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सच्चा सुसमाचार, बनाम झूठे विश्वास और सिद्धान्त - भाग (1)
प्रश्न: क्या हम प्रभु यीशु मसीह और उसके सुसमाचार के सत्य के बारे में गलत विश्वास या झूठे सिद्धांतों को मानने वालों या पालन करने वालों से भी सीख सकते हैं? हम सच्चे सुसमाचार को कैसे पहचान सकते हैं?
उत्तर:
यह जाना-पहचाना तथ्य है और आम देखा जाता है कि, किसी जाने-माने उत्पाद की नकल बेचने के लिए, धोखा देने वाले उस नकल का बाहरी स्वरूप असली के समान जितना अधिक बना सकें बनाते हैं, जिससे लोग उस नकली को असली समझ कर उसे स्वीकार कर लें और ले लें, इस विश्वास में कि यह असली ही है। लेकिन जब लोग उस नकली का प्रयोग करना आरंभ करते हैं, तब ही पहचान होती है कि जो दावा किया गया था वह वो नहीं है – उसके गुण वास्तविक असली उत्पाद के समान नहीं हैं, और न ही वह उतना कारगर है जितना उसे होना चाहिए।
यही बात बाइबल में दिए सच्चे सुसमाचार और परमेश्वर की शिक्षाओं के लिए भी सही है। शैतान ने, लोगों को धोखा देने के लिए, सँसार में अनेकों प्रकार के नकली सुसमाचार और परमेश्वर के वचन की गलत शिक्षाएँ फैला दी हैं। ये झूठे सुसमाचार असली के समान ही प्रतीत होते हैं, परन्तु उनमें सदा ही कुछ-न-कुछ गलतियाँ या सच्चे सुसमाचार से कुछ भिन्नता होती है, जो चाहे तुरंत ही प्रगट न हो, परन्तु देर-सवेर प्रगट हो ही जाती हैं। साथ ही, इस तर्क को स्वीकार कर लेना कि झूठे धार्मिक विश्वास एवँ सिद्धांतों के द्वारा भी परमेश्वर हमें सचेत करता और सिखाता है, यह कहना है कि परमेश्वर गलत और असत्य के द्वारा भी “…मार्ग, सत्य, और जीवन…” (यूहन्ना 14:6) के बारे में हमें सिखाता है – जो कि बिलकुल गलत तथा कदापि स्वीकार न हो सकने वाली धारणा है, जो परमेश्वर के चरित्र और गुणों के विपरीत जाती है, और बाइबल की शिक्षाओं के बिलकुल उलट है।
इस कथन के समर्थन में, बाइबल से लिए गए कुछ खण्ड देखिए:
- हम प्रेरितों 16:16-18 में देखते हैं कि पौलुस एक लड़की में से दुष्टात्मा को निकालता है, जबकि वह लड़की यही कह रही थी कि " ...ये मनुष्य परमप्रधान परमेश्वर के दास हैं, जो हमें उद्धार के मार्ग की कथा सुनाते हैं" (प्रेरितों 16:17) – यह सत्य तो था, किन्तु किसी ऐसे से आ रहा था जो परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है।
- याकूब कहता है, “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे, कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” (याकूब 1:13); और “क्योंकि हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है, जिस में न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, ओर न अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है” (याकूब 1:17).
- प्रेरित यूहन्ना अपनी पहली पत्री में कहता है, “जो समाचार हम ने उस से सुना, और तुम्हें सुनाते हैं, वह यह है; कि परमेश्वर ज्योति है: और उस में कुछ भी अन्धकार नहीं” (1 यूहन्ना 1:5).
