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मसीही विश्वासी - सुसमाचार प्रचार के लिए तैयार
मसीही विश्वास एवं शिष्यता के अध्ययन के अंतर्गत हम मरकुस 3:14-15 से प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों के लिए रखे गए प्रयोजनों पर मनन कर रहे हैं। शिष्यों के लिए प्रभु के दूसरे प्रयोजन “वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें” के पहले और दूसरे भाग को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं, और आज इस दूसरे प्रयोजन के तीसरे भाग, प्रभु जब और जहाँ उन्हें भेजें, वे वहाँ जाकर “प्रचार करें” को देखेंगे।
प्रचार करना, पुराने तथा नए नियम में, समस्त पवित्र शास्त्र में प्रभु के लोगों की एक प्रमुख गतिविधि रही है। प्रभु यीशु का अग्रदूत, “यूहन्ना आया, जो जंगल में बपतिस्मा देता, और पापों की क्षमा के लिये मन फिराव के बपतिस्मा का प्रचार करता था” (मरकुस 1:4)। जब प्रभु यीशु की सेवकाई का समय आया, तब “यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। अपने बारह शिष्यों को चुनने के बाद, प्रभु ने उन्हें कुछ निर्देश देकर दो-दो करके भेजा (मरकुस 6:7-11), “और उन्होंने जा कर प्रचार किया, कि मन फिराओ। और बहुतेरे दुष्टात्माओं को निकाला, और बहुत बीमारों पर तेल मलकर उन्हें चंगा किया” (मरकुस 6:12-13)। और अपनी पृथ्वी की सेवकाई के अंत, अपने स्वर्गारोहण के समय प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को यरूशलेम से आरंभ करके संसार के छोर तक उसके गवाह होने (प्रेरितों 1:8) की ज़िम्मेदारी सौंपी, “और उसने उन से कहा, तुम सारे जगत में जा कर सारी सृष्टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो। जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा” (मरकुस 16:15-16)। उन्हें सारे संसार में जाकर उद्धार के सुसमाचार को बताना था; और तब से लेकर आज दिन तक प्रभु यीशु के शिष्य, विभिन्न विधियों एवं उपलब्ध माध्यमों से, सारे संसार में यही करते आ रहे हैं।
न केवल प्रभु ने शिष्यों से प्रचार करने को कहा, वरन उन्हें उस प्रचार का मुख्य विषय, उसकी विधि, और संबंधित बातों का क्रम भी बताया “यीशु ने उन के पास आकर कहा, कि स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं” (मत्ती 28:18-20); “और उन्होंने निकलकर हर जगह प्रचार किया, और प्रभु उन के साथ काम करता रहा, और उन चिह्नों के द्वारा जो साथ साथ होते थे वचन को, दृढ़ करता रहा। आमीन” (मरकुस 16:20)। मत्ती और मरकुस रचित सुसमाचारों के अंत में दी गई प्रभु की ये बातें, बहुत महत्वपूर्ण और हमारे लिए बहुत ध्यान देने योग्य शिक्षाएं हैं, क्योंकि प्रभु का यही निर्देश, जगत के अंत तक, सफल और प्रभावी प्रचार की कुंजी है; और जब शिष्य प्रभु के कहे के अनुसार करते रहे, तो, जैसा उपरोक्त मरकुस 16:20 में लिखा है, प्रभु भी उनके साथ होकर कार्य करता रहा, उनके प्रचार को सफल और प्रभावी करता रहा। इसका प्रमाण हम कुछ ही समय पश्चात प्रेरितों के काम में लिखी एक बात में देखते हैं, “और उन्हें न पाकर, वे यह चिल्लाते हुए यासोन और कितने और भाइयों को नगर के हाकिमों के सामने खींच लाए, कि ये लोग जिन्होंने जगत को उलटा पुलटा कर दिया है, यहां भी आए हैं” (प्रेरितों 17:6) - यह लगभग 52 ईसवी, अर्थात प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण से लगभग 18-19 वर्ष बाद की बात है। तात्पर्य यह कि प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के दो दशकों के भीतर ही, प्रभु के शिष्यों ने अपने प्रचार द्वारा “जगत को उलटा पुलटा” कर दिया था, यानि कि जगत में खलबली मचा दी थी।
उस समय उन प्रचारकों के पास न तो यात्रा के कोई विशेष साधन थे, न संपर्क एवं संचार की कोई व्यवस्था थी, न ही सम्पूर्ण वचन लिखित और संकलित रूप में जैसा आज हमारे हाथों में है उपलब्ध था। अभी तो सारी पत्रियाँ लिखी भी नहीं गई थीं! उन आरंभिक प्रचारकों के लिए भी सुसमाचार प्रचार करना सहज अथवा सरल नहीं था; उनको भी बहुत विरोध और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। किन्तु फिर भी प्रभु द्वारा दिए गए सुसमाचार प्रचार के इस साधारण से सूत्र (फौरमुले), इस विधि ने उनके प्रचार को बहुत प्रभावी और सामर्थी बना दिया था। जो काम इस विधि के द्वारा तब किया गया, वही आज भी संभव है, क्योंकि प्रभु के समान उसका वचन, उसकी बात युगानुयुग एक सी है, कभी बदलती नहीं है और हर युग, हर स्थान, हर सभ्यता के लिए सदा प्रभावी और उपयोगी है। इसलिए प्रभावी सुसमाचार प्रचार के लिए आज हमें भी मनुष्यों द्वारा बनाई गई और सिखाई जाने वाली बातों के स्थान पर प्रभु के इस सुसमाचार प्रचार के उपाय को जानने, समझने, और उसका पालन करने की आवश्यकता है। अगले लेख में हम इसी के बारे में कुछ और देखेंगे।
यदि आप प्रभु के शिष्य हैं, और उसके लिए उपयोगी होना चाहते हैं, तो प्रभु के वचन के अध्ययन करने और प्रभु से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहने के लिए प्रार्थना करते रहिए। उसके वचन, बाइबल, का अध्ययन करते समय, बाइबल में आपकी सेवकाई से संबंधित दी गई बातों को सीखने, समझने, और उनका पालन करने पर विशेष ध्यान दीजिए - वे ही प्रभु द्वारा उस सेवकाई के प्रभावी रीति से किए जाने, उसके प्रभु के लिए फलवंत होने का सही मार्ग हैं। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- अय्यूब 41-42
- प्रेरितों 16:22-40
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Christian Disciple – Ready to Preach
Under the heading of Christian Faith and Discipleship, we are studying the purposes that the Lord Jesus had stated for His disciples in Mark 3:13-15, at the time of choosing them. In the previous articles we have seen about the initial two parts of the second purpose of the Lord Jesus for His disciples. Today we will look at the third part of this second purpose, that as and when the Lord sends them, they are to be ready to go wherever He sends them, and they should be prepared “to preach.”
