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पवित्र आत्मा के वरदान – 1
पिछले लेखों में हमने देखा है कि न तो कोई आत्मिक वरदान और न ही कोई मसीही सेवकाई, किसी भी अन्य से न तो छोटी अथवा बड़ी, या कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण है; परमेश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं। बाइबल यही सिखाती है कि सभी वरदानों का उपयोग किसी के निज प्रयोग अथवा भलाई के लिए नहीं वरन मण्डली के सभी लोगों की भलाई के लिए होना है। सभी वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर द्वारा नियुक्त सेवकाई को सुचारु रीति से पूरा करने के लिए दिए जाते हैं; किसको क्या वरदान मिलना है, यह व्यक्ति की इच्छा के अनुसार नहीं, अपितु पवित्र आत्मा के द्वारा निर्धारित किया जाता है। हमने यह भी देखा था कि 1 कुरिन्थियों 12:31 में वाक्यांश “बड़े से बड़े वरदान की धुन में रहो” का अभिप्राय मण्डली में परमेश्वर के लिए अधिक से अधिक उपयोगी होने की “धुन में रहने” या हार्दिक इच्छा बनाए रखने के लिए है, वरदानों को बड़ा या छोटा बताने और वरदानों में बदलाव करवाने के लिए नहीं। इस वाक्यांश के विषय यह भी ध्यान कीजिए कि “धुन में रहो” लिखा गया है; किन्तु यह नहीं कहा गया है कि ऐसा करने से पवित्र आत्मा विश्वासी के “धुन में रहने” के अनुसार उसके वरदानों और सेवकाई में कोई परिवर्तन कर देगा - जैसा कि बहुधा पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं सिखाने वाले अभिप्राय देते हैं, और इसके लिए इस पद का दुरुपयोग करते हैं।
आज से हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 के इन 5 पदों में दिए गए विभिन्न वरदानों को थोड़ा और गहराई से देखते हैं। ध्यान कीजिए कि यहाँ हर वरदान के साथ लिखा है, “किसी को...”; अर्थात हर किसी को सभी वरदान नहीं दिए गए हैं, और हर किसी को एक ही वरदान नहीं दिया गया है; वरन अलग-अलग सेवकों को, उनकी सेवकाई के अनुसार ही अलग-अलग वरदान दिए गए हैं। इसलिए किसी को भी किसी दूसरे के वरदान को लेकर ईर्ष्या या कोई अनुचित भावना नहीं रखनी चाहिए। यहाँ दिए गए वरदानों के अतिरिक्त भी पवित्र आत्मा के वरदान हैं, जो बाइबल की अन्य पुस्तकों में दिए गए हैं। अभी के लिए हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 में दिए गए वरदानों को ही देखना आरंभ करेंगे। इन 5 पदों में 9 विभिन्न वरदान दिए गए हैं; ये वरदान हैं: “बुद्धि का बातें”; “ज्ञान की बातें”; “विश्वास”; “चंगा करने का वरदान”; “सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”; “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना”। इस खंड का आरंभ इन सभी वरदानों के सभी लोगों के लाभ के लिए होने, और पवित्र आत्मा के द्वारा होने (पद 7), और अंत इनके पवित्र आत्मा की इच्छा के अनुसार दिए जाने तथा इनका उपयोग पवित्र आत्मा द्वारा ही करवाए जाने (पद 11) से होता है। अर्थात आत्मिक वरदानों से संबंधित सब कुछ - उनका उद्देश्य, उन्हें प्रयोग करने की क्षमता, किस को क्या वरदान दिया जाना है का निर्णय, आदि, सभी परमेश्वर पवित्र आत्मा के अधिकार में है, यह पूर्णतः उनकी ओर से और उनके द्वारा है; किसी मनुष्य की इसमें कोई भूमिका अथवा अधिकार नहीं है, जैसा कि इस खंड से पहले पद 4-6 में भी लिखा गया है।
एक बहुत महत्वपूर्ण बात जो इस अध्याय के 7 पद में, आत्मिक वरदानों के उल्लेख से भी पहले कही गई है, किन्तु जिस पर अधिकांशतः लोग ध्यान नहीं देते हैं, वह है, “किन्तु सब के लाभ पहुंचाने के लिये हर एक को आत्मा का प्रकाश दिया जाता है” (1 कुरिन्थियों 12:7)। हम इससे पहले के कुछ लेखों में परमेश्वर की कार्यविधि को समझते हुए, यह देख चुके हैं कि हमारा परमेश्वर पिता हमेशा सभी की भलाई के लिए ही कार्य करता है, और जो आशीषें वह देता है, वह किसी व्यक्ति के अपने निज लाभ और प्रयोग के लिए ही नहीं होती हैं, वरन, उस व्यक्ति में होकर सभी के लाभ और उन्नति के लिए होती हैं। यही बात यहाँ इस 7 पद में कही गई है। पवित्र आत्मा स्वयं इस बात को पहले ही लिखवा दे रहा है कि हर एक को जो भी आत्मिक वरदान पवित्र आत्मा की ओर से दिया गया है, वह सभी के लाभ के लिए है। इसकी पुष्टि एक बार फिर से 1 कुरिन्थियों 14:12 “इसलिये तुम भी जब आत्मिक वरदानों की धुन में हो, तो ऐसा प्रयत्न करो, कि तुम्हारे वरदानों की उन्नति से कलीसिया की उन्नति हो” में हो जाती है। यद्यपि यह बात अन्य-भाषा बोलने के संदर्भ में कही गई है, किन्तु फिर भी यह ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ पर इसे बलपूर्वक दोहराया गया है कि सभी के आत्मिक वरदानों के द्वारा कलीसिया ही की उन्नति होनी चाहिए; और 1 कुरिन्थियों 14:2-5 पद तथा इस अध्याय के अन्य पद भी यह स्पष्ट कर देते हैं कि अन्य भाषा बोलना भी कलीसिया की उन्नति के लिए ही है, किसी भी व्यक्ति के अपने निज प्रयोग अथवा लाभ के लिए नहीं। यद्यपि यह हमारे वर्तमान विषय से बाहर की चर्चा है, किन्तु इस संदर्भ में यह कहना बहुत आवश्यक है कि बाइबल में जिसे “अन्य भाषा” कहा गया है वह पृथ्वी की ही, और जानी पहचानी भाषाएं हैं, जिनके नाम हैं, जो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में मनुष्यों द्वारा बोली जाती हैं, और जिनके अनुवाद किसी अन्य क्षेत्र की भाषा में किए जा सकते हैं। पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं फैलाने वालों की इस गलत शिक्षा का कि अन्य भाषाएं अलौकिक, पृथ्वी के बाहर की भाषा है, बाइबल में कोई समर्थन नहीं है। 1 कुरिन्थियों 14 अध्याय ही ध्यान से और प्रार्थना पूर्वक पढ़ लीजिए, वास्तविकता स्वतः ही प्रकट हो जाएगी। अगले लेख से हम उपरोक्त पवित्र आत्मा के 9 वरदानों में से प्रत्येक के बारे में कुछ-कुछ देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
The Gifts of the Holy Spirit – 1
