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सोमवार, 27 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 93 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 22

 

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पवित्र आत्मा से सीखना – 2

 

    प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी उसे परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए प्रावधानों का भण्डारी भी है; और परमेश्वर के उन प्रावधानों में से एक है परमेश्वर पवित्र आत्मा जो विश्वासी में उसके उद्धार पाने के पल से निवास करने लगता है। विश्वासी को पवित्र आत्मा उसका सहायक और साथी होने के लिए, उसे परमेश्वर का वचन सिखाने, उसका मार्गदर्शन करने के लिए दिया गया है जिस से वह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई सेवकाई का सही निर्वाह कर सके। आज, पवित्र आत्मा के बारे में बहुत सारी गलत शिक्षाएँ और धारणाएँ व्याप्त हैं। जब तक कि परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में बाइबल के अनुसार सही तथ्य व्यक्ति के पास नहीं होंगे, तब तक वह परमेश्वर द्वारा उसे उपलब्ध करवाए गए पवित्र आत्मा की सहायता, मार्गदर्शन, और सामर्थ्य का सही और उचित उपयोग नहीं करने पाएगा। पवित्र आत्मा से संबंधित मुख्य शिक्षाएँ यूहन्ना रचित सुसमाचार के 14 से 16 अध्याय में, जो प्रभु यीशु के क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले शिष्यों के साथ किया गया अंतिम वार्तालाप का भाग है, में मिलती हैं। पिछले कुछ समय से हम यूहन्ना 14:17 से सीख रहे हैं, और हाल ही में हमने सँसार के उसे न जान पाने किन्तु प्रभु के शिष्यों के उसे जानने के बारे में सीखना आरंभ किया है। इस संदर्भ में, पिछले लेख से हमने पवित्र आत्मा से परमेश्वर के वचन को सीखने के बारे में सीखना आरंभ किया है।


    हमने देखा है कि परमेश्वर ने हमें अपना वचन इसलिए नहीं दिया है कि वह एक रहस्यमयी, बँद पुस्तक हो; वरन हमारे उसे पढ़ने और सीखने के लिए दिया है। परमेश्वर स्वयं हमें उसे सिखाना चाहता है, यदि हम उस से सीखने के लिए तथा उसकी शिक्षाओं का पालन करने के लिए तैयार हों, तो। परमेश्वर पवित्र आत्मा के दिए जाने का एक उद्देश्य है कि वह परमेश्वर की सँतानों को परमेश्वर का वचन सिखाए। किन्तु प्रत्येक विश्वासी के लिए इस में धोखा खाने का एक कारण है कि यदि वे पवित्र आत्मा से परमेश्वर का वचन सीखने का यत्न करने की बजाए, सरल रीति से किसी मनुष्य अथवा पुस्तकों पर निर्भर हो जाएँ। तब तो शैतान के पास गलत शिक्षाओं को लाने का पूरा अवसर उपलब्ध होगा, और वह इस अवसर का भरपूरी से उपयोग करता है, मसीही विश्वासियों को गलत शिक्षाओं, सिद्धांतों, और अनुचित व्ययवाहरिक उपयोग में फँसा देता है। पिछले लेख में हम तीन मुख्य कारणों पर आ कर रुके थे, जिनके कारण मसीही विश्वासी परमेश्वर पवित्र आत्मा से परमेशर के वचन को सीखने में बाधित अनुभव करता है। इन तीन कारणों के महत्व को हम साँसारिक शिक्षा को प्राप्त करने के उदाहरण से समझ सकते हैं; क्योंकि साँसारिक शिक्षा अर्जित नहीं कर पाने के लिए भी, और आत्मिक शिक्षाएँ प्राप्त न कर पाने तथा पवित्र आत्मा से वचन नहीं सीख पाने में यही तीनों कारण समान रीति से लागू होते हैं। आज हम इन तीन में से पहले कारण को देखेंगे।