बाइबल में बारंबार, परमेश्वर की पूर्ण सत्यता, कभी न बदलने वाली ईमानदारी, किसी भी संदेह की संभावना से भी से परे सत्यनिष्ठा, पर बल दिया गया है; अर्थात इसपर कि परमेश्वर का चरित्र और व्यवहार किसी भी संदेह या दोषारोपण की संभावना से बिलकुल बाहर हैं। न तो परमेश्वर ने कभी किया है, और न ही वह कभी यह करेगा कि अपने वचन के प्रचार और प्रसार के लिए गलत धार्मिक सिद्धांतों और शिक्षाओं का सहारा ले, जबकि उसने मानव-जाति को अपना सत्य एवँ जीवित वचन दे दिया है, और अपने इस वचन को सिखाने के लिए अपने लोगों को अपना पवित्र-आत्मा भी प्रदान किया है (यूहन्ना 14:26; 16:13-15; 1 कुरिन्थियों 2:11-14)। प्रभु यीशु ने पुनरुत्थान के पश्चात अपने स्वर्गारोहण से पहले अपनी महान आज्ञा में अपने शिष्यों से कहा था कि वे जाकर सँसार के लोगों को उसका वचन सिखाएँ न कि मनुष्य की बुद्धि से उपजी कोई गढ़ी हुई शिक्षाएँ और बातें सिखाएँ (मत्ती 28:18-20)।
परन्तु शैतान, अपने असत्य, झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धांतों आदि को स्वीकार्य बनाने के लिए, अपने धोखे और आडंबर को परमेश्वर के वचन के समान दिखाता है, बड़ी चतुराई से गलत बातों को धार्मिकता और ग्रहण योग्य होने के आवरण के पीछे छुपाता है (2 कुरिन्थियों 11:13-15; कुलुस्सियों 2:4-8; 16-23)। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने आप को परमेश्वर के वचन की सच्चाइयों में स्थापित कर लें तथा और कुछ को नहीं, परन्तु केवल बाइबल को ही सभी शिक्षाओं, धार्मिकता, और सिद्धांतों को परखने और उनकी वास्तवकिता जाँचने के मानक के रूप में प्रयोग करें, (प्रेरितों 17:11; 2 तिमुथियुस 3:16-17; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। जो कुछ भी परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं है, या किसी भी रीति से वचन का खंडन करता है या उससे असंगत है; या ऐसी कोई भी शिक्षा जो उस विषय पर बाइबल में कही गई सभी बातों के साथ पूर्णतः मेल नहीं खाती है या उनके मापदंडों पर पूर्णतः खरी नहीं उतरती है; या ऐसी कोई भी बात जो सँसार के रीति-रिवाज़ों अथवा बातों, या मनुष्यों की बुद्धि और व्यवहार से उत्पन्न होकर बाइबल की मसीही शिक्षाओं में लाई गई और मिलाई गई हैं (मत्ती 15:3-9), वह गलत सिद्धान्त है, गढ़ी हुई झूठी धार्मिकता है, जो परमेश्वर को अप्रसन्न करती है तथा उसे अस्वीकार्य है, और उसकी पूर्णतः अवहेलना करनी चाहिए, उसका संपूर्ण तिरिस्कार किया जाना चाहिए।
सच्चा सुसमाचार, 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में लिखा है – “हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो। उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15 बाइबल का ‘सुसमाचार अध्याय’ है – सुसमाचार से संबंधित विभिन्न सत्यों को सीखने और समझने के लिए इसका अध्ययन अवश्य कीजिए)। कृपया ध्यान दें, सच्चा सुसमाचार, जैसा कि पवित्र-शास्त्र में कहा गया है, परमेश्वर के वचन के अनुसार है न कि मनुष्यों की चतुराई से आया है; दूसरे शब्दों में, सच्चे सुसमाचार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से पवित्र-शास्त्र में लिखा नहीं गया है।
इसे बाइबल ही से समझिए:
- इब्रानियों 10:5-9 में प्रभु यीशु द्वारा कहे गए वचन हैं जो उन्होंने स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आने से ठीक पहले कहे थे; वहाँ लिखा है: “इसी कारण वह जगत में आते समय कहता है, कि बलिदान और भेंट तू ने न चाही, पर मेरे लिये एक देह तैयार किया। होम-बलियों और पाप-बलियों से तू प्रसन्न नहीं हुआ। तब मैं ने कहा, देख, मैं आ गया हूं, (पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं। ऊपर तो वह कहता है, कि न तू ने बलिदान और भेंट और होम-बलियों और पाप-बलियों को चाहा, और न उन से प्रसन्न हुआ; यद्यपि ये बलिदान तो व्यवस्था के अनुसार चढ़ाए जाते हैं। फिर यह भी कहता है, कि देख, मैं आ गया हूं, ताकि तेरी इच्छा पूरी करूं; निदान वह पहिले को उठा देता है, ताकि दूसरे को नियुक्त करे।” प्रभु यीशु ने विशेषतः यह कहा कि उनका कार्य पहले से ही लिखा गया है “पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है ” और वे वही करेंगे जो उनके विषय लिखा गया है, वे परमेश्वर की इच्छा को पूरी करेंगे; अर्थात, उसे पूरा करेंगे जो पहले से लिखा जा चुका है; मसीह यीशु ने कोई नई बात नहीं निकाली या की।
- अपने पुनरुत्थान के पश्चात जब प्रभु यीशु यरूशलेम से इम्माउस को लौटने वाले दो शिष्यों से मिले, और उनके साथ चर्चा की, “तब उसने मूसा से और सब भविष्यद्वक्ताओं से आरम्भ कर के सारे पवित्र शास्त्रों में से, अपने विषय में की बातों का अर्थ, उन्हें समझा दिया।” (लूका 24:27) – जो कि एक और पुष्टि है कि प्रभु यीशु ने केवल वही किया, जो उस समय उपलब्ध पवित्र-शास्त्र में पहले से लिखा जा चुका था, उनके पृथ्वी पर जन्म लेने तथा अपनी सेवकाई को आरंभ करने से पहले ही।
