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मंगलवार, 20 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 39b – Branch Cast Away / कटी हुई डाली - Part 2



क्या यूहन्ना 15:1-6 की काट डाली गई डाली विश्वासी के “काट डाले” जाने और नाश हो जाने को दिखाती है? - भाग 2

 2. पद का उसके सन्दर्भ के साथ विश्लेषण:

बाइबल अध्ययन के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर, अब हम अपने मुख्य पद - यूहन्ना 15:2 का विश्लेषण करते हैं, और देखते हैं कि हम इस में से क्या जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, कि यह पद वास्तव में क्या कह रहा है। 

इन बातों पर ध्यान दीजिए:

  • यहाँ पर प्रभु यीशु अपने शिष्यों को संबोधित कर रहा है। यहूदा इस्करियोती उन्हें छोड़ कर जा चुका है (यूहन्ना 13:30), और प्रभु भी अपने शेष शिष्यों के साथ उस स्थान से जहाँ पर उन्होंने फसह का भोज खाया था, निकल चुका है (यूहन्ना14:31)। इसलिए इस समय जब यह वार्तालाप हो रहा है, झूठा शिष्य और धोखा देने वाला यहूदा इस्करियोती वहाँ उनके साथ नहीं है।

  • यह पद, यूहन्ना 15:2, प्रभु यीशु के द्वारा विशेषतः उन्हें कहा गया है जिन पर “जो डाली मुझ में है” पूरा होता है – अर्थात, वह डाली जो प्रभु के साथ पूर्णतः जुडी हुई है, केवल ऊपरी रीति से या दिखाई देने भर को साथ रहने वाली नहीं है, किन्तु उसका भाग है, उससे सामर्थ्य प्राप्त कर रही है।

  • हम यूहन्ना 15:4-5 से सीखते हैं कि डाली और ये शिष्य एक ही हैं।

  • फिर यूहन्ना 15:3, एक बार फिर से इन शिष्यों को "शुद्ध" कहता है; वह इससे पहले भी यूहन्ना 13:10-11 उन से यही बात कह चुका है, और वहां पर उसने संकेत किया था कि उसे धोखा देकर पकड़वाने वाला शुद्ध नहीं था, किन्तु शेष शिष्य शुद्ध थे। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद "शुद्ध" किया गया है, वह शब्द है  "katharos (कैथरोस)" जिसका एक शब्दार्थ “शुद्ध" भी होता है। अब ध्यान कीजिए, यदि इस समय यहूदा इस्करियोती उनके साथ वहां पर होता तो यह और इससे पहले वाली बात झूठी हो गई होती, क्योंकि यहूदा वास्तव में “शुद्ध” या प्रभु से उस तरह से अंतरंग रीति से नहीं जुड़ा हुआ था जैसे कि शेष शिष्य थे, उसकी “डाली” के समान।

  • इसकी तुलना यूहन्ना 15:6 से कीजिए, जो उस डाली के लिए है जो देखने में तो प्रभु के साथ जुड़ी है, किन्तु वास्तव में प्रभु में नहीं है – ऐसी डाली का तिरस्कार किया जाता है, उसे निकाल कर फेंक दिया जाता है और वह सूख जाती है, जैसे कि यहूदा इस्करियोती - जो प्रभु के साथ तो था किन्तु कभी भी प्रभु में नहीं था, कभी प्रभु में बना नहीं रहा।

इस प्रकार से, इस प्रारंभिक विश्लेषण के द्वारा हम सीखते हैं कि यह वार्तालाप प्रभु यीशु और उसके “शुद्ध” या सच्चे शिष्यों के मध्य हुआ है, जो उस में बने रहते हैं; प्रभु ऐसे शिष्यों को अपनी डालियाँ कह रहा है, और स्वयं को सच्ची दाखलता। इनमें विनाश का पुत्र यहूदा इस्करियोती सम्मिलित नहीं है, वह पहले ही बाहर हो चुका है।

 

