पाप क्या है? - 2
पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर के वचन, बाइबल, में परमेश्वर ने बताया है कि परमेश्वर की पवित्रता एवं निर्मलता के स्तर के अनुसार पाप मनुष्यों के नियमों या बातों का नहीं, वरन परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन है; और हर प्रकार का अधर्म पाप है - वह चाहे किसी भी परिस्थिति के अंतर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। साथ ही हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर की दृष्टि में केवल शारीरिक कार्य ही पाप नहीं हैं; वरन मन की वे सभी भावनाएं, विचार, दृष्टिकोण, इच्छाएं, आदि, जो परमेश्वर की व्यवस्था के विरुद्ध हैं, उससे असंगत हैं, और जो किसी भी प्रकार के अधर्म के लिए उकसाती या प्रेरित करती हैं, वे भी पाप हैं। चाहे वे बाहरी रीति से व्यक्त न भी की गई हों, या शारीरिक कार्यों के द्वारा कार्यान्वित न भी की गई हों, तो भी, परमेश्वर की दृष्टि में वे उतना ही जघन्य पाप हैं, जितना उनके बाहरी प्रकटीकरण अथवा शारीरिक कार्यों में व्यक्त होने के द्वारा माना जाता। अर्थात, मन में पापमय विचार रखना भी शरीर द्वारा उस पाप को कर देने के समान ही पाप है। परमेश्वर, उस पापमय विचार को मन में स्थान देने को, उस पाप को अपने जीवन में स्थान देने के तुल्य दण्डनीय मानता है, और उसके अनुसार ही व्यक्ति का आँकलन करता है।
पाप, पवित्रता, और निर्मलता का यह सर्वोच्च स्तर, संसार भर में अनुपम है। यह मापदण्ड केवल बाइबल में, और केवल बाइबल के परमेश्वर में देखने को मिलता है। संसार के किसी भी अन्य ग्रंथ अथवा मान्यताओं में पवित्रता का, निष्पाप होने का ऐसा उच्च स्तर देखने को नहीं मिलता है। एक बार को इस स्तर को स्वीकार करना, इसका पालन करना बहुत अटपटा लगता है, क्योंकि किसी भी मनुष्य के लिए इसके सामने खड़े रह पाना, इसका निर्वाह कर पाना असंभव है। इसलिए ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने जान-बूझकर मनुष्यों के सामने एक असंभव बात ला कर रख दी, और मनुष्यों को इन अजेय मानकों के द्वारा ऐसा दोषी ठहरा दिया कि उनके लिए उस के पास कभी कोई समाधान हो ही नहीं सकता है। क्या परमेश्वर ने जान-बूझकर मनुष्य को वास्तव में ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जो मनुष्य के लिए असंभव है?
यदि बाइबल में दिए गए पाप के आरंभ को देखें, उसकी पृष्ठभूमि का अध्ययन करें, तो यह स्पष्ट होता है कि इन मानकों को स्थापित करने के द्वारा परमेश्वर ने मनुष्य को फँसाया नहीं है, वरन उसे पाप से निकल पाने का मार्ग समझने के लिए तैयार किया है, मनुष्य को उसके प्रति परमेश्वर के असीम, अवर्णनीय प्रेम की ओर मुड़ने और समर्पित होने के लिए मार्ग दिया है। बाइबल के अनुसार, मनुष्य द्वारा किया गया पहला पाप क्या था; और कैसे हुआ? यह वृतांत हमको बाइबल की पहली पुस्तक, उत्पत्ति, के पहले तीन अध्यायों में मिलता है, और पाठक यदि इन अध्यायों को स्वयं पढ़ लें, तो उनके लिए बात को समझना और सहज हो जाएगा। संक्षेप में, परमेश्वर ने छः दिन में सृष्टि की रचना पूरी करने के बाद उसका अवलोकन करके उसे “बहुत ही अच्छा” कहा (उत्पत्ति 1:31)। परमेश्वर की इस बहुत ही अच्छी रचना में मनुष्य भी सम्मिलित था, जिसे परमेश्वर ने शेष सृष्टि के समान अपने शब्द के बोलने के द्वारा नहीं, वरन अपने हाथों से रचा, और उसमें अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया (उत्पत्ति 1:27; 2:7)। सृष्टि और मनुष्य की उत्पत्ति के समय पृथ्वी पर कोई पाप नहीं था। मनुष्य सृष्टि से ही नर और नारी, जिन्हें आदम और हव्वा नाम दिया गया, रूप में था; परमेश्वर ने उसके लिए उस “बहुत ही अच्छी” पृथ्वी पर, एक वाटिका भी लगाई, जहाँ पर परमेश्वर आदम और हव्वा से संगति करने के लिए आता था; और उन्हें उस वाटिका की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी दी। उस वाटिका में परमेश्वर ने दो विशेष वृक्ष भी लगाए; एक था “जीवन का वृक्ष,” और दूसरा था “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” (उत्पत्ति 2:9)। परमेश्वर ने मनुष्य को वाटिका के सभी फलों को खाने की खुली छूट दी, किन्तु “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” के फल को खाने से मना किया (उत्पत्ति 2:16-17), और सचेत किया कि जिस दिन उसने उस फल को खाया, वह मृत्यु के अधीन आ जाएगा।
उत्पत्ति 3 अध्याय में हम देखते हैं कि शैतान ने मनुष्य को अपने जाल में फँसाने, और उसे पाप में गिराने, परमेश्वर से पृथक कर देने के लिए सर्प का रूप लिया, और हव्वा के मन में परमेश्वर के विरुद्ध शंका उत्पन्न की; उसके मन में उनके प्रति परमेश्वर के प्रेम के विषय संदेह उत्पन्न किया; उसके मन में परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अनुसार नहीं, वरन अपनी ही दृष्टि, बुद्धि, और समझ के अनुसार जागृत होने वाली भावनाओं और विचारों को कार्यान्वित करने को उकसाया। हव्वा शैतान के इस प्रलोभन में आ गई, उसने परमेश्वर द्वारा उन्हे दी गई व्यवस्था का पालन नहीं किया; वरन वह किया जो उसका मन उसे कहने लग गया था; और उसने “भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष” के फल को लेकर स्वयं भी खा लिया, और आदम को भी खिला दिया (उत्पत्ति 3:6-7)। उनकी यह परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति अनाज्ञाकारिता ही संसार का प्रथम पाप थी। पाप उस फल में नहीं था; पाप उस फल के प्रति परमेश्वर के निर्देशों का पालन न करने से था। ध्यान कीजिए, शैतान ने उन्हें पाप करने के लिए बाध्य नहीं किया, किसी बात द्वारा उन्हें डरा या धमका कर उनसे पाप नहीं करवाया; वरन उनके मनों में परमेश्वर के नियम, उसकी व्यवस्था के प्रति संदेह उत्पन्न किया; उन्हें परमेश्वर की योजनाओं और बातों के विरुद्ध उकसा कर उनके मनों में परमेश्वर के कहे कि विपरीत विचार उत्पन्न किए, और फिर अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के द्वारा उन्हें उनके मन के विचारों, मनों की बात, उनके मनों में जागृत लालच और अभिलाषा को कार्यान्वित करने के लिए आगे बढ़ा दिया। आदम और हव्वा के द्वारा अपने मन की सुनने के कारण पाप ने पृथ्वी में और सृष्टि में प्रवेश किया (रोमियों 8:19-22), और उसके दुष्परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं।
इसीलिए, परमेश्वर ने अपने वचन में लिखवाया है कि पाप परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन है; और परमेश्वर मन में आने वाले पापमय विचारों को भी शरीर में किए गए पाप के समान ही जघन्य और दण्डनीय मानता है। वास्तविकता यही है कि शरीर में किया गया हर पाप पहले हमारे मन, ध्यान, भावनाओं, और विचारों में जन्म लेता तथा निवास करता है; एक लालसा, एक अभिलाषा बनकर हमारे अंदर घर किए रहता है, पलता रहता है, हमें अंदर ही अंदर उसे कार्यान्वित करने के लिए तैयार करता