    मसीही विश्वासी के पवित्र आत्मा से सीख नहीं पाने का पहला कारण है उस के अंदर, दोनों, मात्रा और गुणवत्ता में, परमेश्वर के वचन की घटी होना। हम साँसारिक शिक्षा के अपने अनुभव से यह भली-भाँति जानते हैं कि विद्यार्थी जितना अधिक अपने विषय को पढ़ता और सीखता है, और जितना अधिक वह उन शिक्षाओं को अपने अंदर समावेश कर लेता है, दोनों, मात्रा और गुणवत्ता में, वह अपनी परीक्षाओं में उतना ही बेहतर करने पाता है तथा व्यावाहरिक जीवन में जहाँ भी उन शिक्षाओं की आवश्यकता होती है, उनका अच्छे से उपयोग करने पाता है। यह कर पाने के लिए, विद्यार्थी को अपनी पाठ्य-पुस्तकों को बारंबार पढ़ते रहना होता है, संबंधित प्रश्न-उत्तर के कार्यों को करना होता है, और जो पढ़ा है, उस पर औरों के साथ चर्चा करनी होती है। जितने भी लोग व्यक्तिगत रीति से और यत्न से यह सब नहीं करते हैं, वे कभी भी विषय को सीखने नहीं पाते हैं। एक बार पढ़ लेने से, या कभी-कभी यहाँ-वहाँ से पढ़ लेने से, या केवल शिक्षक द्वारा दिए जाने वाले व्याख्यान को अथवा किसी और के द्वारा पढ़े जाने को सुन लेने भर से कभी भी कोई भी विषय-वस्तु को ठीक से और सच में सीख नहीं सकता है।


    ठीक यही बात परमेश्वर के वचन को सीखने पर भी ऐसे ही लागू होती है। पवित्र आत्मा के द्वारा शिष्यों को सिखाने के बारे में प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई कुछ बातों पर विचार कीजिए: प्रभु ने यूहन्ना 14:26 में कहा, “...वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा, और जो कुछ मैं ने तुम से कहा है, वह सब तुम्हें स्मरण कराएगा।” ध्यान देने योग्य पहली बात है कि पवित्र आत्मा प्रभु के शिष्यों को “सब बातें सिखाएगा”; इसे 2 पतरस 1:3 के साथ मिला कर देखें – जीवन और भक्ति से संबंधित सभी बातें विश्वासियों को पहले ही दे दी गई हैं, और इस से हमारे सामने परमेश्वर पिता के द्वारा अपने बच्चों के सीखने के लिए बनाया गया, हर संभव बात का समावेश करने वाला एक व्यापक पाठ्यक्रम आ जाता है, जिस में इस पृथ्वी पर और उसके बाद भी हमें जो कुछ भी चाहिए, वह सभी तैयार कर के रखा गया है, और जिसे सर्वोत्तम संभव शिक्षक – स्वयं परमेश्वर, हमें सिखाना चाहता है।


    यहाँ पर ध्यान देने योग्य दूसरी बात है कि प्रभु ने कहा कि पवित्र आत्मा “जो कुछ मैं ने तुम से कहा है, वह सब तुम्हें स्मरण कराएगा”, अर्थात, पवित्र आत्मा द्वारा सिखाए जाने की विधि होगी, विश्वासी के सामने आने वाली प्रत्येक परिस्थिति, प्रत्येक बात से संबंधित वचन में दी गई प्रभु की बातों का ध्यान करवाना, उन बातों को याद दिलाना, और इसकी पुष्टि प्रभु ने एक बार फिर से यूहन्ना 16:14-15 में भी की। यहाँ पर यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र, पुराना नियम भी प्रभु यीशु के बारे में बात करता है (लूका 24:47; यूहन्ना 5:39, 46)। प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी के सेवकाई के दिनों में, अपनी अन्य शिक्षाओं के अतिरिक्त, उन के बारे में पुराने नियम पवित्र शास्त्र में दी गई बातों को भी अपने शिष्यों को समझाया और सिखाया था (पहाड़ी उपदेश – मत्ती 5-7 में दिए और सिखाए गए सपष्टीकरण; मरकुस 4:34; मरकुस 10:32; लूका 24:44)। इसलिए, पवित्र आत्मा शिष्यों को न केवल वह याद दिलाएगा जो प्रभु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई के दौरान कहा, बल्कि समस्त पवित्र शास्त्र में से लेकर आवश्यकता अनुसार स्मरण करवाएगा। लेकिन इसके लिए, पवित्र आत्मा के लिए विश्वासियों को याद करवाने और सिखाने के लिए, उनके पास आसानी से उपलब्ध हो सकने वाला प्रभु की बातों का एक संग्रह, एक भण्डार होना अनिवार्य है, जिस में से लेकर वह ध्यान या स्मरण करवा सके, और उस बात का व्यावाहरिक उपयोग सिखा सके। सहज रीति से उपलब्ध होने के लिए इस संग्रह या भण्डार को दो स्वरूपों में उपलब्ध होना चाहिए – एक तो भौतिक, बाहरी स्वरूप – परमेश्वर का लिखित वचन – बाइबल, जिसका मूल लेखक पवित्र आत्मा है, जिसकी प्रेरणा और जिस की अगुवाई से ही विभिन्न लेखेकों ने वचन को लिखा है (2 तीमुथियुस 3:16), और हमारे लिए लिखित स्वरूप में उपलब्ध करवाया है; और दूसरा, वह वचन हर समय हमारे मन-मस्तिष्क में उपलब्ध रहना चाहिए (यहोशू 1:8; Job 22:22; भजन 37:31; भजन 40:8; नीतिवचन 2:1)। पवित्र आत्मा ने अपना कार्य पूरा कर दिया है, उसने परमेश्वर के वचन को लिखित रूप में हमें उपलब्ध करवा दिया है; अब विश्वासी को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी है – अपने मन-मस्तिष्क में परमेश्वर के वचन को समावेश कर लेना है, भर लेना है, जिस से वह, जब भी आवश्यकता हो, हर परिस्थिति के लिए, हमेशा उसे उपलब्ध रहे। जब परमेश्वर का वचन इन दोनों ही स्वरूपों में विश्वासी के पास उपलब्ध रहता है, तब पवित्र आत्मा हर बात, हर परिस्थिति के लिए, जिस  का भी वह सामना करे, उपयुक्त वचन को स्मरण करवाएगा, जिस से उसे मार्गदर्शन मिले, सामर्थ्य मिले, और वह वचन के द्वारा बुद्धिमान किया जाए।


