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बुधवार, 16 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 3

बाइबल के अनुसार भला कौन है?

सामान्यतः मनुष्य यह सोचता है कि भले काम करने के द्वारा, भला व्यवहार करने के द्वारा, लोगों में अपनी भलाई के कारण प्रसिद्धि और प्रशंसा का पात्र बनने के द्वारा, वह परमेश्वर को भी प्रभावित कर लेगा, उसे अपने पक्ष में कर लेगा, और उसे स्वीकार्य हो जाएगा। किन्तु मनुष्य की यह धारणा उसकी कल्पना मात्र ही है, उससे अधिक कुछ नहीं। हमने पिछले दो लेखों में परमेश्वर के वचन बाइबल में से देखा है परमेश्वर के दृष्टिकोण से, उसके वचन की शिक्षाओं के अनुसार भला और परमेश्वर को स्वीकार्य होने का निर्णय मनुष्यों के माप-दंडों के अनुसार नहीं, वरन परमेश्वर के वचन में दिए गए उसके अनन्तकाल के लिए स्थापित और अटल मानकों के अनुसार होगा। साथ ही हमने बाइबल से यह भी देखा है कि अपनी स्वाभाविक, अपरिवर्तित शारीरिक दशा में मनुष्य अपनी माँ के गर्भ में आने से लेकर अपनी मृत्यु तक पाप ही में रहता है, और अपनी पाप की उस दशा में परमेश्वर को अस्वीकार्य रहता है। पाप की इस दशा में रहते हुए मनुष्य अपने प्रयासों से ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता है जो उसे धर्मी, पाप से शुद्ध, और परमेश्वर से संगति रखने योग्य, परमेश्वर को स्वीकार्य बन सके। मनुष्य की वास्तविक दशा दिखाने के साथ ही, बाइबल यह भी बताती है कि वास्तव में भला कौन है। 

बाइबल की समझने में कठिन बातों पर विचार करते समय हमें यह भी कभी नहीं भूलना चाहिए कि परमेश्वर सिद्ध, पवित्र, पक्षपात रहित, और खरा है, न्यायी है। उसकी बातों में, उसके न्याय में कोई पक्षपात, दोगलापन, या खोट नहीं है; चाहे उसकी बातें और न्याय हमारी समझ में आएं अथवा न आएं।

प्रभु यीशु मसीह ने ही यह भी बताया कि उनके अनुसार, अर्थात परमेश्वर के अनुसार भला कौन है: यीशु ने उस से कहा, तू मुझे उत्तम क्यों कहता है? कोई उत्तम नहीं, केवल एक अर्थात परमेश्वर” (मरकुस 10:18)। प्रभु यीशु द्वारा कही गई इस बात में, मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवादउत्तमकिया गया है, उसका शब्दार्थ है good/भला और अंग्रेजी के अनुवादों में यहाँ पर “good” शब्द ही प्रयोग किया गया है।  

परमेश्वर के वचन से प्राप्त होने वाली भले होने की इस परिभाषा से एक बात और निकलकर सामने आती है, इस परिभाषा में निहित है कि जो भी भला होगा, वह स्वतः ही परमेश्वर के तुल्य, या समान ठहरेगा। यह न केवल किसी भी मनुष्य के लिए, उसके किसी भी प्रयास के द्वारा बन पाना असंभव है, वरन मनुष्य की पापमय दशा से उसके भले न होने की बात की भी पुष्टि है, जिसे हमने पिछले लेख में देखा है। 

 अब यहाँ पर एक बड़ा विरोधाभास आता हुआ लगता है; प्रभु यीशु मसीह ने अनन्त जीवन का मार्ग जानने के लिए उसके पास आए हुए धनी जवान से कहा था, उसने उस से कहा, तू मुझ से भलाई के विषय में क्यों पूछता है? भला तो एक ही है; पर यदि तू जीवन में प्रवेश करना चाहता है, तो आज्ञाओं को माना कर” (मत्ती 19:17); अर्थात, प्रभु यीशु मसीह के अनुसार, आज्ञाओं के पालन से जीवन में प्रवेश मिल सकता है। प्रभु जिन आज्ञाओं के पालन की बात कर रहा था, वे पुराने नियम में दी गई परमेश्वर की व्यवस्था का एक भाग, दस आज्ञाओं के पालन के बारे में है। 

न केवल यहाँ पर प्रभु यीशु मसीह ने, लेकिन पुराने नियम में परमेश्वर ने भी कहा है कि उसके नियम और विधियाँ मानने से उसके लोग जीवित रहेंगे (लैव्यव्यवस्था 18:5; नहेम्याह 9:29; यहेजकेल 20:11; आदि), जिसकी पुष्टि नए नियम में पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित द्वारा भी करवाई है (रोमियों 10:5) 

अब एक ओर वचन कह रहा है कि व्यवस्था के पालन से जीवन है, दूसरी ओर यह भी कह रहा है कि उद्धार कर्मों से नहीं विश्वास से है, और कोई मनुष्य भला नहीं है, भलाई नहीं कर सकता है? तो इस विरोधाभास का समाधान क्या है?

