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मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा का प्रमाण - यूहन्ना 16:8
हम देख चुके हैं कि मसीही सेवकाई के निर्वाह के लिए मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति कितनी आवश्यक है, सहायक के रूप में पवित्र आत्मा की भूमिका मसीही सेवकाई के लिए अनिवार्य है, और बिना उसमें परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति के कोई यीशु को प्रभु भी नहीं कह सकता है (1 कुरिन्थियों 12:3)। इसीलिए स्वयं प्रभु परमेश्वर अपने प्रत्येक सच्चे विश्वासी, अपने प्रत्येक वास्तविक शिष्य को स्वतः ही, उसके उद्धार पाने के साथ ही तुरंत ही पवित्र आत्मा भी प्रदान कर देता है। प्रभु के किसी भी वास्तविक शिष्य को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए न तो किसी मनुष्य की किसी सहायता की आवश्यकता है, और न ही वह मनुष्यों के द्वारा बताई अथवा बनाई गई किसी विधि या अनुष्ठान आदि के द्वारा पवित्र आत्मा को प्राप्त कर सकता है।
किन्तु साथ ही प्रत्येक जन, विश्वासी अथवा अविश्वासी, को यह भी समझ लेना चाहिए कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है। वह हमारा सहायक अवश्य है, किन्तु न हमारा सेवक है, न हमारे हाथों की कठपुतली है जिसके साथ और जिसके नाम में मनुष्य अपनी इच्छा और समझ के अनुसार कुछ भी कहते और करते रहें। परमेश्वर पवित्र आत्मा को भी हमें वही आदर और श्रद्धा प्रदान करनी है जो पिता परमेश्वर को, प्रभु यीशु को, और उनके नाम के प्रयोग को देते हैं। हमें पवित्र आत्मा के नाम से अपनी समझ और इच्छा के अनुसार कुछ भी, कैसा भी बर्ताव, बात, और व्यवहार करने की स्वतंत्रता नहीं दी गई है। जैसा व्यवहार परमेश्वर पिता तथा परमेश्वर पुत्र के प्रति आवश्यक एवं उचित है, बिलकुल वैसा ही परमेश्वर पवित्र आत्मा के लिए भी है। इसलिए वचन में कही गई और पहले से लिखवा दी गई बातों के अतिरिक्त परमेश्वर या पवित्र आत्मा के नाम से अन्य जो कुछ भी किया, बताया, और सिखाया जाता है, वह परमेश्वर की ओर से नहीं है; वह सब मनुष्य द्वारा वचन में जोड़ना है - जो परमेश्वर द्वारा वर्जित किया गया है। वचन के बाहर की बातों को परमेश्वर पवित्र आत्मा पर थोप कर उनके नाम में विचित्र हाव-भाव एवं अनुचित व्यवहार करना और सिखाना, लोगों को ऐसी शिक्षाएं देना जिनका वचन में कोई समर्थन, उल्लेख, या उदाहरण नहीं है, वह सब परमेश्वर के वचन और बातों में मिलावट करना है, अस्वीकार्य है, दण्डनीय है।
व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित बातों को अपने शिष्यों को बताने के बाद, प्रभु यीशु ने उनकी सुसमाचार प्रचार और मसीही सेवकाई से संबंधित बातों में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका को बताना आरंभ किया। इस सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित जो पहली शिक्षा प्रभु ने शिष्यों को दी, वह है, “और वह आकर संसार को पाप और धामिर्कता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा” (यूहन्ना 16:8)। प्रभु के इस कथन को समझने के लिए प्रभु द्वारा यूहन्ना 14 अध्याय में प्रभु द्वारा कही गई इस बात को ध्यान रखना अति आवश्यक है, कि परमेश्वर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वासियों में होकर ही अपनी सामर्थ्य को प्रकट करना था, उनमें होकर ही संसार के समक्ष कार्य करना था। क्योंकि प्रभु के इस कथन में यह निहित है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, मसीही विश्वासियों में होकर इस कार्य को करेगा; इसलिए यह स्वाभाविक निष्कर्ष है कि जो भी मसीही संसार से यूहन्ना 16:8 की बातों के बारे में बात करे, परमेश्वर के नाम से लोगों के सामने इन बातों का प्रचार करे, तो उसका अपना जीवन भी पाप, धार्मिकता, और न्याय के विषय में परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुरूप हो। अन्यथा उस मसीही का प्रचार और गवाही झूठी ठहरेगी, अप्रभावी होगी, उसके अपने तथा साथ ही परमेश्वर के भी उपहास और निन्दा का कारण ठहरेगी। यह बात एक बार फिर मसीही विश्वासी के जीवन में पहले पवित्र आत्मा की भूमिका और कार्य (यूहन्ना 14) द्वारा उचित सुधार और सही व्यवहार कर लेने, और तब सार्वजनिक सेवकाई (यूहन्ना 16) का निर्वाह करने की अनिवार्यता पर बल देता है, उसके महत्व को प्रमुख करता है।
