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पवित्र आत्मा से सीखना – 16
नया-जन्म पाया हुआ प्रत्येक मसीही विश्वासी परमेश्वर पवित्र आत्मा का भण्डारी भी है, जो उस में उस के उद्धार पाने के क्षण से ही निवास करता है। पवित्र आत्मा, परमेश्वर के द्वारा विश्वासी को मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई के सही निर्वाह में उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है। उनका शिक्षक होने के नाते, यदि वे उस से सीखने के लिए तैयार हों, तो पवित्र आत्मा विश्वासियों को परमेश्वर का वचन, बाइबल भी सिखाता है। हम 1 पतरस 2:1-2 से सीख रहे हैं कि विश्वासियों को परमेश्वर का वचन किस प्रकार से सीखना है: उन्हें साँसारिक और शारीरिक व्यवहार से बाहर निकलना है; परमेश्वर के वचन को परमेश्वर ही से सीखने की एक सच्ची लालसा रखनी है; और उनकी उत्कंठा केवल “निर्मल आत्मिक दूध” ही प्राप्त करने की होनी चाहिए, न कि मानवीय विचारों, बुद्धि, और समझ की बातों की मिलावट के साथ परोसे गए की। जब विश्वासी केवल पवित्र आत्मा पर सीखने के लिए निर्भर रहते हैं, उसके निर्देशों का पालन करते हैं, तो वह उन्हें “निर्मल आत्मिक दूध” और मिलावटी वचन में पहचान करने की समझ-बूझ और मार्गदर्शन भी प्रदान करता है।
शैतान, उसे निष्क्रिय करने के लिए, परमेश्वर के वचन में मिलावट दो प्रकार से करवाता है। एक है, उसके दूतों के द्वारा जान-बूझकर परमेश्वर के वचन और उसकी सही शिक्षाओं में शैतानी झूठ मिला देना; और दूसरा है उन समर्पित विश्वासियों के द्वारा जो वचन की सेवकाई में लगे हैं चुपके से और चालाकी से कोई मिलावट करवा देना। परमेश्वर के वचन के इन प्रचारकों और शिक्षकों के जीवन में यदि कहीं भी कोई ज़रा सा भी पाप, समझौता, या कमज़ोरी होगी, तो वह शैतान को अंदर आकर अपनी झूठी शिक्षाओं के बीज उन में बोने का मार्ग दे देगा, और उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि क्या कर दिया गया है। वे विश्वासी अपनी सेवकाई में लगे रहते हैं, अपनी प्रतीत होने में श्रद्धापूर्ण और परमेश्वर के प्रति आदरणीय शिक्षाओं को मानते, सिखाते, और मनवाते रहते हैं, बिना इस बात का एहसास किए कि वास्तव में उनकी शिक्षाएँ भ्रामक और बाइबल से बाहर की हैं, जो उनकी अपनी सोच, समझ, और धारणाओं के अनुसार हैं, न कि परमेश्वर के वचन के। यह बाइबल से बाहर की भ्रामक शिक्षाओं की पहचान करने के लिए एक और पहचान देता है – केवल कुछ सीमित सँख्या के विश्वासियों या मण्डलियों के द्वारा ही कुछ विशेष शब्द, अभिव्यक्तियाँ, वाक्यांश, आदि को बोलना; और या तो आदत के द्वारा अन्यथा किसी की नकल करते हुए, सामान्यतः उन्हें बारंबार दोहराते रहना। परमेश्वर के प्रकाशन और शिक्षाएँ सभी के लाभ और उपयोग के लिए होते हैं उसकी सम्पूर्ण कलीसिया के लिए, केवल कुछ ही विश्वासियों या कलीसियाओं ही के लिए नहीं। इसलिए यदि कोई ऐसी बात है जिसका पालन केवल कुछ ही विश्वासी या मण्डलियाँ करती आ रही हैं, तो उसे बहुत बारीकी से परमेश्वर के वचन से जाँच-परख लेना चाहिए और पुष्टि होने बाद ही उन्हें परमेश्वर की ओर से दी गई बात स्वीकार करना चाहिए।