    जैसे कोई भी विद्यार्थी अपनी साँसारिक पढ़ाई को लापरवाही से और यूँ ही, अपने मन-मस्तिष्क को ठीक से तैयार किए बिना, यहाँ-वहाँ से यदा-कदा पढ़ने के द्वारा सही रीति से नहीं कर सकता है; उसी प्रकार से परमेश्वर के वचन के अध्ययन को भी प्रार्थना के साथ, नियमित, योजनाबद्ध रीति से, क्रमवार, और विचार करते हुए यत्न के साथ पढ़ना चाहिए (भजन 119:4)। जब विश्वासी बारंबार पढ़ने, उस की शिक्षाओं को व्यावाहरिक रीति से अपने जीवन में लागू करने, और उसके बारे में औरों के साथ चर्चा करने के द्वारा अपने मन-मस्तिष्क को वचन से भर लेता है, तब पवित्र आत्मा भी विश्वासी की सहायता करता रहता है कि उस वचन के अर्थ और उपयोगिता को उसे बताए और समझाए, कदम-ब-कदम वचन में परिपक्व होते जाने में सहायता करे। अगले लेख में हम दूसरी बात, अर्थात, परमेश्वर के वचन को पढ़ने और अध्ययन करने के लिए पर्याप्त और उचित समय न लगाना, और सामान्यतः यह तब होता है, जब विश्वासी पवित्र आत्मा के निर्देशों को जानने और मानने के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता है, को देखेंगे; और यह उस बात का जो हमने अभी देखी है, उसे आगे ज़ारी रखना है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 2

 

    Every Born-Again Christian Believer is a steward of the provisions God has given him for his Christian living and ministry; and one of the provisions is God the Holy Spirit residing in him since the moment of his salvation. The Holy Spirit has been given to be a Helper and Companion to every child of God, and to teach him God’s Word, and guide him in fulfilling his God assigned ministry. Nowadays, there are many prevalent misconceptions and wrong teachings about the Holy Spirit. Unless one has a clear Biblical understanding of the facts about God the Holy Spirit, he cannot utilize the help, guidance, and power of the Holy Spirit made available to him by God. The main teachings about the Holy Spirit are found in John’s gospel, chapters 14 to 16, in the Lord Jesus’s last discourse with His disciples before being caught and taken for crucifixion. We have been studying from John 14:17 for the past some time about the Holy Spirit, and of late we have been learning about the world not knowing Him, but the disciples of the Lord knowing Him. In this context, since the previous article, we have started on learning about learning God’s Word from the Holy Spirit.


