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कलीसिया का निर्माण – 1 – पतरस पर? – 1
परमेश्वर द्वारा उसे दी गई बातों और विशेषाधिकारों का योग्य भण्डारी होने के लिए, प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को उन बातों और विशेषाधिकारों के बारे में सीखना है। इस संदर्भ में, वर्तमान में हम विश्वासी के परमेश्वर की कलीसिया का तथा परमेश्वर के अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता रखने का भण्डारी होने के बारे में सीख रहे हैं। पिछले लेखों में, कलीसिया के बारे में समझने के लिए हमने बाइबल में कलीसिया के लिए उपयोग किये गए सात रूपकों पर विचार किया है, और उन से शिक्षाएँ प्राप्त की हैं। इन सातों रूपकों में देखा जाने वाला एक सामान्य विचार और शिक्षा है कि प्रभु की कलीसिया, प्रभु से है, प्रभु के द्वारा है, और प्रभु के लिए है; और यह कभी भी किसी मनुष्य से, मनुष्य के द्वारा, या मनुष्य के लिए नहीं रही है। वरन, यदि कलीसिया के किसी भी पक्ष में किसी भी प्रकार से मानवीय विचार और हस्तक्षेप, प्रभु के द्वारा दी गई बातों के ऊपर, उससे अधिक महत्वपूर्ण कर दिए गए हैं, तो फिर वह कलीसिया प्रभु की नहीं रह गई, बल्कि मनुष्यों की बन गई है। आज से हम प्रभु के द्वारा अपनी कलीसिया के बनाए जाने के बारे देखना आरंभ करेंगे।
ईसाई या मसीही समाज में एक बहुत आम किन्तु गलत धारणा पाई जाती है कि प्रभु यीशु ने पतरस पर अपनी कलीसिया बनाने की बात कही है; और इस धारणा का आधार मत्ती 16:18 में प्रभु द्वारा कही गई बात - “और मैं भी तुझ से कहता हूं, कि तू पतरस है; और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा: और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” को बनाया जाता है। किन्तु यह धारणा सही नहीं है, वचन के अनुसार नहीं है।
बाइबल की बातों को गलत समझने का सबसे बड़ा कारण है किसी एक शब्द, या वाक्यांश, या वाक्य, अथवा पद को उसके संदर्भ के बाहर लेकर उसकी ऐसी व्याख्या करना, जो संदर्भ के अनुसार देखे जाने में सही नहीं निकलती है। इसलिए बाइबल की हर बात को न केवल उसके तात्कालिक संदर्भ में देखना और समझना आवश्यक है, किन्तु बाइबल में शेष स्थानों पर उस विषय से संबंधित भागों में और क्या कहा गया है, उसे भी देखना और उन बातों के साथ अपनी व्याख्या के सामंजस्य को जाँचना भी अनिवार्य है। साथ ही, हमेशा यह ध्यान भी रखना चाहिए कि बाइबल की पुस्तकें उनके मूल स्वरूप में कभी भी अध्यायों और पदों में नहीं लिखी गई थीं वरन सामान्य लेख, कविताओं, और पत्रों के समान ही लिखी गई थीं। वर्तमान में पाया जाने वाला यह अध्यायों और पदों में विभाजन बहुत बाद में, हवाले देने और स्मरण रखने में सहायता करने के लिए किया गया। इसलिए यह विभाजन कृत्रिम है, और कई बार किसी परिच्छेद या खण्ड या वाक्य के विचार को पूरा हुए बिना ही बीच में काट या रोक देता है। इसलिए सही व्याख्या के लिए, संदर्भ में देखते समय, हमेशा, अपने मन में इस पदों और अध्यायों के विभाजन को हटाकर, उस संबंधित लेख को एक पूर्ण बात या विचार के अनुसार देखना, समझना, और फिर समझाना चाहिए। यदि हमारी व्याख्या तात्कालिक संदर्भ तथा उस विषय पर बाइबल की अन्य बातों के साथ मेल नहीं खाती है, तो वह व्याख्या गलत है, और उसे सुधारे जाने की आवश्यकता है।
संपूर्ण बाइबल परमेश्वर का वचन है; संपूर्ण बाइबल परमेश्वर पवित्र आत्मा की प्रेरणा द्वारा लिखवाई गई है, अर्थात मूल और वास्तविक लेखक पवित्र आत्मा ही है, चाहे कलम चलाने वाले मनुष्य भिन्न हों; और यही वचन आदि में था, परमेश्वर के साथ था, परमेश्वर था, और उसे वचन ने देहधारी होकर हमारे मध्य में डेरा किया (यूहन्ना 1:1-2, 14)। इसलिए संपूर्ण बाइबल की बातों में कोई त्रुटि या परस्पर विरोधाभास संभव ही नहीं है, अन्यथा परमेश्वर में त्रुटि है, विरोधाभास है। इसलिए हर ऐसी व्याख्या जो तात्कालिक संदर्भ तथा संबंधित बातों एवं शिक्षाओं के साथ संगत नहीं है, वह गलत है, स्वीकार्य नहीं है; उसे मान और लेकर नहीं चला जा सकता है। यही बात इस धारणा को जाँचने की कसौटी भी है कि क्या वास्तव में प्रभु ने अपनी कलीसिया पतरस पर बनाने के लिए कहा है? और जाँचे जाने पर यह प्रकट हो जाता है कि प्रभु ने ऐसी कोई बात नहीं कही, ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया; और यह धारणा बिलकुल गलत, अनुचित और पूर्णतः अस्वीकार्य है।
अगले लेख से हम इस धारणा का विश्लेषण इन तीन बातों के अंतर्गत करेंगे:
क्या मत्ती 16:18 में प्रभु की कलीसिया बनाने की बात पतरस के लिए थी?