आज मसीही विश्वास के प्रति लोगों के अविश्वास, लोगों की आलोचना, और संसार द्वारा मसीहियों से दुर्व्यवहार का एक बहुत बड़ा कारण मसीही या ईसाई कहलाने वाले लोगों के जीवनों में व्याप्त यही दोगलापन - उनके प्रचार और व्यक्तिगत व्यवहार में विद्यमान एवं सर्व-विदित भिन्नता है। वे संसार से जिस बात, बर्ताव, और व्यवहार का निर्वाह करने का प्रचार करते हैं, वह उनके अपने जीवनों में लोगों को दिखाई नहीं देता है। पवित्र आत्मा की जिस जीवन और मन बदलने वाली सामर्थ्य के बारे में लोगों को बताकर उन्हें प्रभु यीशु की ओर आने के लिए प्रोत्साहित करना चाहते हैं, व्यक्ति के विचार और व्यवहार बदलने वाली वह सामर्थ्य उनके स्वयं के जीवन में लोगों को दिखाई नहीं देती है। आज संसार के लोगों को मसीही या विश्वासी कहलाए जाने वाले बहुत से लोगों में पवित्र आत्मा के नाम से बहुत शोर-शराबा, उछल-कूद, विचित्र व्यवहार और शारीरिक क्रियाएं तथा हाव-भाव, शारीरिक चंगाइयों के दावे आदि तो दिखते हैं; किन्तु सांसारिकता और संसार की बातों तथा वस्तुओं के मोह को त्याग कर प्रभु की आज्ञाकारिता में जिया जाने वाला विनम्र, प्रेमपूर्ण, आत्मा के फलों से भरा व्यावहारिक जीवन दिखाई नहीं देता है। वरन, विडंबना तो यह है कि लोगों ने पवित्र आत्मा के नाम और काम को व्यक्तिगत कमाई का साधन बना लिया है; पवित्र आत्मा के नाम पर सांसारिक धन-संपत्ति, ज़मीन-जायदाद, विलासिता की बातों से भरे महल बना लिए हैं। फिर भी लोग ऐसे भ्रामक प्रचारकों के पीछे भागते हैं, उनकी बातों को बिना जाँचे-परखे ऐसे स्वीकार करते हैं, मानों स्वयं परमेश्वर बोल रहा हो। यदि उन ढोंगी प्रचारकों के ढोंग को लोगों के सामने लाने के प्रयास किए जाएं, तो प्रतिक्रिया अपमान और क्रोध होता है। यद्यपि उन प्रचारकों के जीवनों और कार्यों में वचन से संगत और उचित कुछ भी देख पाना लगभग असंभव होता है; और उनके प्रचार में वचन की बातों को संदर्भ से बाहर लेकर, तोड़-मरोड़ कर, उनकी अपनी ही धारणाओं के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है। उनकी शिक्षाएं पापों की क्षमा, उद्धार, और आत्मिक उत्थान की बजाए भौतिक लाभ, शारीरिक बातों, सांसारिक उपलब्धियों आदि की प्राप्ति से संबंधित होती हैं; फिर भी लोग अंधे और निर्बुद्धि होकर प्रभु और उसके वचन का नहीं परंतु उन सांसारिक प्रचारकों का और उनकी गलत शिक्षाओं का बड़ी लगन और आदर के साथ अनुसरण करते हैं।
प्रभु ने कहा कि परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर संसार को “निरुत्तर” करेगा। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का हिन्दी अनुवाद “निरुत्तर” किया गया, मूल भाषा का उसका अर्थ है “डाँट लगाएगा”, या “उलाहना देगा”; और अँग्रेज़ी में इस शब्द का अनुवाद convict अर्थात दोषी ठहराना किया गया है, जो मूल यूनानी भाषा के अर्थ के साथ अधिक मेल रखता है। जिन बातों के विषय वह ऐसा करेगा, उनके बारे में आगे पद 8 से 11 में और विस्तार से लिखा गया है, और उन्हें हम उन पदों के अध्ययन के साथ ही देखेंगे। किन्तु यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, मसीही विश्वासियों में निवास एवं उनमें होकर कार्य करने के द्वारा, मसीही विश्वासियों के जीवन, व्यवहार और बर्ताव, उनके जीवन में आए परिवर्तनों के द्वारा संसार के लोगों को उनके जीवन, उनके व्यवहार और बर्ताव, उनके अपरिवर्तित जीवनों के लिए दोषी ठहराएगा। व्यक्ति के जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति का प्रमाण वे बातें नहीं हैं जो ये गलत शिक्षाएं देने वाले बताते, दिखाते, और सिखाते हैं; वरन बाइबल के अनुसार प्रमाण हैं व्यक्ति के जीवन में आया हुआ परिवर्तन, उसका उद्धारकर्ता की समानता में ढलते चले जाना, अपने उद्धार और उद्धारकर्ता की गवाही देना।
