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अन्य प्राचीन सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के धार्मिक लेखों की तुलना में बाइबल - भाग - 4
बाइबल अपने आप में अनुपम है, यह संसार के कैसे भी, कहीं के भी, कभी के भी, किसी के भी द्वारा लिखे गए धार्मिकता संबंधी लेखों से बिलकुल भिन्न और अतुल्य है; क्योंकि यह ऐसी पुस्तक नहीं है जिसे ज्ञान के लिए पढ़ा जाता है, वरन यह परमेश्वर का जीवित वचन है जो अपने पाठक के जीवन को पढ़ता है और उसके जीवन को उसके सामने अन्दर-बाहर संपूर्णतः खोल कर रख देता है। यह किसी धर्म से संबंधित पुस्तक नहीं है, वरन यह पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु में विश्वास करने तथा यह स्वीकार कर लेने से संबंधित है कि प्रभु यीशु ने अनंत उद्धार का एकमात्र संभव मार्ग एक ही बार में सदा के लिए उपलब्ध करवा दिया है। बाइबल ऐसे अनेकों व्यक्तित्वों के बारे में नहीं है जिन्हें यद्यपि ईश्वरीय गुणों वाला माना जाता है फिर भी जिनमें बताया गया है कि उन में परस्पर अहंकार से संबंधित तथा भावनात्मक समस्याएँ हैं, जिनमें परस्पर एक-दूसरे पर वर्चस्व और सामर्थ्य प्रमाणित करने की स्पर्धा देखी जाती है, जो मनुष्यों से उपासना पाने की होड़ में रहते हैं, जो मादक पेय और पदार्थों का सेवन करते हैं, तथा कामुक भावनाएं जागृत करने वाली गतिविधियों में आनन्द लेते हैं – अर्थात वे सभी बातें पाई जाती हैं जिन्हें मनुष्यों को करने के लिए मना किया जाता है जिससे मनुष्य धर्मी और भला बन सके। और इन ईश्वरीय गुणों वाले व्यक्तित्वों द्वारा मनुष्यों के पवित्र हो जाने के लिए निर्धारित धर्म के कामों, रीतियों, अनुष्ठानों, तपस्याओं आदि के करने पर भी ये व्यक्तित्व कभी यह देखने को तैयार नहीं होते हैं कि कोई भी मनुष्य किसी प्रकार से उनके समान या उनके स्तर तक पहुँच सके। यदि कोई मनुष्य कभी अपने किसी प्रयास से उनके स्तर के निकट पहुँचने लगता है तो तुरंत ही षड्यंत्र बनाए और कार्यान्वित किए जाते हैं जिससे वह मनुष्य किसी प्रकार से पाप में गिरकर फिर से नाशमान अस्तित्व में पहुँच जाए। वरन, बाइबल उस एकमात्र सच्चे और सिद्ध पवित्र परमेश्वर के बारे में है जो बुराई के साथ रहना या समझौता करना तो बहुत दूर की बात है, उसे देख भी नहीं सकता है, “तेरी आंखें ऐसी शुद्ध हैं कि तू बुराई को देख ही नहीं सकता, और उत्पात को देखकर चुप नहीं रह सकता; फिर तू विश्वासघातियों को क्यों देखता रहता, और जब दुष्ट निर्दोष को निगल जाता है, तब तू क्यों चुप रहता है?” (हबक्कूक 1:13)। परन्तु फिर भी वह पतित मानव जाति से इतना प्रेम करता है कि उसे बचा कर पुनः उसी सिद्ध स्वरूप में, जिसमें उसने मनुष्य को रचा था, लाना चाहता है, “फिर परमेश्वर ने कहा, हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं; और वे समुद्र की मछलियों, और आकाश के पक्षियों, और घरेलू पशुओं, और सारी पृथ्वी पर, और सब रेंगने वाले जन्तुओं पर जो पृथ्वी पर रेंगते हैं, अधिकार रखें। तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया, नर और नारी कर के उसने मनुष्यों की सृष्टि की। और परमेश्वर ने उन को आशीष दी: और उन से कहा, फूलो-फलो, और पृथ्वी में भर जाओ, और उसको अपने वश में कर लो; और समुद्र की मछलियों, तथा आकाश के पक्षियों, और पृथ्वी पर रेंगने वाले सब जन्तुओ पर अधिकार रखो” (उत्पत्ति 1: 26-28); “परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18), और उसके लिए प्रावधान भी कर दिया है। यह वह पुस्तक है जो प्रोत्साहित करती है कि सारे संसार में जाकर मानव जाति के हित के सुसमाचार को सभी को बताया जाए, न कि मनुष्यों के लिए लाभकारी बातों को अपने तक सीमित कर के, छुपा कर रखा जाए, जिससे कि उनसे फिर लोगों से लाभ उठाया जाए या शोषण किया जाए।
बाइबल इस लिए भी संसार की किसी भी पुस्तक या लेख से अनुपम तथा अतुल्य है क्योंकि यह:
· मनुष्य द्वारा अपने लिए अर्जित किए गए नाशमान लाभ के बारे में नहीं, वरन उस अनन्त जीवन तथा स्वर्गीय आशीषों के बारे में है जिन्हें परमेश्वर ने अपने प्रेम और अनुग्रह में मानव जाति को बिना किसी कीमत के प्रदान करना प्रस्तावित किया है।