    We have seen that God has given us His Word, not to be a closed and enigmatic book; but to study and learn it. God desires to teach it to us, provided we are willing to learn it from Him and obey His teachings. One of the purposes of God the Holy Spirit is to teach the children of God the Word of God. The pitfall for every Believer is that if they do not diligently learn God’s Word from the Holy Spirit, but take the easy way out and depend upon some person and books to learn, then Satan has good opportunity to bring in wrong teachings, and he makes full use of it to mislead and misguide Believers into wrong teachings, doctrines, and practices. In the last article we had stopped at the three main reasons which prevent the Christian Believer from learning God’s Word from the Holy Spirit. We can understand the importance of these three reasons by taking our secular education as an example; these reasons are equally applicable to not being able to acquire a secular education, as well as not being able to acquire a spiritual education and learning God’s Word from the Holy Spirit. Today we will take up the first of these three reasons.


    The first main reason for a Believer not being able to learn from the Holy Spirit is the deficiency of God’s Word in him, in quantity as well as quality. We know very well from our secular education, the more the student reads and studies his subjects, and the more he assimilates them in quantity and quality, the better he does in his exams and in their practical applications in life where they are required. To do this, the student has to keep reading his textbooks over and over again, completing his assignments, and discussing with others about the topics covered. All those who do not spend time in personally and diligently doing these, will never learn the subject. A single reading, or relying on occasional erratic readings, or merely listening to lectures given by the teacher or someone else reading the lessons, never suffices to actually and adequately learn the subject matter.


    The same holds equally true for learning God’s Word. Ponder over some things that the Lord Jesus said about the Holy Spirit teaching the disciples: in John 14:26, the Lord said “…He will teach you all things, and bring to your remembrance all things that I said to you.” The first thing to note is that the Holy Spirit will teach to the Lord’s disciple “all things”; couple this with 2 Peter 1:3 – all things for life and godliness have already been given to the Believers, and we have an all-encompassing  comprehensive curriculum prepared by God the Father for His children, consisting of everything we will ever need on this earth and beyond, kept ready for their learning, to be taught by the best teacher that ever could be – God Himself.


    The second thing to note here is that the Lord said that  the Holy Spirit will “bring to your remembrance all things that I said to you”; i.e., the main method of the Holy Spirit’s teaching will be by making us recall or remember what the Lord Jesus has said regarding any given situation, for anything that comes our way, as the Lord again affirmed in John 16:14-15. It is important to bear in mind that all of Scriptures, even the Old Testament speak of the Lord Jesus (Luke 24:27; John 5:39, 46)। The Lord Jesus during His earthly ministry, besides His other teachings, also explained things about Him from the Old Testament Scriptures to the disciples (Clarifications given in the Sermon on the Mount – Matthew 5-7; Mark 4:34; Mark 10:32; Luke 24:44). Therefore, the Holy Spirit would not only remind the disciples of what the Lord taught in His earthly Ministry, but, according to the need, He will also remind from all of the Scriptures. But for the Holy Spirit to be able to remind and teach us, there has to be a readily available a ‘stock’, a repository of what the Lord Jesus has said, from which He can bring to our remembrance what we need to learn and apply in any given situation. To be readily referred to, this stock or repository has to be available in two forms – firstly, in a physical, external form – the written Word of God – the Bible, authored by the Holy Spirit through inspiring the various authors who have written it (2 Timothy 3:16), and made available to us in the written form; and secondly, it should at all times also be present in our hearts and minds (Joshua 1:8; Job 22:22; Psalm 37:31; Psalm 40:8; Proverbs 2:1). The Holy Spirit has already done His part, He has given to us the Word of God in a written form; now it is up to us to do our part – assimilate God’s Word in our hearts and minds and always keep it readily available for any occasion, as and when required. When God’s Word is present with us in both forms, then the Holy Spirit will be able to make us recall and remember the Word appropriate for each and everything, every situation that we may face, and thus be guided, be strengthened, and be made wise by that Word.


    Just as no student can properly study for his secular education by randomly and carelessly reading from here and there, off and on, without preparing himself and his mind for the study; similarly, God’s Word too should be read prayerfully, regularly, systematically, sequentially, and pondered over, diligently (Psalm 119:4). As one fills his heart and mind with God’s Word by repeatedly going through it, practically applying its teachings in life, and talking about it with others, the Holy Spirit also helps and guides the Believer in learning the meanings and applications of God’s Word and maturing in it, step by step. In the next article we will take up the second reason, i.e., lack of giving adequate time to read and study God’s Word, and this usually is due to the Believer’s not being committed enough to follow and obey the instructions of the Holy Spirit, which actually is a continuation of what we have just seen.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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