- प्रेरित पौलुस ने भी, यीशु को अपना उद्धारकर्ता और प्रभु स्वीकार करने के पश्चात पवित्र-शास्त्र का उपयोग किया – पुराने नियम के लेखों का प्रयोग प्रभु की सेवकाई के विषय बताने और उसे प्रमाणित करने के लिए: “वह पवित्र शास्त्र से प्रमाण दे देकर, कि यीशु ही मसीह है; बड़ी प्रबलता से यहूदियों को सब के साम्हने निरूत्तर करता रहा” और “वह परमेश्वर के राज्य की गवाही देता हुआ, और मूसा की व्यवस्था और भाविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों से यीशु के विषय में समझा समझाकर भोर से सांझ तक वर्णन करता रहा” (प्रेरितों 18:28; 28:23)। क्योंकि सच्चे सुसमाचार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से ही परमेश्वर के वचन लिखा नहीं जा चुका है, इसलिए जो कोई भी सुसमाचार के नाम में कुछ भी ऐसा प्रचार करता या सिखाता है जो पवित्र-शास्त्र में पहले से विद्यमान नहीं है, या कुछ नई बातें अथवा ‘नए दर्शन या प्रकाशन’ के द्वारा सुसमाचार में कुछ नया जोड़ने का प्रयास करता है, वह वास्तव में सुसमाचार को भ्रष्ट कर रहा है और उसपर कदापि विश्वास नहीं करना चाहिए और न ही उसकी बात को स्वीकार करना चाहिए।
शैतान द्वारा सांसारिकता की बातों द्वारा सुसमाचार को भ्रष्ट करना तो तुरंत ही, प्रथम ईसवीं में ही आरंभ हो गया था, और इन भ्रष्ट शिक्षाओं में इतना आकर्षण था कि, प्रेरितों के समय और सेवकाई के दौरान ही, मसीही विश्वासी धोखा खाने लगे थे और गलत शिक्षाओं में पड़ने लगे थे। इसीलिए हम देखते हैं कि नए नियम के सभी लेखक अपने-अपने लेखों में गलत शिक्षाओं और धोखे तथा शैतान के झूठ एवँ चालाकियों के बारे में बारंबार लिखते हैं। नए नियम की सभी पत्रियां, मसीह यीशु की शिक्षाओं से संबंधित गलत धारणाओं और असंगतियों को सही करने के उद्देश्य से लिखी गई हैं, जिससे मसीही विश्वासी शैतान द्वारा फैलाई जा रही गलत शिक्षाओं का सामना करके उनका प्रतिरोध कर सकें, उन्हें निष्क्रीय कर सकें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
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True Gospel versus False Beliefs and False Doctrines - Part (1)
Question: Can we learn the truth about the Lord Jesus and His Gospel from false doctrines and beliefs? How can we identify the true Gospel?
Answer:
It is a common occurrence and a well-known fact, that to sell fake copies of some well-known product, the deceivers try to make the outer appearance or the presentation of the fake product as near to the genuine product as possible so that people are deceived into accepting and procuring that fake copy, in the belief that it is the actual product. It is only when people make use of that fake product, they realize that it is not what it was actually claimed to be – it’s qualities are not the same as the qualities of the actual product, neither is it as efficacious as it ought to be.
The same holds true for the true Gospel and teachings of God given in the Bible. Satan, to deceive the people, has brought into circulation many different varieties of fake copies of the Gospel and the Word of God. These fake gospels sound like the true Gospel, but they always have some errors and deviations from the true Gospel, which may not be immediately evident, but does come to the fore sooner than later. Also, to accept the contention that God warns us through false religions and false doctrines, is to say that God approves and uses falsehood and untruth to convey His message of “…the way, the truth, and the life…” (John 14:6) – a patently false and untenable assertion, that contradicts the character and attributes of God, and is absolutely contrary to the teachings of God’s Word the Bible. In support, consider a few passages from the Bible in this context:
- In Acts 16:16-18 we see that Paul casts out an evil spirit from a girl, even though the evil spirit through the girl kept saying that "These men are the servants of the Most High God, who proclaim to us the way of salvation" (Acts 16:17) – a fact, but coming through someone unacceptable to God.
- James says, “Let no one say when he is tempted, "I am tempted by God"; for God cannot be tempted by evil, nor does He Himself tempt anyone” (James 1:13); and “Every good gift and every perfect gift is from above, and comes down from the Father of lights, with whom there is no variation or shadow of turning” (James 1:17).
- The Apostle John in his first epistle says, “This is the message which we have heard from Him and declare to you, that God is light and in Him is no darkness at all” (1 John 1:5).