To preach, in the Old and the New Testament, has always been one of the major activities of God’s people. We see that the fore-runner of the Lord Jesus Christ, John the Baptist, preached “John came baptizing in the wilderness and preaching a baptism of repentance for the remission of sins” (Mark 1:4). When the time came for the Lord Jesus to begin His earthly ministry, He preached, “Now after John was put in prison, Jesus came to Galilee, preaching the gospel of the kingdom of God, and saying, "The time is fulfilled, and the kingdom of God is at hand. Repent, and believe in the gospel."” (Mark 1:14-15). After choosing His twelve disciples, the Lord gave them some instructions and sent them out in pairs (Mark 6:7-11), and they preached “So they went out and preached that people should repent. And they cast out many demons, and anointed with oil many who were sick, and healed them” (Mark 6:12-13). Later, they had to go into the whole world, preach and share the gospel of salvation; and since then, till date, the disciples of the Lord Jesus, through various methods and resources, have been doing the same all over the world.
Not only did the Lord Jesus ask them to preach, but He also gave to them the main theme of their preaching, the method of preaching it, and the sequence of the various things related to that preaching “And Jesus came and spoke to them, saying, "All authority has been given to Me in heaven and on earth. Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, teaching them to observe all things that I have commanded you; and lo, I am with you always, even to the end of the age." Amen” (Matthew 28:18-20); “And they went out and preached everywhere, the Lord working with them and confirming the word through the accompanying signs. Amen” (Mark 16:20). These instructions, given at the end of the Gospel accounts written by Matthew and Mark, contain some very important teachings, because these instructions are the key to a successful and effective preaching ministry, till the end of the world. It is written in in Mark 16:20, that when the disciples did according to these instructions, the Lord too worked along with them, and rendered their ministry effective and successful. We see the proof of this in the description of an event that occurred sometime after this, given in the Book of Acts “But when they did not find them, they dragged Jason and some brethren to the rulers of the city, crying out, "These who have turned the world upside down have come here too” (Acts 17:6) - this happened in around 52AD, i.e., about 18-19 years after the ascension of the resurrected Lord Jesus. In other words, within two decades of the ascension of the Lord Jesus Christ, the disciples of the Lord Jesus Christ through their preaching, ‘had turned the world upside down’; i.e., had spread the gospel news and caused an upheaval in the world.
At that time, those preachers neither had any special means of traveling from one place to another, nor did they have the complete written and compiled Word of God in their hands as we have with us today. At the time of the above incident, all the epistles of the New Testament had not even been written! For those initial preachers too, preaching the gospel was neither easy nor convenient; they too had to face tremendous opposition and many difficulties. But still, by sticking to the method of preaching, the use of the technique given to them by the Lord Jesus, their preaching had become very effective and powerful. That which could be accomplished by this technique at that time, can be accomplished even today, since the Word of God and its teachings, like the Lord Himself, never change, they always remain the same and similarly applicable and effective at all times and places, for all people. Therefore, for effective gospel preaching, we need to learn, understand, and follow what the Lord had said and taught, instead of following man-made methods. In the next article, we will look into some details about this.
If you are a disciple of the Lord, and want to be useful for Him, then be steadfastly involved in studying His Word and praying, to have the Lord’s guidance. While studying His Word, the Bible, pay special attention to the things pertaining to your ministry, and spend time in learning, understanding, following them - they will provide the required guidance and help for you to do your ministry effectively and powerfully. Wherever there is honoring of God’s Word, obedience to it and to the Lord, the security and blessing of the Lord will always be there as well.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Job 41-42
Acts 16:22-40
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