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रविवार, 25 मई 2014

परिवर्तन


   जब कभी मुझे और मेरे पति को किसी विदेश यात्रा पर जाना होता है तो हम अपने बैंक जाकर हमारे देश की मुद्रा - डॉलर के बदले उस देश की मुद्रा ले लेते हैं, जिससे हमें वहाँ पर अपने खर्चों का भुगतान करने में कोई परेशानी नहीं होने पाए। मुद्रा का यह परिवर्तन हमारे लिए परेशानियों से बचने में सहायक होता है।

   जब हम मसीही विश्वास में आते हैं तो एक अन्य प्रकार का परिवर्तन हमारे अन्दर होता है। हमारे जीवन भी मुद्रा के समान हैं; पुराने शारीरिक जीवन से निकल कर आत्मिक जीवन में आने के बाद हमारे जीवनों को भी एक नया स्वरूप लेना चाहिए। प्रभु यीशु में होकर हम अपने पुराने शारीरिक जीवन के स्थान पर प्रभु से एक नया आत्मिक जीवन पा लेते हैं; ऐसा जीवन जो प्रभु के आत्मिक राज्य में उपयोग होने के योग्य होता है। अब हम इस संसार के लिए अपनी शारीरिक लालसाओं के अनुसार अपने आप को खर्च करने की बजाए, प्रभु यीशु के लिए उसके आत्मिक राज्य में अपने आप को खर्च करने के योग्य हो जाते हैं।

   इस परिवर्तन का एक बहुत अच्छा उदाहरण है प्रेरित पौलुस का जीवन। पौलुस, जो उस समय शाऊल के नाम से जाना जाता था, का जीवन दमिश्क के मार्ग पर नाट्कीय रूप से बदला गया (प्रेरितों 9), और उसके बाद वह अपना जीवन एक बिलकुल ही भिन्न रीति से प्रभु के लिए खर्च करने लगा। पहले वो मसीही विश्वासियों के पीछे जाकर, उन्हें खोजकर, बन्दी बना कर लाता था जिससे उन्हें उनके मसीही विश्वास के लिए प्रताड़ित करवा सके, उन्हें बन्दीगृह में डलवा सके या मरवा सके। अब अपने परिवर्तन के बाद वह लोगों के सामने मसीही विश्वास की सार्थकता और अनिवार्यता को प्रस्तुत करने लगा जिससे वे पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु में मिलने वाली पाप क्षमा के द्वारा मसीही विश्वास में आ सकें और उस में स्थिर हो सकें। उसका यह परिवर्तित जीवन अब मसीही विश्वास के बढ़ावे और मसीही विश्वासियों की भलाई के लिए खर्च होने लगा। पौलुस ने कुरिन्थुस में स्थित मण्डली को लिखी अपनी पत्री में लिखा, "मैं तुम्हारी आत्माओं के लिये बहुत आनन्द से खर्च करूंगा, वरन आप भी खर्च हो जाऊंगा..." (2 कुरिन्थियों 12:15); अब उसका सारा जीवन अपनी इन आत्मिक सन्तानों की भलाई में खर्च हो जाने के लिए समर्पित था (पद 14, 19)।

   सांसारिक शारीरिक जीवन से मसीही विश्वास के आत्मिक जीवन में परिवर्तित होने का तात्पर्य केवल हमारे अनन्तकाल के गन्तव्य को बदलना ही नहीं है; वरन इसका तात्पर्य है अपने जीवन के प्रत्येक दिन को मसीह यीशु के आत्मिक राज्य की बढ़ोतरी एवं उसके लोगों की भलाई के लिए खर्च करना। - जूली ऐकैरमैन लिंक


मन परिवर्तन एक क्षण में होता है, उस के द्वारा होने वाले जीवन परिवर्तन होने में सारा जीवनकाल लग जाता है।

और और बातों को छोड़कर जिन का वर्णन मैं नहीं करता सब कलीसियाओं की चिन्‍ता प्रति दिन मुझे दबाती है। किस की निर्बलता से मैं निर्बल नहीं होता? किस के ठोकर खाने से मेरा जी नहीं दुखता? - 2 कुरिन्थियों 11:28-29

बाइबल पाठ: 2 कुरिन्थियों 12:14-21
2 Corinthians 12:14 देखो, मैं तीसरी बार तुम्हारे पास आने को तैयार हूं, और मैं तुम पर कोई भार न रखूंगा; क्योंकि मैं तुम्हारी सम्पत्ति नहीं, वरन तुम ही को चाहता हूं: क्योंकि लड़के-बालों को माता-पिता के लिये धन बटोरना न चाहिए, पर माता-पिता को लड़के-बालों के लिये। 
2 Corinthians 12:15 मैं तुम्हारी आत्माओं के लिये बहुत आनन्द से खर्च करूंगा, वरन आप भी खर्च हो जाऊंगा: क्या जितना बढ़कर मैं तुम से प्रेम रखता हूं, उतना ही घटकर तुम मुझ से प्रेम रखोगे? 
2 Corinthians 12:16 ऐसा हो सकता है, कि मैं ने तुम पर बोझ नहीं डाला, परन्तु चतुराई से तुम्हें धोखा देकर फंसा लिया। 
2 Corinthians 12:17 भला, जिन्हें मैं ने तुम्हारे पास भेजा, क्या उन में से किसी के द्वारा मैं ने छल कर के तुम से कुछ ले लिया? 
2 Corinthians 12:18 मैं ने तितुस को समझाकर उसके साथ उस भाई को भेजा, तो क्या तीतुस ने छल कर के तुम से कुछ लिया? क्या हम एक ही आत्मा के चलाए न चले? क्या एक ही लीक पर न चले? 
2 Corinthians 12:19 तुम अभी तक समझ रहे होगे कि हम तुम्हारे सामने प्रत्युत्तर दे रहे हैं, हम तो परमेश्वर को उपस्थित जान कर मसीह में बोलते हैं, और हे प्रियों, सब बातें तुम्हारी उन्नति ही के लिये कहते हैं। 
2 Corinthians 12:20 क्योंकि मुझे डर है, कहीं ऐसा न हो, कि मैं आकर जैसे चाहता हूं, वैसे तुम्हें न पाऊं; और मुझे भी जैसा तुम नहीं चाहते वैसा ही पाओ, कि तुम में झगड़ा, डाह, क्रोध, विरोध, ईर्ष्या, चुगली, अभिमान और बखेड़े हों। 
2 Corinthians 12:21 और मेरा परमेश्वर कहीं मेरे फिर से तुम्हारे यहां आने पर मुझ पर दबाव डाले और मुझे बहुतों के लिये फिर शोक करना पड़े, जिन्हों ने पहिले पाप किया था, और उस गन्‍दे काम, और व्यभिचार, और लुचपन से, जो उन्होंने किया, मन नहीं फिराया।

एक साल में बाइबल: 

  • अय्यूब 38-42


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