परमेश्वर का वचन प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए, विशेषकर जो वचन की सेवकाई में लगे हैं, तीन-स्तर की जाँच-परख प्रदान करता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि शैतान परमेश्वर के वचन में मिलावट करने के अपने उद्देश्य में सफल न होने पाए। पिछले दो लेखों में हमने पहले दो स्तर देखें हैं: पहला, विश्वासी के द्वारा स्वयं अपना आँकलन, उसके द्वारा किसी बात को कहे जाने से पहले उसका यह जाँचना-परखना कि कहीं अपनी उस बात में वह लिखित वचन से आगे तो नहीं बढ़ गया है (1 कुरिन्थियों 4:6); और दूसरा, मण्डली के लोगों, विशेषकर जो अगुवे हैं, प्रचारक और शिक्षक हैं, उनके द्वारा जो कुछ भी प्रचार किया और सिखाया जा रहा है उसकी परमेश्वर के वचन से जाँच कर के पुष्टि करना (1 कुरिन्थियों 14:29), और उसके बाद ही उसे स्वीकार कर के पालन करना। आज हम तीसरे स्तर को देखेंगे, आपने आप को वरिष्ठ अगुवों के सामने प्रस्तुत करना, कि किए जा रहे प्रचार की जाँच की जाए।
विश्वासी द्वारा किए जा परमेश्वर के वचन से प्रचार और दी जा रही शिक्षाओं की शुद्धता और खराई की पुष्टि के लिए, परमेश्वर का वचन एक तीसरे स्तर की जाँच-परख के लिए भी कहता है। विश्वासी को कभी-कभी, परमेश्वर के निर्देश में, अन्य वरिष्ठ अगुवों, जो विश्वास और सिद्धान्तों में समान हैं, किन्तु किसी भिन्न स्थान में सेवकाई कर रहे हैं, के पास जा कर अपने प्रचार और शिक्षाओं की सामग्री को रखना चाहिए (गलतियों 2:1-2)। इन पदों में पौलुस द्वारा उसकी जाँच के बारे में कही गई तीन बातों पर ध्यान दीजिए: वह 14 वर्ष के पश्चात यरूशलेम को गया; वह “ईश्वरीय प्रकाश के अनुसार” गया; और, उसको एक उद्देश्य के अंतर्गत वहाँ भेज गया “ताकि ऐसा न हो, कि मेरी इस समय की, या अगली दौड़ धूप व्यर्थ ठहरे।” ऐसा नहीं था कि पौलुस जो प्रचार कर रहा था, जो सिखा रहा था, उस में कुछ त्रुटि थी, और न ही यरूशलेम के अगुवों ने उसके प्रचार में कुछ जोड़ा (गलतियों 2:6), लेकिन फिर भी परमेश्वर ने उसे उनके मध्य में जाँचे-परखे जाने के लिए भेजा, कि कुछ बातें भी सीख सके – वह और उसके साथी भी, तथा आज हम भी। दूसरे शब्दों में, कभी-कभी पवित्र आत्मा जो वचन की सेवकाई में लगे हैं, और इसलिए शैतान के हमलों के जोखिम में रहते हैं, उन्हें अन्य स्थानों पर रहने वाले वरिष्ठ अगुवों के पास जाकर विचार विमर्श करने के लिए कहता है; लेकिन यह परमेश्वर की अगुवाई में ही होना चाहिए। हम इसी अध्याय में आगे देखते हैं कि बाद में पतरस, अन्ताकिया जहाँ पौलुस सेवकाई करता था, आया और वहाँ पर पौलुस ने उसके दोगलेपन के व्यवहार के लिए उसे अच्छे से डाँट लगाई (गलतियों 2:11-14)। अर्थात, यह जाँच-परख, यह आँकलन ईमानदारी से किया जाना चाहिए, व्यक्ति के स्तर या अनुयायियों के अनुसार नहीं; और जो भी गलतियाँ या कमियाँ हों, उन्हें अनदेखा करने की बजाए, खुला प्रकट करना चाहिए, ताकि उन से कलीसिया भ्रष्ट न होने पाए।