यदि आप सच में मसीही विश्वासी हैं, वास्तविकता में प्रभु यीशु मसीह के शिष्य हैं, तो क्या आप में निवास करने वाला पवित्र आत्मा, आपके व्यवहार, बर्ताव, और बदले हुए जीवन के द्वारा, संसार के लोगों को उनके जीवन और व्यवहार के लिए दोषी ठहराता है? क्या आपके जीवन के साथ अपने जीवन की तुलना करने पर वे परमेश्वर की बातों और कार्यों को आपके जीवन में विद्यमान, और अपने जीवन से अनुपस्थित देखने या समझने पाते हैं? क्या आपकी उपस्थिति में लोग छिछोरी बातें और भद्दे मज़ाक करने, सांसारिकता की व्यर्थ बातें करने से हिचकिचाते हैं? या फिर संसार के लोग आप में भी वही बातें, विचार, व्यवहार, और बर्ताव देखते हैं जो उनमें विद्यमान है? क्या आपके मसीही विश्वासी होने के नाते, परमेश्वर पवित्र आत्मा आप में होकर यूहन्ना 16:8 की बात को पूरा करने पाता है? यदि नहीं, तो मसीही सेवकाई में हाथ डालने से पहले, अभी आप को पहले अपने आप में वह आवश्यक परिवर्तन करने और व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति प्रमाणित करने वाले कार्य दिखाने अनिवार्य हैं, जो पवित्र आत्मा को आप में होकर संसार के समक्ष सार्वजनिक मसीही सेवकाई के कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को औरों पर प्रकट करे, तथा पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 51-53
रोमियों 2
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Proof of the Holy Spirit - John 16:8
We have seen that in the life of a Christian Believer, for him to live out his life of Christian ministry, the presence of the Holy Spirit is absolutely essential. Without the presence of God’s Holy Spirit no one can even call Jesus as Lord (1 Corinthians 12:3); therefore, the Lord God has given the Holy Spirit to every one of His Believers, from the moment of their being Born-Again. No person who is truly saved, Born-Again, needs to do anything, no one needs the help of any man, or fulfill any man-made rituals and methods, to receive the Holy Spirit.
At the same time, everyone, Believer or unbeliever needs to understand this very clearly that Holy Spirit is God. He has been given as a Christian Believer’s helper, but has not been made his servant or subordinate, and neither is He like a puppet in the hands of man, for men to treat Him in any way they like, to do and say whatever comes to their minds about Him. We have to accord the same honor and reverence to Him and His name, that we accord to God the Father and to God the Son, Lord Jesus. We have not been given the freedom to speak about or treat or behave regarding the Holy Spirit in any manner we think appropriate. Whatever attitude and behavior has to be accorded to God the Father and God the Son, absolutely the same has to be accorded to God the Holy Spirit as well. We cannot take Him for granted, and say anything that comes to our minds in His name. That is why, except for the things already stated and written in God’s Word about the Holy Spirit, anything else said, taught, and done in the name of the Holy Spirit is not from God; is tantamount to adding to God’s Word - which has been forbidden by God. To act, speak, and behave in a strange, odd manner, and to teach the same to others, things that have no mention, example, or support from God’s Word, is all corrupting God’s Word with man’s things, is unacceptable and is punishable by God.