इसके लिए दूसरा प्रश्न जानना और समझना बहुत महत्वपूर्ण है, कि जिस व्यवस्था के पालन की बात की जा रही है, वह व्यवस्था क्या है? यदि हम इस आधारभूत प्रश्न को नहीं समझेंगे, तो हम गलतियों में पड़ जाएंगे, शैतान द्वारा भरमा और भटका दिए जाएंगे, जैसा कि वह बहुत से लोगों के साथ करता चला आ रहा है।

व्यवस्था क्या है, इसे हम अगले लेख में देखेंगे। इन बातों की सही समझ के लिए हमें यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि परमेश्वर न झूठ बोलता है, न ही उसमें कोई दोगलापन है, और न ही उसके वचन में कोई विरोधाभास है। उसके वचन की बातों की सही समझ के लिए किसी भी बात को उसके संदर्भ से बाहर लेकर उसकी कोई भी व्याख्या कभी नहीं करनी चाहिए। साथ ही, हमेशा ही उस विषय से संबंधित वचन में दी गई अन्य बातों का भी ध्यान रखते हुए यह सुनिश्चित करके व्याख्या करनी चाहिए कि वचन की सभी बातों का उसमें समावेश हो, किसी भी बात को वह व्याख्या काटे नहीं, वह व्याख्या बाइबल की किसी भी सच्चाई के ज़रा भी विमुख न हो। मसीह के सभी अनुयायियों को सदा ही परमेश्वर के वचन पर पूरा भरोसा बनाए रखना चाहिए। इसलिए यदि आप कभी भी किसी भी रीति से परमेश्वर के वचन पर अविश्वास के, उसकी गलत व्याख्या के, उससे संबंधित गलत शिक्षाओं को बताने या सिखाने के दोषी हैं, तो प्रभु के समाने अपनी इस गलती को स्वीकार करके, उसके लिए पश्चाताप करके, प्रभु से उसके लिए क्षमा माँग लीजिए, और उससे विनती कीजिए के आपको वचन की सही समझ प्रदान करे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • व्यवस्थाविवरण 28-29
  • मरकुस 14:54-72

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English Translation


Who is good according to the Bible?

    Generally people think that by doing good deeds, through good behaviour, because of their being praised and being appreciated by others for their goodness, they can also impress God, get His favor, and make themselves acceptable to Him. But this is nothing more than man’s imagination, his hoping against hope for the impossible. We've seen in the last two articles, from God's Word, the Bible, that from God's point of view, the decision of what is good and acceptable to God is only according to the teachings of His eternal, established and unchanging standards given in His unchanging Word; not according to the standards of man. At the same time, as we have also seen from the Bible, every person in his natural, unregenerate physical condition is in sin from the time of his conception in his mother's womb, until his death; and because of that state of his sin, he remains unacceptable to God. Because of this inherent, indwelling state of sin, there is nothing man can do by his own efforts to make himself righteous, cleansed of sin, and worthy of fellowship with God, acceptable to God. The Bible, besides showing the true condition of man, also reveals who actually is good.

    As an aside, before proceeding further, we need to always bear in mind that when considering things difficult to understand in the Bible, we should never forget that God is perfect, holy, non-partisan, upright, and just. There is no partiality, hypocrisy, or error in what He says, nor in his justice; whether or not we are able to understand His words, instructions, and His justice.

    The Lord Jesus Christ has said who is good according to Him, i.e., according to God: “So Jesus said to him, "Why do you call Me good? No one is good but One, that is, God." (Mark 10:18). Another thing apparent from this definition of good given in God's Word, is that implied in this definition by the Lord Jesus is the fact that whoever is good, will automatically be God, or equal to God. Not only is this impossible for any person to be, despite any of his efforts, but it is also an affirmation of man's inability to be good due to his sinful condition, as we have seen in the previous article.

    Now there seems to be a big contradiction here; The Lord Jesus Christ told the rich young man who had come to Him, seeking the way to eternal life, “So He said to him, "Why do you call Me good? No one is good but One, that is, God. But if you want to enter into life, keep the commandments” (Matthew 19:17); i.e., according to the Lord Jesus Christ’s assurance in this statement, it seems that obedience to the commandments can provide entry into life. The commandments that the Lord is talking about here are the Ten Commandments, a part of God's Law in the Old Testament.

    Not just the Lord Jesus Christ here, but God also said in the Old Testament that obeying His Law and statutes would ensure life for His people (Leviticus 18:5; Nehemiah 9:29; Ezekiel 20:11; etc.); and this is confirmed In the New Testament by the Holy Spirit through the apostle Paul (Romans 10:5).

    Now on the one hand, God’s Word is saying that there is life in following the Law; and on the other hand, it is also saying that salvation is not by works but by faith, and no man is good, cannot do good? So, what is the solution to this paradox?

    For this it is very important to know and understand, that what is the Law that is being talked about here; and what does the call to obeying the Law mean? If we do not understand this fundamental question, we will fall into error, be misguided and misled by Satan, as he has been doing to so many people.

    What the Law is, we will see it in the next article. For a proper understanding of these things, we must keep in mind that God does not lie, there is no hypocrisy in Him, and there is no contradiction in His Word. For a proper understanding of the meaning of His Word One should never take anything out of its context and interpret it out of its context. At the same time, one must always take into account the other things in the Scriptures relating to that subject, making sure that the interpretation satisfies all the things stated in the Scriptures about the subject. That interpretation should never contradict any part of God’s Word; neither should it in any manner be inconsistent with anything in any part of the Bible, and it should not deviate even the slightest from the truth of God’s Word. All followers of Christ must at all times have complete faith in the Word of God. So, if you have ever been guilty of distrusting God's word in any way, of misinterpreting it, or of telling or giving wrong teachings, then by confessing your mistake to the Lord, and repenting for it, apologize to Him for it, and ask Him to give you a proper understanding of the Word.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
 

Read the Bible in a Year:

• Deuteronomy 28-29

• Mark 14:54-72


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