यरूशलेम के अगुवों के पास जाने के द्वारा पौलुस ने जाना कि यह करने से परस्पर आदर, संगति और सहभागिता, तथा सामंजस्य को बढ़ावा मिलता है (गलतियों 2:7-9)। लेकिन साथ ही पौलुस ने एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ भी सीखा, कि उस उच्च महत्वपूर्ण स्थान, यरूशलेम में भी, जहाँ पर परमेश्वर ने उसका आँकलन होने के लिए उसे भेज था, शैतान के दूत चुपके से घुस आए थे (गलतियों 2:4-5)। दूसरे शब्दों में, ऐसा कोई स्थान, कोई व्यक्ति नहीं है जो शैतान के हमलों से सुरक्षित है, और शैतान हमेशा परमेश्वर के वचन और सेवकाई को बिगाड़ने के लिए कार्य करता ही रहता है। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी स्तर और अनुभव का क्यों न हो, उसे कभी भी सिद्ध नहीं माना जा सकता है; और इसीलिए हर किसी के प्रचार और शिक्षाओं को अनिवार्य रीति से परमेश्वर के वचन द्वारा जाँचे और परखे जाने की आवश्यकता रहती है, न कि वे यूँ ही अँध-विश्वास कर के स्वीकार की जाएँ, पालन की जाएँ।
ध्यान कीजिए कि जाँचने-परखने के तीनों स्तरों – व्यक्तिगत, मण्डली के द्वारा, और वरिष्ठ अगुवों के द्वारा, के लिए पवित्र आत्मा ने पौलुस ही को उदाहरण बनाया है; और वह भी तब नहीं जब वह अपनी सेवकाई के आरंभिक दौर में था, किन्तु कई वर्षों की बहुत ही फलवंत, बहुत जानी-मानी, और बहुत सराहनीय सेवकाई के बाद, जब वह एक अच्छे प्रचारक, कलीसियाएँ स्थापित करने वाले, और सिद्धान्तों की शिक्षा देने वाली पत्रियों का लेखक होने कि लिए भी जाना जाता था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के कार्य में लगा हुआ हर व्यक्ति, चाहे उसकी आयु और अनुभव कितने भी क्यों न हों, उसका जाँचना-परखना, और उसकी बातों की पुष्टि होती रहनी चाहिए, क्योंकि कोई भी ऐसा नहीं है जिसे शैतान बहका या भरमा नहीं सकता है। सभी, सेवकाई में लगे लोगों और मण्डली के सदस्यों को यह जाँच-परख और पुष्टि करते रहना चाहिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि श्रोताओं को परमेश्वर के वचन का केवल “निर्मल आत्मिक दूध” ही परोसा जा रहा है, न कि कोई मिलावट किया हुआ।
अगले लेख में हम भजन 25 से देखेंगे कि जो उस से सीखने की खरी लालसा रखते हैं, परमेश्वर कैसे उनकी इस लालसा का आदर करता है, और उन्हें सिखाता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 16
Every Born-Again Christian Believer is also a steward of God the Holy Spirit, who resides in him since the moment of the Believer’s salvation. The Holy Spirit has been given by God to every Believer, to be their Helper, Companion, Teacher, and Guide; to live their Christian lives and fulfil their God given responsibilities. As their Teacher, the Holy Spirit teaches God’s Word, the Bible to the Believers; if they are willing to learn from Him. We are learning from 1 Peter 2:1-2 how the Believers are to learn God’s Word. They must get away from worldly or carnal behavior; must develop a sincere desire to learn God’s word from God; and must have the craving only for the “pure spiritual milk” of the Word of God; not something adulterated with human thoughts, wisdom, and understanding. When the Believers rely only upon the Holy Spirit to learn from Him, and follow His instructions, He gives them the discernment and guidance to recognize the “pure spiritual milk” from the adulterated one.