The Bible over and over again, emphasizes God’s absolute truthfulness, unwavering honesty, irreproachable integrity, impeccable justice, i.e. a behavior and character way above any reproach or doubt. There is no way that God has, or will use false doctrines and religions to spread His Word, when He already has given His true and Living Word to mankind, and has also given His people His Holy Spirit to teach them His Word (John 14:26; 16:13-15; 1 Corinthians 2:11-14). The Lord Jesus, after His resurrection and before His ascension into heaven, in His Great Commission to His disciples has asked them to go and teach to the people of the world nothing contrived or from human wisdom, but that which is His Word (Matthew 28:18-20).
But Satan, to make his lies, false teachings and wrong doctrines etc. to be acceptable, makes his ploys appear and sound like God’s Word, cleverly disguising the wrong things behind a veneer of religiosity and seeming acceptability (2 Corinthians 11:13-15; Colossians 2:4-8; 16-23). Therefore it is imperative that we firmly ground ourselves in God’s Word, and use the Bible and the Bible alone as the standard to check and judge all teachings, religions and doctrines (Acts 17:11; 2 Timothy 3:16-17; 1 Thessalonians 5:21). Anything that is not according to God’s Word, or contradicts it in any manner; or any teaching or doctrine that does not satisfy or does not fully go along with all that is said regarding any issue or topic; or anything adopted from and incorporated from ways of the world and/or from the wisdom and practices of men (Matthew 15:3-9) into the teachings and practices of Biblical Christianity, is a false doctrine, a false religion, something displeasing and unacceptable to God, and is to be discarded, disregarded.
The true Gospel, is stated in 1 Corinthians 15:1-4 – “Moreover, brethren, I declare to you the gospel which I preached to you, which also you received and in which you stand, by which also you are saved, if you hold fast that word which I preached to you--unless you believed in vain. For I delivered to you first of all that which I also received: that Christ died for our sins according to the Scriptures, and that He was buried, and that He rose again the third day according to the Scriptures.” (1 Corinthians 15 is the ‘Gospel chapter’ of the Bible – study it to see and understand the various truths related to the Gospel). Please take note, the true Gospel is according to the Scriptures and is not of human ingenuity; in other words, there is nothing in the true Gospel that has not already been stated in the Scriptures.
Understand this from the Bible itself:
Understand this from the Bible itself:
- Hebrews 10:5-9 records the statement of the Lord Jesus just before He left heaven to come down to earth; it says: “Therefore, when He came into the world, He said: "Sacrifice and offering You did not desire, But a body You have prepared for Me. In burnt offerings and sacrifices for sin You had no pleasure. Then I said, 'Behold, I have come-- In the volume of the book it is written of Me-- To do Your will, O God.' " Previously saying, "Sacrifice and offering, burnt offerings, and offerings for sin You did not desire, nor had pleasure in them" (which are offered according to the law), then He said, "Behold, I have come to do Your will, O God." He takes away the first that He may establish the second.” The Lord Jesus is specifically stating that His work has already been recorded “In the volume of the book ” and in carrying out that which has been written, He will be fulfilling the will of God; in other words, it is already recorded; Christ Jesus did not devise anything new.
- When the Lord Jesus met the two disciples returning from Jerusalem to Emmaus after His resurrection, and engaged in conversation with them, “And beginning at Moses and all the Prophets, He expounded to them in all the Scriptures the things concerning Himself” (Luke 24:27) – another affirmation that all that the Lord did, had already been recorded in the then available Scriptures, even before He was born or started His ministry.
- The Apostle Paul too, after accepting Jesus as his savior and Lord used the Scriptures – the Old Testament texts to speak about and prove the Lord’s ministry: “vigorously refuted the Jews publicly, showing from the Scriptures that Jesus is the Christ” and “he explained and solemnly testified of the kingdom of God, persuading them concerning Jesus from both the Law of Moses and the Prophets, from morning till evening” (Acts 18:28; 28:23). Therefore, since there is nothing in the true Gospel that has not already been recorded in God’s Word, hence anyone preaching or teaching anything that does not already exist in the Scriptures, in the garb of the Gospel; anyone adding some new features or so called ‘new revelations’ to the Gospel is actually perverting the Gospel and is not to be believed or accepted.
Perversion of this Gospel had started straightaway, in the first century itself, and such was the attraction of these perversions, that within the time period of the Apostles and their ministry, the Christian Believers were already getting deceived and were falling for the wrong teachings. All the writers of the New Testament deal with these issues of wrong teachings and deceptions and Satan’s lies and deviousness in their writings, over and over again. All the epistles in the New Testament were written, and are meant to correct misconceptions and misunderstandings regarding Christ’s teachings, and to confront and nullify the wrong teachings being spread by the devil.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued:
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