्रुटि होने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। किन्तु यही असंभव प्रतीत होने वाले बात यदि बाइबल में लिखी होती, तो इसका उपहास होता, आलोचना होती, और इसपर विश्वास करने में लोगों को बहुत समस्या होती। अब क्या विज्ञान भी व्यक्तिगत विश्वास की बात नहीं है?
यह भी माना जाता था कि रौश्नी की गति एक ही रहती है, बदलती नहीं है; और यह भी माना जाता था कि अंतरिक्ष वैक्यूम या शून्य है जिसमें रौश्नी निर्बाद्ध जाती है। किन्तु अब यह पता चल चुका है कि रौश्नी की गति हर स्थिति में एक ही नहीं रहती है, बदल सकती है; और अंतरिक्ष वैक्यूम या शून्य नहीं है, वरन अति-सूक्ष्म कण विद्यमान हैं जो रौश्नी की गति को प्रभावित कर सकते हैं। तो फिर अब उन धारणाओं और सिद्धांतों का क्या जो इस आधार पर बनाए गए थे कि रौश्नी की गति अपरिवर्तनीय है तथा अंतरिक्ष वैक्यूम या शून्य है?
चिकित्सा विज्ञान में आए दिन परिवर्तन होते रहते हैं, और जो कभी इलाज के स्थापित तरीके माने जाते थे, उनमें कितने ही परिवर्तन आ चुके हैं, और उन पुराने इलाजों को अब कोई स्वीकार नहीं करता है। इसी प्रकार जीव-विज्ञान, भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र आदि में भी बहुत सी बातों में परिवर्तन आए हैं। इसलिए यह मान लेना कि विज्ञान की बातें सदा ही दृढ़ और स्थिर तथा अपरिवर्तनीय रहती हैं, सदा सत्य ही होती हैं, सत्य नहीं है। विज्ञान की बातें भी बदलती रहती हैं। केवल एक ही सदा स्थिर, दृढ़ और अपरिवर्तनीय है - परमेश्वर और उसका शाश्वत वचन।
बाइबल के अनुसार, यह समस्त सृष्टि, जिसे अभी तक वैज्ञानिक ठीक से देख और समझ नहीं पाए हैं, और जिसकी जटिलता तथा बारीकियों को लेकर आए दिन अचरज में पड़ते रहते हैं, परमेश्वर द्वारा बनाई गई है। अब यह कैसे संभव है कि परमेश्वर की रची गई सृष्टि उसके ही विरुद्ध गवाही देगी? सृष्टि का अध्ययन सृष्टिकर्ता परमेश्वर के अस्तित्व को ही नकार देगा? वरन, इसके विपरीत, सृष्टि तो अपने सृष्टिकर्ता के पक्ष में बताएगी; उसकी अद्भुत बुद्धिमता और कारीगरी की पुष्टि करेगी – यदि उसे ठीक से देखा, परखा, पहचान, और समझा जाए तो। यह बात बाइबल के साथ भी पूर्णतः लागू होती है। बाइबल अवैज्ञानिक नहीं है; और न ही सभी वैज्ञानिक बाइबल को गलत समझते हैं। तथ्य तो ये है कि संसार के महानतम वैज्ञानिकों में से अधिकांश, जैसे के न्यूटन, फैराडे, रॉबर्ट बॉयल, जेम्स मैक्सवेल, बाइबल पर विश्वास करते थे; वर्तमान सदी के भी अनेकों वैज्ञानिक मसीही हैं। विज्ञान की बातें बाइबल की बातों को गलत नहीं प्रमाणित करती हैं। परमेश्वर ने अपने वचन बाइबल में हजारों और सैकड़ों वर्ष पहले अनेकों बातें लिखवा दी थीं, जिन्हें विज्ञान ने बहुत बाद में, या कुछ समय पहले ही पहचाना है।
बाइबल में लिखी इन बातों को पहचानने में सहायक होने के लिए एक आधारभूत बात का ध्यान रखना होगा - जिस समय और जिन परिस्थितियों में बाइबल की पुस्तकें, अपने-अपने समय में लिखी गईं थीं, तब विज्ञान इस स्वरूप में नहीं था जैसा आज है, और न ही वैज्ञानिक शब्दावली, जो वर्तमान में होती है, प्रयोग हुआ करती थी। बाइबल की बातें सामान्य, साधारण लोगों के लिए लिखी गई थीं; ऐसे लोगों के लिए, जिनमें से बहुत ही कम शिक्षित होते थे, या कुछ गूढ़ समझने की क्षमता रखते थे। बाइबल की बातें उनके दिन-प्रतिदिन के जीवन और व्यवहार के संदर्भ में लिखी गई थीं, इसलिए उन बातों को लिखने के लिए उसी प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया है, जो उन लोगों के लिए सहज और समझ में आने वाली हो। बाइबल वैज्ञानिक सिद्धांत बताने या समझाने के दृष्टिकोण से लिखी गई विज्ञान की पुस्तक नहीं है। किन्तु फिर भी इन सीमाओं में भी परमेश्वर ने अपने वचन में ऐसी बहुत सी बातें लिखवाई हैं, जो जनसाधारण के लिए भी उपयोगी हैं, किन्तु उन में विज्ञान के रहस्य भी सांकेतिक अथवा प्रत्यक्ष रीति से लिखे गए हैं, और जिन्हें वर्तमान समय में पहचाना गया है, तथा बाइबल के ज्ञाताओं ने दिखाया है कि ये बाइबल में पहले से लिखा था। हम अगले लेख में ऐसी ही कुछ बातों को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
Introduction
There is a general misconception that the Bible and science do not agree with each other, and because what the Bible says are all fictional tales and baseless things therefore, they cannot stand up to science. If we stop and think for a moment about what science is, then a different picture emerges in front of us. Science is the study of the origin and functioning of our world and the universe, of all the workings and activities of everything that makes the universe. As new knowledge come to the fore through this study, the older things and concepts are reviewed, re-analyzed, and re-evaluated in the context of the new knowledge. Because of this science is always changing. What is true today, due to the discovery of some other thing or any other fact may become false and be changed to something different tomorrow. So many principles of science which were previously stated and taught as facts have changed, many have been discarded, others have been modified. So, science is never absolute, never final, and nothing it says can be taken as the “last word.”
