क्या बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?
परमेश्वर के वचन बाइबल में हम ऐसे उदाहरणों को भी देखते हैं जहाँ पर उन्होंने सेवकाई के लिए भी, तथा कलीसिया में भी कुछ भूमिकाएँ निभाई हैं। बहुधा इन उदाहरणों को उठा कर सामने रख दिया जाता है, यह दिखाने के लिए कि महिलाओं को भी कलीसियाओं में प्रचार करने और पास्टर बनने की अनुमति है। किन्तु इस तथ्य को लेकर उसे यह प्रमाणित करने वाले तर्क के समान उपयोग करना तब ही संभव है जब सेवकाई से संबंधित अन्य तथ्यों की अनदेखी की जाए; इन उदाहरणों को उनके सन्दर्भ से बाहर लेकर और एक पूर्व-निर्धारित विचारधारा का समर्थन करने के लिए तोड़-मरोड़ कर उपयोग किया जाए।
पुराने नियम के समय में याजक होने की सेवकाई तथा लोगों को पवित्र शास्त्र में से सिखाना और प्रचार करना, लेवी के घराने और वंशजों, लेवियों का काम था; केवल उन्हें ही यह करने की अनुमति थी (व्यवस्थाविवरण 33:10; मलाकी 2:7)। निश्चय ही समय-समय पर परमेश्वर अन्य गोत्रों में से भी अपने प्रवक्ता होने के लिए, उसके सन्देश और चेतावनियाँ देने के लिए, भविष्यद्वक्ताओं को भी खड़ा करता था, परन्तु वे भविष्यद्वक्ता कभी याजक का काम नहीं करते थे, और न ही वे कभी मंदिर, या स्थानीय आराधनालय में से अपनी सेवकाई को करते थे। साथ ही, मंदिर अथवा स्थानीय आराधनालय में कार्य करने वाले याजक हमेशा पुरुष ही होते थे; कभी भी किसी भी स्त्री को यह सेवकाई नहीं दी गई थी। पुराने नियम में जितनी भी महिलाओं का भविष्यद्वक्ता होने के लिए उल्लेख है, वे सभी मंदिर या स्थानीय आराधनालय से बाहर रहकर अपनी इस सेवकाई को किया करते थीं। हम कुछ ही समय में इन महिलाओं की सेवकाई के बारे में भी देखेंगे, किन्तु उनमें से किसी ने भी, कभी भी, इस आधार पर कि परमेश्वर ने उन्हें भविष्यद्वक्ता बनाया है, इसलिए उन्हें याजक के कार्यों और जिम्मेदारियों को करने का भी अधिकार है, और न ही उन्होंने इसकी लालसा रखी। इसलिए इन स्त्रियों के उदाहरण को लेकर पुराने नियम के याजकों के समान सेवकाई करने को सही ठहराने के लिए तर्क देना, बात के साथ अनुचित रीति से खींच-तान करना है।
नए नियम में, याजकीय सेवकाई किसी विरासत या वंश के अनुसार नहीं है, जैसी कि पुराने नियम में है। आज तो, कलीसियाओं में पास्टर होने की नियुक्ति धर्म-विज्ञान की शिक्षा और डिग्री के आधार पर की जाती है; किन्तु प्रथम कलीसिया में कोई भी ऐसे पास्टर नहीं थे; परमेश्वर द्वारा नियुक्त लोग इस ज़िम्मेदारी को निभाते थे। क्योंकि वे पुरुष भी कलीसियाओं में प्रचार करते हैं, और इसीलिए कहने को महिलाओं को लगता है कि कलीसिया में समानता के लिए उनकी भी ऐसी भूमिका होनी चाहिए, और कई कलीसियाओं एवं डिनॉमिनेशंस ने उन्हें यह अनुमति दे भी दी है। किन्तु प्रभु यीशु की पृथ्वी पर सेवकाई के दिनों में तथा बाइबल में दर्ज प्रथम कलीसिया की गतिविधियों में, स्त्रियों को कभी यह भूमिका निर्वाह करने के लिए नहीं दी गई थी। प्रभु यीशु ने कभी किसी महिला को प्रेरित नियुक्त नहीं किया; यद्यपि स्त्रियाँ उसके साथ चलते थीं और उसकी तथा शिष्यों की देखभाल करती थीं (मरकुस 15:40-41; लूका 8:2-3)। प्रेरितों के काम तथा अन्य पत्रियों में, जहाँ पर कलीसिया के अगुवों और प्रमुख लोगों का उल्लेख है, समस्याओं के समाधान के लिए चर्चा करने के लिए, चाहे वे समस्याएँ महिलाओं से संबंधित ही क्यों न हों, (प्रेरितों 6:1-2; प्रेरितों 15 अध्याय; गलातियों 2 अध्याय; आदि), कहीं पर भी किसी भी महिला का कलीसिया के अगुवों और प्रमुख लोगों में कभी नाम नहीं आया है। न ही नए नियम कहीं कोई ऐसा उदाहरण है कि किसी स्त्री ने कभी भी किसी कलीसिया में कोई प्रचार किया हो।
यहाँ पर ध्यान देने योग्य एक और रोचक बात भी है, कि प्रथम कलीसिया में परमेश्वर की कलीसियाओं में परमेश्वर के कार्यों को करने के लिए नियुक्ति परमेश्वर ही करता था (प्रेरितों 20:28; 1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों 4:11-12), और कहीं पर भी कभी कोई उल्लेख या संकेत नहीं है कि इनमें से कोई भी सेवकाई किसी भी स्त्री को दी गई हो। बाद में, जब कलीसियाएँ बढ़ने लगीं, उन गुणों को निर्धारित कर के लिखवा दिया गया जिनके अनुसार कलीसियाओं के कार्यों का संचालन करने के लिए कलीसियाओं में प्राचीनों, बिशपों, और डीकनों की नियुक्ति की जानी थी (1 तिमुथियुस 3:1-13; तीतुस 1:5-10), सभी नियुक्तियां इन्हीं गुणों के आधार पर होनी थीं। यहाँ पर भी ध्यान दीजिए कि इन गुणों को लिखवाते समय पुरुषों की ही नियुक्ति की बात की गई थी, किसी भी स्त्री के लिए ये गुण नहीं लिखवाए गए थे। साथ ही हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि शब्दों “प्राचीनों, बिशपों, और डीकनों” का जो अर्थ उस समय था, वह आज के इनके समझे जाने वाले अर्थ से बहुत भिन्न था। इनके लिए प्रयोग किए गए मूल