In the previous articles we have seen that neither any Spiritual Gift, nor any Christian Ministry is greater or smaller, or of greater or lesser importance than any other; in the eyes of God all are equal. The Bible teaches that all the Spiritual Gifts are to be used not for anyone’s personal benefit, but for the benefit of the people of the Church. All the gifts are given by God the Holy Spirit, so that the Believer can do his God assigned work and ministry properly and worthily. It is the Holy Spirit who decides which gift to give to whom; these gifts are not according to the desires of any person and no man can demand any particular gift from Him. We had also seen that the phrase “But earnestly desire the best gifts” from 1 Corinthians 12:31 implies to be desirous of being of “best use” or as much use as possible in the Church of God. Contrary to popular interpretation and misuse, as is done by those who teach wrong doctrines and false teachings about the Holy Spirit, this phrase and this verse is not meant to say that any gift is greater or lesser than another, and Believers should strive to have their gifts changed or to obtain a particular gift. Take note of another thing about this verse, it says, “desire the best gifts;” but it is neither said not implied here that by doing so the Holy Spirit will alter the Believer’s gifts according to their desire – as those who preach and teach wrong things about the Holy Spirit wrongly imply, and misuse this verse for.
From today we will see in a little more detail about the Spiritual gifts mentioned in the 5 verses, 1 Corinthians 12:7-11. Take note that in these verses, along with the names of the gifts, the phrase “to one/to another…” has also been added. In other words, all the gifts have not been given to any one person, nor has one particular gift been given to all the persons; but according to their work and ministry, different people have been given different gifts. Therefore, no one should have any ill-feelings or jealousy about another’s gifts. Besides the gifts of the Holy Spirit mentioned over here, some other gifts have also been mentioned in the other books of the Bible. But for now, we will concentrate upon only 1 Corinthians 12:7-11, where in these 5 verses, 9 different gifts have been mentioned. The gifts mentioned are: “word of wisdom,” “word of knowledge,” “faith,” “healing,” “miracles,” “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongue.” This section starts with the caution that all the gifts are given by the Holy Spirit for the benefit of all (verse 7) and concludes with the caution that these gifts are given as the Holy Spirit decides and are to be used as the Holy Spirit instructs (verse 11). In other words, everything related to the Spiritual gifts - their purpose, the ability to use them, who is to receive which gift, etc., are all completely controlled by the Holy Spirit; all these gifts are from Him and by Him. No man has any role or interference in this, as has been made clear in the immediately preceding section of verses 4-6.
A very important things has been stated in verse 7 of this chapter, prior to mentioning the spiritual gifts, over which most people do not usually pay any attention is, “But the manifestation of the Spirit is given to each one for the profit of all” (1 Corinthians 12:7). In some earlier articles, while looking at and understanding how God works, we have seen that our Father God works for the benefit of everyone, and the blessings He gives are not for any person’s personal use and benefit, but for the benefit and growth of everyone through that person. This same thing is stated here in verse 7. The Holy Spirit is getting it written beforehand that whatever spiritual gifts are given by the Holy Spirit, they are all for the benefit and growth of everyone in the Church. This is then repeated and re-affirmed in 1 Corinthians 14:12 “Even so you, since you are zealous for spiritual gifts, let it be for the edification of the church that you seek to excel.” Although this statement has been made in context of speaking in ‘tongues’ i.e., other languages, yet what is important to note is that it has been emphatically repeated that the Church should benefit and grow through the use of spiritual gifts. Also, 1 Corinthians 14:2-5 make it clear that speaking in ‘tongues’, i.e., other earthly languages should be for the benefit of the Church; it is not meant for anyone’s personal use or benefit. Although it is not a part of our current discussion, but in context of what is being said here, it is very important to say and understand that what the Bible mentions as ‘tongues,’ are known, spoken, and understood languages of this world; languages that have their own names and are spoken by people living in various geographical areas of this world, and which can be translated from one to another. Those who preach, teach and spread wrong doctrines and false teachings in the name of, and about the Holy Spirit say and teach that these are extra-terrestrial languages, but there is no support for this from the Bible. Read carefully and prayerfully 1 Corinthians 14 chapter, and the truth about this will readily become apparent. From the next article we will see a few things about each of the aforementioned 9 gifts of the Holy Spirit.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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