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आरम्भिक बातें – 70
मरे हुओं का जी उठना – 5
प्रभु यीशु का पुनरुत्थान – प्रमाणित (3)
हम प्रभु यीशु के मृतकों में से जिलाए जाने के तात्पर्यों को, इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरंभिक बातों में से पाँचवीं, “मरे हुओं का जी उठना” के संदर्भ में सीख रहे हैं। हम देख चुके हैं कि प्रभु का जिलाया जाना भविष्यवाणी किया हुआ था, वर्तमान में हम देख रहे हैं कि वह एक प्रमाणित घटना है, और इस के बाद हम देखेंगे कि यह परमेश्वर की सामर्थ्य है। प्रभु यीशु का पुनरुत्थान प्रत्येक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी का पुनरुत्थान होने का भी निश्चय, तथा मसीही विश्वास की धुरी भी है। प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के बिना मसीही विश्वास का कोई आधार नहीं है। इसीलिए उस पर अविश्वास या सन्देह उत्पन्न करने के लिए शैतान ने उस के विरुद्ध इतनी सारी झूठी कहानियाँ फैला रखीं हैं। पिछले दो लेखों में हमने इन फैलाई गई मन-गढ़न्त कहानियों के बारे में देखा था कि कैसे वे उन से सम्बन्धित बाइबल के तथ्यों के सामने टिक नहीं पाती हैं। प्रभु यीशु के मृतकों में से जी उठने की पुष्टि न केवल परमेश्वर के वचन बाइबल से होती है, वरन बाइबल के बाहर के कुछ ऐतिहासिक लेखों से, तथा बाइबल के बाहर के कुछ अन्य तथ्यों से भी होती है। आज हम बाइबल के बाहर के कुछ ऐतिहासिक लेखों के बारे में देखेंगे जो प्रभु के पुनरुत्थान की पुष्टि करते हैं:
· जोसिफस (37-100 ईस्वी), एक यहूदी इतिहासकार था, जिसने अपने लेख “Jewish Antiquities” में लिखा है कि “अब इस समय के लगभग यीशु, जो एक ज्ञानी मनुष्य था, यदि उसे मनुष्य कहना उचित है तो, क्योंकि वह अद्भुत कार्यों का करने वाला था, उन का शिक्षक था जो सत्य को सहर्ष ग्रहण करते हैं। उस की ओर बहुत से यहूदी और अन्यजाति आकर्षित हुए। वह मसीह था। और जब पिलातुस ने, हमारे प्रधान लोगों के कहने से उस क्रूस पर मारे जाने के लिए दे दिया, तो उस से प्रेम करने वालों ने उसे छोड़ नहीं दिया; क्योंकि वह तीसरे दिन फिर से उन के सामने जीवित प्रकट हुआ, जैसा कि ईश्वरीय भविष्यद्वक्ताओं ने उस के बारे में इन तथा और दस हज़ार बातों की भविष्यवाणियाँ की थीं। और उस के नाम से मसीही कहलाए गए लोगों का समूह आज भी मिटा नहीं है।”
· छोटा प्लिनी (61-113 ईस्वी), प्राचीन रोम में एक वकील, लेखक, और एक न्यायाधीश था। उस ने 111 ईस्वी, में सम्राट ट्राजन को लिखे अपने एक पत्र में मसीहियों के, इतवार की प्रातः यीशु के मरे हों में से जी उठने की याद में, एकत्रित होने का वर्णन किया। उस ने लिखा कि “मैं कभी भी मसीहियों की जाँच किए जाने के समय उपस्थित नहीं रहा हूँ। इसलिए मुझे उन्हें दिए जाने वाले दण्ड के बारे में पता नहीं है कि वह किस प्रकार का और कितना घोर होता है, न ही मुझे यह पता है कि उन के विरुद्ध जाँच किए जाने का क्या आधार होता है और वह कितना लागू किया जाना चाहिए...।उन्होंने यह भी कहा है कि उनके दोष का कुल योग यही है कि वे एक नियमित रीति से एक निर्धारित दिन (यीशु की जिलाए जाने की याद में इतवार), प्रातः भोर से पहले एकत्रित होते हैं, कि वे मसीह को आदर देने के लिए एक से दूसरे को कुछ पद बोलें, जैसे किसी देवता के लिए बोल रहे हों।”
· गायस सूतोनियुस (70-160 ईस्वी) एक रोमी इतिहासकार था जिस ने रोमी साम्राज्य के आरम्भिक समय में लेख लिखे थे। उस ने सम्राट नीरो की जीवनी “वीटा नीरो” में मसीहियों पर सताव का उल्लेख किया है, और अप्रत्यक्ष रूप में पुनरुत्थान का संदर्भ दिया है: “मसीहियों को ताड़ना दी जाती थी, वे मनुष्यों की ऐसी श्रेणी थे जो एक नए और नुकसान पहुंचाने वाले अन्धविश्वास [पुनरुत्थान] को मानते थे”।
अगले लेख में हम कुछ और तथ्यों और तर्कों पर विचार करेंगे जो प्रभु यीशु के पुनरुत्थान की पुष्टि करते हैं ।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 70