इसलिए, यदि यूहन्ना 15:2 इसका समर्थन करता है कि उद्धार खोया जा सकता है, तो इसका तात्पर्य हुआ कि जितने भी शुद्ध हैं और वास्तव में प्रभु यीशु में बने हुए हैं, वे भी नरक में जा सकते हैं। इसका अर्थ हुआ कि यीशु के यह कहने का कि शिष्य शुद्ध हैं, और उसमें हैं, का कोई महत्त्व नहीं है - “शुद्ध” शिष्य और यहूदा इस्करियोती सभी एक ही स्तर पर हैं, समान भाग्य भोगने की संभावना रखते हैं। इसका यह भी तात्पर्य हुआ कि परमेश्वर पुत्र हमें जो देने के लिए आया था - अनन्त जीवन, परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप किया हुआ जीवन, जो अनन्त काल तक परमेश्वर के साथ स्वर्ग में बिताया जाएगा उसके लिए न तो कोई निश्चित आश्वासन दे सकता है, और न ही उस दावे को बना के रख सकता है। और, हमें अभी भी उस जीवन को पाने के लिए स्वयं ही काम ही करना पड़ेगा, उसे अपनी योग्यता और क्षमता द्वारा ही प्राप्त करना पड़ेगा, न कि प्रभु यीशु ने हमारे लिए जो किया है, उसके द्वारा - जो कि एक बिलकुल व्यर्थ और अस्वीकार्य तर्क है। अर्थात, हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय, और प्रभु यीशु के स्वर्ग छोड़ कर पृथ्वी पर आने का उद्देश्य, अभी भी उसके कार्य पर निर्भर नहीं है, परन्तु हमारे अपने कार्यों और प्रयासों पर आधारित है। तो फिर, जब प्रभु यीशु, जो उसने किया है, उसके परिणाम को सुनिश्चित नहीं कर सकता है, और अपने शिष्यों को शैतान और उसकी दुष्टता की युक्तियों से सुरक्षित नहीं रख सकता है, तो फिर प्रभु के आने और जो कुछ उसने सहा और किया उस सब का क्या अर्थ और महत्व रह गया?

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


- क्रमशः


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Does the Branch Cast Away in John 15:1-6 show that a Believer can be “Cut-Off” and be Destroyed? - Part 2

 2. Analyze the verse in its context:

Based on the basic principles of Bible study and interpretation, let us now analyze our lead verse - John 15:2 and see what information we can gather from it, about what it is actually saying. 

Consider the following points:

  • The Lord Jesus is addressing His disciples here. Judas Iscariot has already left them and gone (John 13:30), and the Lord Jesus with His remaining disciples has departed from the place where they ate the Passover feast (John 14:31). So at this time, when this conversation is happening, the betrayer and the false disciple, Judas Iscariot is not with them.

  • This verse, John 15:2, is specifically addressed by the Lord Jesus to “the branch in Me” – i.e., the particular branch that already is in the Lord, not just superficially attached, but part of Him and drawing strength from the Lord.

  • From John 15:4-5 we learn that the branches and these disciples, are one and the same.

  • In John 15:3, the Lord once again calls the disciples "clean"; He had already done this once in John 13:10-11, and had indicated that His betrayer was not “clean” but the other disciples were. The original Greek language word translated "clean" is "katharos" which can also mean "pure". Notice that this and the previous points would have become false if Judas Iscariot had been with them at that time, since Judas was neither really “clean” nor actually attached to the Lord, as the other disciples were, as His “branch.”

  • Contrast this with John 15:6 which is about a branch that is apparently with the Lord, but not actually IN the Lord – this one is rejected, thrown away and withers away, e.g., Judas Iscariot - who was with Lord, but was never "IN the Lord", did not “abide” in the Lord.

From this preliminary analysis we learn that this conversation is between the Lord Jesus and the “clean” or true disciples who abide in the Lord; The Lord is addressing such disciples as His branches, while He Himself is the true Vine. Judas Iscariot - the son of perdition, has already been excluded.


So, if John 15:2 supports salvation can be lost, it means that those who are clean and IN the Lord Jesus, can still go to hell. This implies that Jesus's statement of the disciples being in Him, and being clean, doesn't actually mean much - the “clean” disciples and Judas Iscariot are at the same level, prone to the same fate. It also means that God the Son cannot ensure and maintain what He claims He has come to give us - eternal life, a life reconciled with God, spent with God in heaven; and we will still have to work for it, get it through our own ability and efforts, not through what the Lord Jesus has done for us - a patently absurd and unacceptable argument. So, the most important decision of our lives, and about the very purpose for which the Lord Jesus left heaven and came to earth for, is still not dependent upon Him, but upon our own works and efforts. Then, why did the Lord Jesus suffer all that He did, and do what He did, if He cannot ensure its outcome and keep His disciples safe from the devil and his devious ploys? Of what importance, if any, is it at all?


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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