· लोगों को वर्गों और जातियों में बाँट कर उन्हें विभाजित कर के पृथक रखने के बारे में नहीं, वरन सभी लोगों को उद्धार तथा नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की एक समान संतान बनाकर परमेश्वर के परिवार में एक करके जोड़ देने के बारे में है।
· सांसारिक साम्राज्यों को स्थापित करने तथा औरों पर प्रभुता करने के बारे में नहीं, वरन प्रभु यीशु के समान नम्रता और प्रेम के साथ औरों की सहायता और सेवा करने के बारे में है।
· संघर्षों और युद्धों को जीतने के बारे में नहीं, वरन दिलों को जीतने तथा लोगों के हृदयों में परमेश्वर के सिंहासन को लगाने के बारे में है।
· नाश्मान वस्तुओं के ज्ञान को प्राप्त करने और उनमें उन्नत होने के बारे में नहीं, वरन उद्धार पाने – परमेश्वर के प्रेम और अनुग्रह से एक ही बार सदा काल के लिए पाप के दुष्परिणाम से बचाए जाने के बारे में है;
· क्योंकि यह सृजी गई वस्तुओं के बारे में नहीं, वरन सृजनहार प्रभु परमेश्वर के बारे में है जो मानवजाति को बचाने के लिए मनुष्य बन गया;
· पापियों का नाश करने के बारे में नहीं, वरन उनसे प्रेम करने और उन्हें एक ही बार में अनन्तकाल के लिए बचा लेने के बारे में है।
इसलिए, बाइबल की तुलना संसार के किसी भी अन्य लेख से कर के बाइबल को गौण दिखाने का प्रयास करना ऐसे है जैसे रॉकेट विज्ञान पर एक उच्च प्रशंसा एवं मान्यता प्राप्त पाठ्य-पुस्तक को लेकर उसका इसलिए तिरस्कार कर के उसे एक ओर रख दिया जाए, क्योंकि उस पुस्तक में वर्णमाला के “क, ख, ग, घ...’ और बच्चों की कविताओं के सीखने के बारे में कुछ नहीं लिखा गया है – बाइबल को लेकर ऐसा कोई भी विश्लेषण करने, कोई भी ऐसी तुलना करने या इस प्रकार का कोई भी निष्कर्ष निकालने के लिए कोई आधार है ही नहीं, कदापि नहीं।
संसार का कोई भी ज्ञान, कोई भी लेख, कभी बाइबल के कहीं भी निकट नहीं पहुँच सकता है क्योंकि बाइबल ही एक मात्र स्वर्ग की पुस्तक है, जो पृथ्वी के मनुष्यों को उनके छुटकारे के लिए प्रदान की गई है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Bible, in Comparison to the Religious Writings of Other Ancient Civilizations & Cultures - Part - 4
The Bible is unique, is different and incomparable in any manner to any religious writings of any people, anywhere in the world, ever; since it is not a book to be read for knowledge, rather it is the Living Word of God that reads and lays bare the life of the reader, through and through. It is not a book of religion, but of repentance from sins and faith in the Lord Jesus, of accepting and believing that He has provided once and for all the only possible way to eternal salvation. The Bible is not about the activities and behavior of a myriad of personalities to whom though divinity has been ascribed, but yet it is stated that they go around mutually having ego related and emotional issues, seeking and plotting superiority and power over each other, vying with each other for receiving human worship, being involved in the use of intoxicating and inebriating substances and drinks, and in lustful activities – i.e. all the things that human beings are asked not to be involved in so that they can be righteous and good, are found in them. And despite all the religious works, rites, rituals, penances etc. prescribed for humans by these divine personalities to attain holiness, they are not in the least ready to see that any human ever attains to their level and stature. If perchance anyone through their efforts comes anywhere near reaching near to them, conspiracies are hatched and executed to ensure their downfall into sin and