पाप क्या है? - 1
पिछले तीन सप्ताह से हम
देखते आ रहे हैं कि बाइबल मनुष्यों की कल्पनाओं, धारणाओं,
विचारों, और प्रयासों से रची गई पुस्तक नहीं
है, वरन संसार की अन्य सभी पुस्तकों से, सभी ग्रंथों से पृथक,
अद्भुत, विलक्षण, और
अनुपम रचना है, जो अपने लेखों और गुणों के द्वारा अपने आप को
प्रमाणित करती है कि वह वास्तव में सृष्टिकर्ता परमेश्वर द्वारा सारे संसार के
दृष्टिकोण से, हर काल-समय में कार्यकारी, संसार के सभी लोगों की भलाई और उपयोग के लिए लिखवाया गया सच्चा
विश्वासयोग्य वचन है। इस वर्तमान श्रृंखला के आरंभिक लेख (अगस्त-1 - परमेश्वर का वचन – बाइबल – परिचय) में हमने देखा था कि बाइबल मनुष्य के
प्रति परमेश्वर के प्रेम, मनुष्य के पाप में गिरकर परमेश्वर
से दूर हो जाने, और मनुष्य की इस पाप में पतित स्थिति में भी
उसके प्रति परमेश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति है।
बाइबल बताती है कि किस प्रकार मनुष्य की अपने साथ
संगति को बहाल करने के लिए परमेश्वर ने साधारण, सामान्य, निर्धन
मनुष्य - यीशु के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया, उन्होंने एक
निष्पाप, निष्कलंक जीवन बिताया, और
समस्त मानव जाति के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड,
मृत्यु, को भी अपनी ऊपर ले लिया; वह सभी मनुष्यों के स्थान पर क्रूस पर बलिदान हुए, मारे
गए, गाड़े गए, और तीसरे दिन फिर मृतकों
में से जी उठे। उस लेख में हमने देखा था कि मनुष्य और परमेश्वर की संगति में बाधा
उत्पन्न, एक को दूसरे से पृथक करने वाली समस्या पाप है;
और पाप का निवारण, उसका परमेश्वर और मनुष्य के
मध्य से हटाया जाना ही इस समस्या का समाधान है। आज से हम इन बातों को थोड़ा और
विस्तार से देखना आरंभ करेंगे। विनम्र निवेदन है कि कृपया उस प्रथम लेख को एक बारफिर पढ़ लें, जिससे आगे के लिए सहज हो जाए।
आज हम परमेश्वर के वचन के
अनुसार पाप क्या है, इस पर विचार आरंभ करेंगे। सामान्यतः लोग
समझते हैं कि पाप करने का अर्थ है शारीरिक रीति से कोई जघन्य अपराध करना, जैसे कि हत्या, व्यभिचार, चोरी-डकैती,
लूट, धोखा, इत्यादि।
सामान्य प्रयोग में अभद्र भाषा, छिछोरा व्यवहार या वार्तालाप,
बिना कुछ भी कहे किसी को कुदृष्टि से देखना, सामान्य
व्यवहार में झूठ बोलने अथवा बहाने बनाने या बात को छिपाने, उसे
उसकी सच्चाई से भिन्न स्वरूप में व्यक्त करने आदि को लोग आम तौर से पाप नहीं मानते
हैं। कुछ तो यह भी कहते हैं कि किसी की भलाई के लिए यदि इस प्रकार का व्यवहार कर
भी लिया जाए तो वह भला कार्य ही है, कोई पाप नहीं है। इसलिए
ऐसी बातों के लिए चिंतित नहीं होना चाहिए, उन्हें लेकर किसी
असमंजस में नहीं पड़ना चाहिए। किन्तु ये मनुष्यों की धारणाएं हैं, मनुष्यों द्वारा अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार, अपने आप को संतुष्ट रखने के लिए अपने मन से गढ़ी गई बातें हैं। इनमें से
कोई भी बात बाइबल के पवित्र निष्पाप सृष्टिकर्ता परमेश्वर द्वारा दी गई पाप की
परिभाषा और व्याख्या से मेल नहीं खाती है।
बाइबल के अनुसार पाप, मूलतः, परमेश्वर
के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है “जो कोई पाप करता है, वह व्यवस्था का विरोध करता है;
ओर पाप तो व्यवस्था का विरोध है” (1 यूहन्ना 3:4); किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है
“सब प्रकार का अधर्म तो पाप है . . .” (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी रीति से, किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत, किसी भी
उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। बाइबल के अनुसार पाप में होना एक मानसिक दशा है;
पाप का निवास, उसकी जड़ मनुष्य के मन में है;
उसके बाहरी प्रकटीकरण का आरंभ मनुष्य के मन में से ही होता है,
और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रकट हो
जाता है:
- याकूब
1:14-15 “परन्तु
प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा में खिंच कर, और फंस