रहता है। और फिर उपयुक्त समय तथा अवसर मिलने पर हम उस पाप को अपने शरीर द्वारा कार्यान्वित कर देते हैं; पाप तो हम में उस पापमय विचार के साथ ही आ गया था, बस प्रकट समय और अवसर के अनुसार कुछ समय पश्चात हुआ। यदि मन में पापमय बातों को जन्म ही नहीं लेने दिया जाए, या उत्पन्न होते ही उन्हें तुरंत मिटा दिया जाए, तो शरीर भी पाप का व्यवहार नहीं करेगा। इसीलिए प्रभु यीशु हमारे मनों को बदलता है; प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करने वाले व्यक्ति के अंदर, उसकी सहायता और मार्गदर्शन के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर निवास करने लगता है।
वास्तविकता यही है कि मन ही शरीर को नियंत्रित करता है; न कि शरीर मन को। शरीर के कार्यों और प्रयासों के द्वारा मन को स्थाई रीति से नियंत्रित तथा परिवर्तित कर पाना असंभव है। प्रभु यीशु मसीह जब व्यक्ति के मन को बदलता है, तो साथ ही शरीर के कार्य और व्यवहार भी उस बदले हुए मन को प्रतिबिंबित करने लग जाते हैं। यदि आपने आज तक प्रभु यीशु मसीह को आपका मन परिवर्तित करने की अनुमति नहीं दी है, तो आप अभी, इसी समय स्वेच्छा, और सच्चे तथा समर्पित मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने मन, ध्यान, भावनाओं, विचार, और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर उनके दण्ड को मेरे स्थान पर सह लिया, मेरे पापों की पूरी कीमत क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा चुका दी है। कृपया मेरे पाप क्षमा करें, मेरे मन को बदलें, मुझे अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाएं, और अपने साथ बना कर रखें” के द्वारा कर सकते हैं, पापों के दुष्परिणामों से मुक्त होकर अनन्त आशीष के स्वर्गीय जीवन में प्रवेश कर सकते हैं।
बाइबल पाठ: भजन 51:1-12
भजन संहिता 51:1 हे परमेश्वर, अपनी करूणा के अनुसार मुझ पर अनुग्रह कर; अपनी बड़ी दया के अनुसार मेरे अपराधों को मिटा दे।
भजन संहिता 51:2 मुझे भलीं भांति धोकर मेरा अधर्म दूर कर, और मेरा पाप छुड़ाकर मुझे शुद्ध कर!
भजन संहिता 51:3 मैं तो अपने अपराधों को जानता हूं, और मेरा पाप निरन्तर मेरी दृष्टि में रहता है।
भजन संहिता 51:4 मैं ने केवल तेरे ही विरुद्ध पाप किया, और जो तेरी दृष्टि में बुरा है, वही किया है, ताकि तू बोलने में धर्मी और न्याय करने में निष्कलंक ठहरे।
भजन संहिता 51:5 देख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा।
भजन संहिता 51:6 देख, तू हृदय की सच्चाई से प्रसन्न होता है; और मेरे मन ही में ज्ञान सिखाएगा।
भजन संहिता 51:7 जूफा से मुझे शुद्ध कर, तो मैं पवित्र हो जाऊंगा; मुझे धो, और मैं हिम से भी अधिक श्वेत बनूंगा।
भजन संहिता 51:8 मुझे हर्ष और आनन्द की बातें सुना, जिस से जो हडि्डयां तू ने तोड़ डाली हैं वह मगन हो जाएं।
भजन संहिता 51:9 अपना मुख मेरे पापों की ओर से फेर ले, और मेरे सारे अधर्म के कामों को मिटा डाल।
भजन संहिता 51:10 हे परमेश्वर, मेरे अन्दर शुद्ध मन उत्पन्न कर, और मेरे भीतर स्थिर आत्मा नये सिरे से उत्पन्न कर।
भजन संहिता 51:11 मुझे अपने साम्हने से निकाल न दे, और अपने पवित्र आत्मा को मुझ से अलग न कर।
भजन संहिता 51:12 अपने किए हुए उद्धार का हर्ष मुझे फिर से दे, और उदार आत्मा देकर मुझे सम्भाल।
एक साल में बाइबल:
· भजन 120; 121; 122
· 1 कुरिन्थियों 9
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