परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 16
जैसा हमने पिछले लेख में देखा है, परमेश्वर के वचन के कुछ गुण और उद्देश्य हैं, और यदि वचन को परमेश्वर के पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य के साथ उसके निर्धारित उद्देश्य के लिए उपयोग किया जाता है, तब ये गुण और उद्देश्य दिखाई भी देते हैं। हमारे विषय, परमेश्वर के वचन के “बाहर जाना” के संदर्भ में, हमें इन गुणों और उद्देश्यों का ध्यान रखना अनिवार्य है – परमेश्वर का वचन एक तलवार के समान हृदय को गहराई से छेदने और वहाँ छिपी हुई पापमय बातों को उजागर करने के लिए है; उसका उपयोग मण्डली के लोगों में उन्हें सुधरने और धार्मिकता की शिक्षा दिए जाने के लिए किया जाना है, और यदि आवश्यक हो तो इसके लिए डाँटना और उलाहना देना भी किया जाना चाहिए। जब तलवार को उसके निर्धारित उद्देश्य के लिए उपयोग किया जाता है, तो वह हमेशा ही पीड़ादायक होता है, वह काटती और छेदती है। इसलिए, यदि परमेश्वर का वचन कहीं चुभ नहीं रहा है, जीवन की कोई कमजोरी या कमी या पाप को उजागर नहीं कर रहा है, सुनने वालों को उनके भीतर की, उनके मन और विचारों की वास्तविक दशा का बोध नहीं करवा रहा है, तो फिर वह अपने निर्धारित उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा है; और तब ऐसे किसी भी प्रचार या शिक्षा को स्वीकार करने और मानने के प्रति बहुत सतर्क रहना चाहिए। यदि प्रचारक अथवा शिक्षक बाइबल के अनुसार सही शिक्षाएँ नहीं दे रहा है, और यदि आवश्यक होने पर भी डाँटने और उलाहना देने का उपयोग नहीं कर रहा है, तो फिर उस प्रचारक पर भरोसा करना, उसका अनुसरण करना गलत होगा।
परमेश्वर के वचन को “स्वादिष्ट” और सहज बनाने के लिए, ये “बेचने” वाले प्रचारक वचन की चुभने वाली बातों को निकाल देते हैं, और उनके स्थान पर प्रसन्न करने वाली मनोहर बातें डाल देते हैं। इस प्रकार से वे परमेश्वर के लिखित वास्तविक वचन के “बाहर” चले जाते हैं, उसकी गलत व्याख्या और दुरुपयोग करने, तथा उसमें अपने ही विचार डाल देने, उसे श्रोताओं को भावता हुआ बनाने के द्वारा। ऐसे प्रचारक और उनकी शिक्षाएँ संभवतः श्रोताओं द्वारा बहुत पसन्द की जाएँगी, उनकी प्रशंसा की जाएगी; और प्रचारक को अच्छे उपहार तथा पैसा भी मिलेगा, तथा साथ ही सिफारिश के पत्र भी दिए जाएंगे, जिनका उपयोग ये लोग अपनी बड़ाई और प्रचार के लिए तथा फिर किसी अन्य कलीसिया में जाकर इसी प्रक्रिया को दोहराने के लिए करेंगे। लेकिन क्योंकि परमेश्वर के वचन के द्वारा श्रोताओं की वास्तविक पापमय दशा उजागर करके उन पर प्रकट नहीं की गई, और न ही श्रोताओं का सामना उनके पापों और बुराइयों से करवाया गया, इसलिए वे अपने पापों के लिए कायल भी नहीं होंगे। और इसीलिए फिर वे अपने पापों के लिए पश्चाताप करने, और उद्धार पाने के लिए उभारे भी नहीं जाएंगे (प्रेरितों 2:37-38)। इसलिए ऐसा प्रचार, उसे सुनने वालों के उद्धार के सन्दर्भ में, व्यर्थ ठहरेगा; और ऐसे संदेशों को सुनने के बाद भी वे लोग नरक के उतने ही भागी बने रहेंगे, जितना वे उस सन्देश को सुनने से पहले थे।
यह समस्या केवल तब ही नहीं थी, लेकिन आज भी है, उससे कहीं अधिक प्रचलित नहीं तो कम से कम उतनी ही गंभीर तो है ही। आज के समय के पास्टरों, परमेश्वर के वचन के प्रचारकों और शिक्षकों का मुख्य उद्देश्य रहता है कि किसी भी तरह से मण्डली के लोगों को बुरा न लगे, ठेस न पहुँचे। यह और भी अधिक तब किया जाता है जब वह प्रचारक कलीसिया के बाहर कहीं से आमंत्रित किया गया होता है। तब ये लोग वही कहते हैं जो लोग सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर वे प्रसन्न होते हैं (2 तीमुथियुस 4:3-4)। परमेश्वर के वचन को “बेचने” वाले ये लोग पार्थिव आशीषों, साँसारिक समृद्धि, शारीरिक चंगाइयों, भौतिक आश्चर्यकर्मों, उज्ज्वल भविष्य की प्रतिज्ञाओं, आदि की बातें करेंगे, लेकिन वे पाप, पाप से पश्चाताप, उद्धार पाने और अनन्त विनाश से बचने की अनिवार्यता – जिस उद्देश्य के लिए प्रभु यीशु मसीह पृथ्वी पर आया था, आदि के बारे में बात नहीं करेंगे।
थोड़ा विचार कीजिए, “बेचने” वाले ये पास्टर, प्रचारक, शिक्षक जितनी भी भौतिक, पार्थिव, शारीरिक, साँसारिक बातों की बातें करते हैं, ऐसी बातें जो श्रोताओं को अच्छी और “स्वादिष्ट” लगें, वे सभी बातें एक न एक दिन सँसार के साथ या तो नाश हो जाएँगी, अथवा मृत्यु के बाद यहीं पीछे छूट जाएँगी। उस व्यक्ति के साथ जो एकमात्र बात जाएगी, वह है उसके जीवन का हिसाब-किताब, उसके पापों का लेखा-जोखा – वे पाप या तो विद्यमान हैं, कार्यकारी हैं, और उसे अनन्तकाल के विनाश में डालने वाले हैं; या फिर प्रभु यीशु मसीह में विश्वास लाने के द्वारा उनका निवारण हो गया है, वे निष्क्रिय कर दिए गए हैं, क्षमा हो गए हैं। तो फिर, ऐसे संदेशों को सुनने वालों के लिए, उन प्रचारकों के ये परमेश्वर के वचन के “बाहर” होकर, मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए दिए जाने वाले इन सन्देशों से क्या लाभ होगा, यदि श्रोता अपने पापों के लिए कायल नहीं किए गए, उन्होंने अपने पापों के लिए पश्चाताप नहीं किया, और वे प्रभु यीशु मसीह को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता ग्रहण करने के द्वारा बचाए नहीं गए?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 16