Satan adulterates God’s Word, to render it ineffective by two means, one is through his agents who deliberately adulterate God’s Word and its true teachings with satanic lies; and the other is subtly through committed Believers engaged in the ministry of God’s Word. These preachers and teachers of God’s Word, if there is any sin, compromise, or short-coming in their lives, it let’s Satan come in and plant his deceptions in them, without their realizing what has been done. They carry on in their ministry, believing, preaching, and teaching their seemingly reverential and God honoring, but actually deceptive, false teachings which are based more on their own personal thinking and understanding, than on God’s Word. This serves as another indicator to recognize deceptive, unBiblical teachings – use of words, expressions, phrases by a limited number of Believers or Assemblies, often repetitively, more by habit or copying someone. God’s revelations and instructions are for the benefit and utilization of His entire Church, not just a select group of Believers or Assemblies. Therefore, anything limited to having a following in only a small group of Believers or a few Assemblies, should always be minutely evaluated from God’s Word and thoroughly verified, before being accepted as being from God’s Word.
God’s Word provides a three-level cross-checking for every Christian Believer, particularly those engaged in the ministry of God’s Word, to ensure Satan fails in his ploy of adulterating God’s Word. We have seen the first two levels in the previous two articles, i.e., self-evaluation by the Believer, cross-checking that he has not gone beyond the written Word of God (1 Corinthians 4:6), before saying it to others; and evaluation by the congregation – especially the elders, preachers, and teachers of the Church to cross-check and verify from God’s Word whatever has been preached and taught (1 Corinthians 14:29), before accepting it and following it. Today we will learn the third level, presenting themselves to other senior elders, to cross-check the contents of their preaching.
To verify the purity and accuracy of what the Believer preaches and teaches from God’s word, God’s word also prescribes a third level of evaluation. The Believer, intermittently, under the guidance of God, should also share with other Seniors in ministry of God’s Word, those who doctrinally are same or similar, but serving in other locations, to evaluate his teachings and doctrines (Galatians 2:1-2). Notice, the three things Paul says here about his evaluation: that he went to Jerusalem after 14 years; that he went “by revelation;” and that he was sent there with a purpose “so that I might not be running, or have run the race, in vain.” Not that there was any error in what Paul was preaching, nor did the Elders in Jerusalem have anything to add to his preaching (Galatians 2:6), but still God had sent him amongst them for getting evaluated, and to learn some things – he and his companions then, and we today. In other words, the Holy Spirit at times will lead those engaged in ministry, and therefore, prone to satanic attacks, to go and consult with other Senior level ministers of God, serving in other locations; yet it should be done under God’s guidance. We see here in this chapter, that later Peter came to Antioch, where Paul was ministering, and Paul gave him a good dressing down for his hypocritical behavior (Galatians 2:11-14); i.e., this evaluation should be done honestly, without regard to a person’s status or following; and faults or short-comings, if any should be laid open, instead of being overlooked and then corrupt the Church.
Through this visit to the Elders in Jerusalem, Paul came to know that this promotes and maintains mutual respect, fellowship, and harmony (Galatians 2:7-9). But Paul also learnt another very valuable lesson, Satan’s agents had subtly infiltrated even that high seat (Galatians 2:4-5), Jerusalem, where God had sent Paul to get evaluated. In other words, no place, no person is immune to Satan’s attacks, and Satan always keeps working to subvert God’s Word and ministry in any way that he can. No person, at any level, of any experience, can ever be considered perfect; and hence every one’s preaching and teachings, should necessarily be subjected to evaluation from God’s Word, before blindly accepting, repeating, and following them.
Notice, for all three levels of evaluation – personal, congregational, and Seniors, the Holy Spirit has used Paul as an example; and not when he was in his initial times of serving the Lord, but even after many years of his very fruitful, very well known, and highly appreciated service as a preacher, Church planter, and author of doctrinal letters. In other words, every person, of whatever age or experience in God’s work, should be subjected to evaluation and verification, since no one is safe from being misled by Satan. All, the ministers as well as the congregations need to keep carrying out these checks to ensure that only dispensing the “pure spiritual milk” of the Word of God is being dispensed to the audience, instead of something adulterated.
In the next article, we will see from Psalm 25, how God honors and fulfils the desire of those who sincerely desire to learn from Him.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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