Resurrection of the Dead – 5
Lord Jesus’s Resurrection – Proven (3)
We are learning the implications of the resurrection of the Lord Jesus, in context of the fifth elementary principle, “Resurrection of the Dead” given in Hebrews 6:1-2. We have seen that the Lord’s resurrection was a prophesied event, we are now considering that it is a proven event, and then we will be taking up that it is the power of God. The resurrection of the Lord guarantees the resurrection of the truly Born-Again Christian Believers, and is the pivotal event for the Christian Faith. Without the resurrection of the Lord, there is no basis for the Christian Faith; hence Satan has spread so many false stories to try to disprove or create doubts about the fact of the Lord’s resurrection. In the previous two articles we have considered the various concocted stories that have been spread around and how they do not stand up to the Biblical facts pertaining to them. The resurrection of the Lord Jesus is not just affirmed by God’s Word the Bible, but it is also affirmed by extra-Biblical historical accounts and some other non-Biblical facts. Today we will look at the extra-Biblical historical accounts that affirm the Lord’s resurrection:
Josephus (AD 37-100), was a Jewish historian, he has written in his “Jewish Antiquities” that “Now there was about this time Jesus, a wise man, if it be lawful to call him a man; for he was a doer of wonderful works, a teacher of such men as receive the truth with pleasure. He drew over to him both many of the Jews and many of the Gentiles. He was [the] Christ. And when Pilate, at the suggestion of the principal men among us, had condemned him to the cross, those that loved him at the first did not forsake him; for he appeared to them alive again the third day, as the divine prophets had foretold these and ten thousand other wonderful things concerning him. And the tribe of Christians, so named from him, are not extinct at this day.”
Pliny the Younger (AD 61-113), a lawyer, author, and Magistrate in Ancient Rome, in his letter written to the Roman Emperor Trajan in AD 111, described early Christian gatherings on Sunday mornings, in memory of Jesus’s resurrection. He wrote: “I have never been present at an examination of Christians. Consequently, I do not know the nature of the extent of the punishments usually meted out to them, nor the grounds for starting an investigation and how far it should be pressed…They also declared that the sum total of their guilt or error amounted to no more than this: they had met regularly before dawn on a fixed day [Sunday in remembrance of Jesus’ resurrection] to chant verses alternately amongst themselves in honor of Christ as if to a god.”
Gaius Suetonius (AD 70-160) was a Roman historian who wrote during the early Imperial times of the Roman Empire. In his biography of Emperor Nero, “Vita Nero,” Suetonius mentions the persecution of Christians by indirectly referring to the resurrection: “Punishment was inflicted on the Christians, a class of men given to a new and mischievous superstition [the resurrection].”
In the next article we will take up some more facts and arguments that affirm the resurrection of the Lord Jesus.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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