As we have seen in the previous article, the Word of God has certain characteristics and purposes, that become evident when it is used under the guidance and power of the Holy Spirit, for its intended purpose. In context of our understanding “going beyond” God’s Word, we need to keep these characteristics of God’s Word in mind – it is like a sword meant to cut deep into the heart and expose the sinful things hidden there; and it is meant to be used amongst the congregation to correct them and instruct them in righteousness, if required through rebuking and exhorting as well. A sword when used for its intended purpose, always causes pain, and always cuts and penetrates. So, if God’s Word is not creating any discomfort by touching upon sin and short-comings in one’s life, is not making the listeners aware of the actual condition of their hearts and minds, then it is not serving its purpose, because it is not being used for its intended purpose, and one should be very wary of believing on any such preaching. If the preacher or teacher is not teaching Biblically correct doctrines, and if required, is not resorting to rebuking and exhortation to teach the correct things of God, then that preacher is not to be trusted upon and followed.
To make God’s Word “palatable” and convenient, these peddling preachers take away the prickly parts of the Word, and substitute them with pleasing and pleasant things in their preaching and teaching. Thus they “go beyond” what God’s Word actually says, by misinterpreting it, misusing it, adding their own ideas to it, and make it sound pleasing to the audience. These preachers and their messages would most likely be well appreciated and applauded by the listeners; and the preacher would likely get good gifts and money, and would also be given letters of recommendation, which they will use to promote themselves and then repeat the same process in some other Church. But since, the actual inner sinful state of the audience has not been penetrated into and exposed by God’s Word, nor have the audience been brought face-to-face with their wrongs and sins, so, they are not convicted for their sins. Therefore, they are not motivated into repentance for their sins, and seeking salvation (Acts 2:37-38). Hence, such preaching will bring no results in terms of salvation of the listeners, and even after hearing and appreciating such messages, they would still remain as hell-bound, as they had been before listening to it.
This problem was not only present at that time, but even today, it is at the very least, just as prevalent, if not much more rampant than it was in the first Church. The main aim of most of the present-day pastors, preachers, and teachers of God’s Word, is not to offend the congregation in any way. This is done even more if they have been called “guest or invited” speakers, from outside the Church. They say things that the congregation likes to hear and is pleased to hear (2 Timothy 4:3-4). The peddlers of God’s Word will talk of temporal blessings, material prosperity, physical healings, worldly miracles, promises of a great future, etc. but will stay away from talking about sin, need of repentance for sin, and necessity of salvation, to escape eternal damnation – the very purpose the Lord Jesus Christ came to earth for.
Think it over, every worldly thing that these peddling pastors, preachers, and teachers talk about, to sound good and palatable to the audience, will eventually perish with the world, or be left behind when the person dies. The only thing that will go with that person, for accountability before God is the record of their lives, their record of sins – either as present, active and eternally lethal; or, as disposed off, forgiven, and rendered ineffective through coming to faith in the Lord Jesus. So, of what benefit has this “going beyond” God’s Word and being pleasers of men been to those who heard and appreciated those messages, but were not convicted of their sins, did not repent from them, and did not get saved by accepting the Lord Jesus as their savior?
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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