mortal existence. Rather, The Bible is about the one true and perfectly Holy God that cannot even see evil “You are of purer eyes than to behold evil, And cannot look on wickedness. Why do You look on those who deal treacherously, And hold Your tongue when the wicked devours A person more righteous than he?” (Habakkuk 1:13), let alone live with it or compromise with it. But He loves the fallen humanity so much that He wants to redeem them and restore them into His image, the image that He had created them in, “Then God said, "Let Us make man in Our image, according to Our likeness; let them have dominion over the fish of the sea, over the birds of the air, and over the cattle, over all the earth and over every creeping thing that creeps on the earth." So God created man in His own image; in the image of God He created him; male and female He created them. Then God blessed them, and God said to them, "Be fruitful and multiply; fill the earth and subdue it; have dominion over the fish of the sea, over the birds of the air, and over every living thing that moves on the earth."” (Genesis 1:26-28); “But we all, with unveiled face, beholding as in a mirror the glory of the Lord, are being transformed into the same image from glory to glory, just as by the Spirit of the Lord”; 2 Corinthians 3:18), and has provided the way for this to be done. It is the book that exhorts to go out into the whole world to spread the good news for the benefit of mankind at every place, rather than being possessive, secretive and exploitative about things beneficial for mankind.
The Bible is also incomparable to any other text or writing anywhere in the world since it not about:
· the temporal and perishing gains that man accrues for himself, but about the eternal life and heavenly blessings that God in His love and grace has freely offered to mankind.
· dividing and keeping the people apart by segregating them into classes and castes, but it is about uniting all people as one, as the equal, saved and Born Again children of God into God’s family.
· establishing worldly kingdoms and dominating others, but about the heavenly kingdom of God and reaching out to help and serve others in humility and love like the Lord Jesus.
· winning strifes and wars, but about winning hearts and establishing God’s throne in the hearts of people.
· gaining and excelling in knowledge about temporal things, but about receiving salvation – being saved by the love and grace of God once and for all from sin and its consequences for all eternity;
· the created things, but about the very Creator Lord God who became man to save mankind;
· destroying the sinners, but about loving and saving them for eternity once and for all.
So, looking down upon the Bible through trying to compare it to any other writings of the world is like taking up a highly acclaimed textbook on Rocket Science and then rejecting it, putting it away, simply because it says nothing about learning the alphabets and nursery rhymes – there simply are no grounds, none whatsoever, for any such analysis, comparisons or for drawing any such conclusions related to the Bible.
No knowledge, no writing of earth can ever attain to it, since The Bible is the one and only Book of Heaven, given for the deliverance of people of the earth.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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