After stating to His disciples about the things of the Holy Spirit related to their personal lives, the Lord then started to tell them about the role of the Holy Spirit in their Christian ministry. In this context, the first teaching that the Lord Jesus gave to His disciples was, “And when He has come, He will convict the world of sin, and of righteousness, and of judgment” (John 16:8). To understand this statement of the Lord, it is essential to keep in mind what the Lord had already said in John chapter 14, that the Holy Spirit would manifest His power and act before the world through the Christian Believers. Since it is implied in this statement of the Lord that God the Holy Spirit would act through the Christian Believers, therefore, it is a natural conclusion that if any Christian talks to the world about John 16:8, preaches to the people in the name of God, his own life too must be in accordance with what the verse says about sin, righteousness, and judgement. Otherwise, his own life, preaching, and witness will turn out to be a lie and be ineffective; and he will be a cause of not only his own ridicule but also of ridiculing God. This by itself, once again emphasizes the importance of every Christian Believer first allowing appropriate corrections and proper behavior in his own life through the action of the Holy Spirit (John chapter 14); and only then trying to exhibit the power of the Holy Spirit in Christian ministry through preaching and works (John chapter 16).
Today, a major cause of unbelief amongst the people of the world, and their criticism of Christianity, and even of Christians being mistreated is this dichotomy, the contradiction that the world sees in what the Christians preach and how they behave. What they preach to the world, is not seen in their own lives. The power of the Holy Spirit to change lives, hearts, and minds that they talk about, is not seen and demonstrated through their own lives. Today, people of the world see amongst those who call themselves Christians, a lot of shouting, strange utterances and noises, odd behavior and bodily gestures, claims of physical healings, etc., but a life of disassociating from the world and discarding worldliness, of not having an attraction for the things of the world, of following the Lord Jesus Christ and living a life of humility, love, and fruits of the Holy Spirit is never seen. Instead, a contradiction has become evident - people have made the name and works of the Holy Spirit a means of earning temporal things for their personal lives; they have built bank-balances, properties, luxurious houses using the name of the Holy Spirit.
Although, it is very difficult to show anything consistent with God’s Word in the preaching and teaching of these false preachers; since their preaching, teaching, and doctrines are through taking the things of God’s Word out of context, twisting and trimming it to make it appear to be consistent with their preaching. Their teachings and preaching are not about repentance, sin, forgiveness of sins, salvation, spiritual growth and spiritual rewards, but about worldly gains, bodily benefits, temporal achievements, etc., yet people blindly and mindlessly accept what they say. Without cross-checking their teaching and preaching from God’s Word, the people still continue to run after such false preachers and corrupters of God’s Word. Without giving it any thought, examining and discerning what these false preachers are saying, people listen and accept their false teachings and doctrines as if God Himself was speaking. If someone tries to expose these hypocritical preachers and teachers and their teachings, then their followers react with rage and disrespect, but have no concern for the manipulation and misuse of God’s Word by these false teachers and preachers.
The Lord Jesus said in John 16:8, the Holy Spirit will “convict” the world. The word used in the original Greek language, and translated as “convict” actually means “reprove” or “admonish.” The things the Holy Spirit will convict or reprove about are written in verses 8 to 11, and we will see them in some detail in the days to come. But what we need to note here is that the Holy Spirit, through residing in and working in the lives of the Christian Believers, by changing and converting their life, attitude, and behavior, does two things - firstly the changes He brings in their lives are a practical and evident proof of His presence in them; and secondly through these changes He presents a contrast to the unsaved, unconverted, unchanged people of the world, to convict them of the sin in their lives. The proof of God’s Holy Spirit in a person’s life is the change into the likeness of his Savior, that the Holy Spirit brings about in that life’s person - an affirmation of John 15:26, that the Holy Spirit testifies of the Lord Jesus through the lives of the followers of Lord Jesus. The Biblical proof of the presence of the Holy Spirit in a person is not what these teachers of false doctrines say, but a changed life, changed into likeness of the Lord and testifying about Him.
If you are a Christian Believer, truly a disciple of the Lord Jesus, then does the Holy Spirit residing in you manifest His presence through your changed life, attitude, and behavior? Does your life convict the unsaved people of the presence of sin in their lives? When people of the world see and experience your life, are they able to see godliness in your life and feel its absence in their own lives? Do people hesitate to speak frivolous things and indulge in loose talks in your presence? Or, is it that people of the world see the same things, attitude, and behavior as they have in their own lives? By virtue of your being a Christian Believer, is the Holy Spirit able to fulfill John 16:8 through your life? If not, then before engaging in Christian ministry, you should first endeavor to demonstrate the changed life which is the proof of the presence of the Holy Spirit; only then will the Holy Spirit be able to work through you to change the lives of others.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 51-53
Romans 2
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