कर परीक्षा में पड़ता है। फिर अभिलाषा गर्भवती हो कर पाप को जनती है और पाप
जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है।”
- मरकुस
7:20-23 “फिर
उसने कहा; जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि भीतर से अर्थात मनुष्य के मन
से, बुरी बुरी चिन्ता, व्यभिचार।
चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन,
लोभ, दुष्टता, छल,
लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा,
अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। ये सब
बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।”
- गलतियों
5:19-21 “शरीर
के काम तो प्रगट हैं, अर्थात व्यभिचार, गन्दे काम, लुचपन। मूर्ति पूजा, टोना, बैर, झगड़ा,
ईर्ष्या, क्रोध, विरोध,
फूट, विधर्म। डाह, मतवालापन,
लीलाक्रीड़ा, और इन के जैसे और और काम
हैं, इन के विषय में मैं तुम को पहिले से कह देता हूं
जैसा पहिले कह भी चुका हूं, कि ऐसे ऐसे काम करने वाले
परमेश्वर के राज्य के वारिस न होंगे।”
इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में केवल शारीरिक क्रियाएं
नहीं, उन
क्रियाओं के पीछे के सभी प्रकार के अपवित्र, अधर्मी विचार
पाप हैं - चाहे वे क्रियाओं में परिवर्तित नहीं भी हुए हों, तो
भी। परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी
वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं “परन्तु
मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा,
वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा: और जो कोई अपने भाई को निकम्मा
कहेगा वह महासभा में दण्ड के योग्य होगा; और जो कोई कहे
“अरे मूर्ख” वह नरक की आग के दण्ड के योग्य
होगा।
परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई किसी स्त्री
पर कुदृष्टि डाले वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका।” (मत्ती 5:22, 28)।
इसलिए बाइबल का परमेश्वर, प्रभु यीशु मसीह में
होकर, हमारे मन में बसे पाप को मिटाता है; वह हमारे धर्म को नहीं,
हमारे मन को बदलता है, जहाँ पर पाप की जड़ छुपी हुई है; और
वहाँ से हमारे मनों में जमी हुई पाप की उस जड़ को उखाड़ कर फेंक देता है। मनुष्य
अपनी सामर्थ्य से पाप की इस जड़ को नहीं उखाड़ सकता है; वो
अपने कर्मों और धार्मिकता के कार्यों आदि से कुछ समय के लिए उस जड़ में से नई
डालियाँ फूटना और उन डालियों में नई कोंपलें उत्पन्न होना चाहे दबा लें, किन्तु पापमय विचारों को जो शरीर में तो प्रकट नहीं होते, प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते, उन मन में होने वाले
पापों को नहीं रोक सकता है। पाप की जड़ पर निर्णायक प्रहार और मन में बसे पाप
का स्थाई निवारण केवल प्रभु परमेश्वर के द्वारा ही संभव है।
कल हम बाइबल के अनुसार पाप की
इस व्याख्या को और आगे देखेंगे।
बाइबल पाठ: यिर्मयाह 17:7-11
यिर्मयाह 17:7 धन्य है वह पुरुष जो
यहोवा पर भरोसा रखता है, जिसने परमेश्वर को अपना आधार माना
हो।
यिर्मयाह 17:8 वह उस वृक्ष के समान
होगा जो नदी के तीर पर लगा हो और उसकी जड़ जल के पास फैली हो; जब घाम होगा तब उसको न लगेगा, उसके पत्ते हरे रहेंगे,
और सूखे वर्ष में भी उनके विषय में कुछ चिन्ता न होगी, क्योंकि वह तब भी फलता रहेगा।
यिर्मयाह 17:9 मन तो सब वस्तुओं से
अधिक धोखा देने वाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है;
उसका भेद कौन समझ सकता है?
यिर्मयाह 17:10 मैं यहोवा मन की
खोजता और हृदय को जांचता हूँ ताकि प्रत्येक जन को उसकी चाल-चलन के अनुसार अर्थात
उसके कामों का फल दूं।
यिर्मयाह 17:11 जो अन्याय से धन
बटोरता है वह उस तीतर के समान होता है जो दूसरी चिडिय़ा के दिए हुए अंडों को सेती
है, उसकी आधी आयु में ही वह उस धन को छोड़ जाता है, और अन्त में वह मूढ़ ही ठहरता है।
एक साल में बाइबल:
· भजन 119:89-176
· 1 कुरिन्थियों 8
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