But there is another, equally true, lesser known and even lesser accepted fact, that all the people who argue on the basis of the knowledge of science are neither honest nor unbiased, nor do so on basis of the truth. Nowadays the general thinking is to deny the existence of God and falsify the Bible, whichever way it can be done and to whatever extent it is possible. Therefore, many facts, discoveries, scientific information, which are in favor of God and the Bible, but against these popular beliefs and tendencies of denying God and the Bible, are suppressed, are not told and discussed, they are not given any prominence in reporting, and they are ignored as much as they can be. For example, search the Internet for "Evolution Hoaxes", and see for yourself about the deceits related to the theory of evolution, and you'll be amazed at how many lies are told in the name of science, how many things are hidden, how many facts are suppressed, and how by suppressing the facts, the false has been made prominent and has wrongly been passed on as “scientific truth”. Many such attempts have not only been made in the past, but they are still being made even today in many ways, to show this unscientific notion of “Evolution” as a proven “science”, although it is still called “The THEORY of Evolution” by the scientific community - implying it is not an established fact.
A few decades ago, the molecule was thought to be the smallest particle of matter; a short time later in place of the molecule the atom came to be called the smallest particle of matter. Then it was discovered that the atom is made up of three very small particles; And now the number of the small particles that make up the atom has increased to many more. At the same time, it has also come to be understood that these particles are not solid matter in themselves, but a form of energy. Now it is astonishing to the mind that we, and all the matter around us, whether it is solid, or liquid, or gas, does not consist of any solid or tangible ‘matter’, but is made up of a particular form and a manner of behavior of energy, which gives the appearance of matter. Now, how does that which is not ‘matter’, acquire the form and quality of matter in all its forms, and becomes the basic component of everything in the universe; i.e., how does energy change itself into matter? And that too all on its own, by itself, because “science” doesn't believe in the existence of God! Nevertheless, just because this is what science and scientists say, so the people of the world accept it, believe it as the absolute incontrovertible truth, and cannot even imagine any error in it. But if this same seemingly impossible thing had been written in the Bible, it would be ridiculed, criticized, and people would have had a lot of trouble believing it, accepting it. So, wouldn’t you agree that “science” is also a matter of personal belief?
It was also believed that the speed of light remains the same, does not change; And it was also believed that space is a vacuum or void in which light passes uninterrupted. But now it is known that the speed of light does not remain the same in every situation, it can change with a change in the medium it is travelling in. And it is now also known that space is not the vacuum or void that it was once thought to be, but there exist very fine particles in space that can affect the speed of light. So now what about the assumptions and theories that were made on the basis that the speed of light is always constant and space is a vacuum or void?
Medical science undergoes changes every day, and what were once considered established methods of treatment have undergone many changes, and no one accepts those old treatments anymore. Similarly, many things have changed in biology, physics and chemistry etc. Therefore, to assume that the sayings of science are always firm, final, unchanging, and are always true, is not true at all. The things of science do keep changing, often falsifying its own previous claims. There is only one that is eternal, steadfast, and unchanging - God and His eternal Word.
According to the Bible, all of this creation, which scientists have not yet been able to see in its entirety, or understand properly, and whose complexity, vastness, and finesse continues to astonish them by the day, has been created by God. Therefore, how is it possible that God's creation will testify against Him? Therefore, can the sincere and honest study of creation deny the existence of God the Creator? Rather, on the contrary, the creation will only speak in favor of its Creator; will attest to His astonishing intelligence and workmanship – if seen, evaluated, recognized, and understood properly. This also fully applies with the Bible. The Bible is not unscientific; Nor do all scientists misunderstand the Bible. The fact is that most of the world's greatest scientists, such as Newton, Faraday, Robert Boyle, James Maxwell, believed in the Bible; Many scientists of the present century are also Christians. The words of science do not prove the things of the Bible wrong. God had many things written in His Word, the Bible, thousands and hundreds of years ago, which science has only come to recognize much later, or just some time back.
Regarding scientific facts and things and the Bible, one fundamental thing has to be kept in mind while trying to understand the things written in the Bible, that at the time and in the circumstances in which the books of the Bible were written in their respective times, “science” was not existing in the form it is today, neither was scientific terminology present or in use, as it is today. The words of the Bible were written for the common, ordinary people; for people of whom very few were educated, and very few had the ability to understand anything complex. The words of the Bible were written in the context of those people’s day-to-day life and activities, hence the type of language that has been used to write those things, was that which was easy to understand and grasp by the people of those times. The Bible is not a book of science, nor was it written with a view to talk about or explain scientific principles. But still, even within these limits, God has written many scientific things in His Word, which not only are useful for the common man, but in them the secrets of science are also written in a symbolic or an indirect way, or even directly. And these things have been recognized in the present time by the Biblical scholars, who have made evident what was already written in the Bible, but recognized by “science” much later. We will look at some of these things in the coming articles.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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