क्या वचन में किसी अन्य स्थान पर पतरस पर कलीसिया बनाने की, उसे कलीसिया का आधार रखने की पुष्टि है?
क्या पतरस इस आदर और आधार के योग्य था?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Building the Church – 1 – On Peter? – 1
To worthily fulfil his responsibility of being a steward of God given things and privileges, every Born-Again Christian Believer must learn about those things and privileges. In this context, presently, we are learning about the Believer being a steward of the Church of God and the fellowship of God’s other children. To understand about the Church, in the previous articles, we have considered seven metaphors used in the Bible for the Church, and learnt lessons from them. One common thought and lesson throughout these seven metaphors has been that the Lord’s Church, is from the Lord, by the Lord, and for the Lord; and never has it in any way been from man, by man, for man. Rather, any aspect where human interference and intervention has superseded what God has given, that has rendered it man’s church, not Lord’s. From today we will start learning about the Lord Jesus’s building His Church.
There is a very common misunderstanding amongst the Christians, that the Lord Jesus has said that He will build His Church on Peter. The basis for this misunderstanding is Matthew 16:18, “And I also say to you that you are Peter, and on this rock I will build My church, and the gates of Hades shall not prevail against it.” This is because of misinterpreting this verse.
The most common reason for misinterpreting and misunderstanding something from the Bible is taking some word, or phrase, or sentence, or passage of the Bible out of its context and giving it meanings that do not stand up to scrutiny when that word, or phrase, or sentence, or passage of the Bible is seen in its actual context. Therefore, to properly understand Biblical things, not only should they be taken and understood in their immediate context, but also by considering what has been said in the Bible at other places about the same thing; every interpretation should satisfy, be consistent with everything said in the Bible about it; there should be no contradictions - none whatsoever, in the immediate and the related portions. Another fact that should always be borne in mind while interpreting and understanding is that in their original form and writing, the books of the Bible were not written in chapters and verses, as we presently have them in our Bibles. They were written as just another text, poetry, letter in general use is written. This current division into chapters and verses came about much later, as an aid, to cite, quote, and memorize Scripture portions. Therefore, this division is artificial, and at many places it cuts off the running thought of a sentence or passage in between, before its completion. Hence, for a correct interpretation, while looking at the context, it is always helpful to mentally remove the division of the text into verses and chapters, and consider the whole thought as one unit. If our interpretation and understanding is not consistent with either the immediate context, or with other related passages and portions, then that interpretation and understanding is wrong, and needs to be rectified.
The whole of the Bible is the Word of God; the whole Bible has been written under the guidance of God the Holy Spirit, i.e., the original and actual author is the Holy Spirit, even though the persons using the pen for writing the words may be different. It is this Word that was present at the beginning, was with God, was God, and became flesh to dwell amongst us (John 1:1-2, 14). So, there can never be any error or mutual contradiction in the things of the Bible, else it implies imperfections and contradictions in God Himself. Therefore, every explanation and interpretation that is not consistent with the immediate context and the related things in the Bible is false, unacceptable, cannot be agreed to and used in any manner. These facts also serve as a guide for us to examine this notion that did the Lord Jesus really say that He will build His Church on Peter? We will see how on proper examination and with a correct understanding, it becomes clear that the Lord Jesus never said anything like this, nor did He give any such assurance; this is a completely wrong notion, is totally unjustified, and absolutely unacceptable.
From the next article we will examine this notion about the Church being built on Peter through three questions:
Was the Lord’s statement in Matthew 16:18 about building His Church, about Peter?
Does the Scripture at any other place support or state this notion of the Church being built on Peter, or Peter being its foundation?
Was Peter even worthy of this honor, of being considered to be the foundation for the Church?
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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