यूनानी भाषा के शब्द तब भी विद्यमान थे, और उसी अभिप्राय के साथ नए नियम की पुस्तकों और पत्रियों में उपयोग किए गए थे जिसे सामान्य लोग जानते और समझते थे। ये ऐसे शब्द नहीं हैं जिन्हें विशेष रीति से कलीसिया में प्रयोग करने के लिए बनाया गया हो; वरन उस समय पर कलीसियाओं में भी इन शब्दों को उसी अर्थ के साथ प्रयोग किया जाता था, जिसके साथ ये कलीसिया से बाहर जन-साधारण में प्रयोग होते थे। ये सभी वे शब्द थे जिन्हें लोग समाज में सेवा करने की जिम्मेदारियों के साथ प्रयोग किया करते थे। इसलिए, कलीसियाओं में भी, उन मण्डलियों के लिए, इन शब्दों का अर्थ था वे लोग जो स्थानीय मण्डली या कलीसिया में सेवा और देखभाल करने के लिए नियुक्त किए जाते थे; न कि वे लोग जो अधिकारी होते थे और लोगों पर नियंत्रण रखते थे, जैसा कि आज इनका अर्थ हो गया है। इस अर्थ में परिवर्तन तथा बाइबल की बातों से हट कर सांसारिक बातों को अपना लेने के कारण ही इन ओहदों पर अधिकारी के समान नियुक्ति पाने की भावनाएँ भी लोगों के मनों में पनपने लगीं हैं, और इसकी एक अभिव्यक्ति है महिलाओं का भी पास्टर होने की लालसा रखना, क्योंकि पास्टर के रूप में नियुक्ति ही इन अधिकार के स्थानों तक पदोन्नति पाने के लिए पहला कदम, उस प्रक्रिया में प्रवेश पाना है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
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Part 8 – Women’s Appointment for Ministry in the Bible
In God’s Word the Bible, we do have instances of women having roles in ministry as well as in the Church in the Old and New Testaments. Often these are taken and put forward as examples to say that women have been allowed preaching and Pastoral responsibilities in the Church. But to take this fact and then use it for giving this argument and justification, can only be done by ignoring other ministry related facts; and by taking these examples out of their context and manipulating them to suit a particular line of thinking.
In the Old Testament times, the ministry of being Priest and of preaching and teaching the Scriptures to the people was the responsibility of the descendants of Levi, the Levites; only they could serve in this position (Deuteronomy 33:10; Malachi 2:7). Certainly, at various times, God did raise prophets as His spokesmen from the other tribes as well, to convey His messages, and to warn His people. But these prophets never served as Priests, nor did they serve in or from the Temple or the local Synagogue. Also, amongst the Priests serving in the Temple, or in the local Synagogue, it was always the men who fulfilled this role and responsibility; never was any woman ever given this role. The women who have been mentioned in the Old Testament having a prophet’s ministry, all served outside the Temple, or of the local Synagogue. We will be looking at the ministries of these women shortly, but none of them ever aspired to, or took upon themselves the functions and responsibilities of the Priests, on the grounds that since God had made them His Prophets, they were entitled to be Priests as well. Therefore, to use the examples of these women to try to justify the function of Priests of the Old Testament in today’s Churches, is unduly over-stretching the point.
In the New Testament, there is no inherited or familial Priestly lineage, as is seen in the Old Testament. Now the appointment of Pastors in the Churches has become based on their theological education, but it was not so in the first Church. Then, it was God who appointed people to do this service. Since men preach in the Churches, therefore, apparently for the sake of uniformity, the women feel they should also have a similar role, and many Churches and denominations have given this to them. But at the time of the Lord Jesus’s earthly ministry, and in the activities of the first Church recorded in the Bible, these roles were never given to the women. The Lord Jesus did not appoint any woman as an Apostle; though women accompanied Him and ministered to him and His disciples during their ministry (Mark 15:40-41; Luke 8:2-3). In the Book of Acts and other epistles, where the leaders and elders of the first Church are mentioned, for deliberations over and settling of issues, even issues involving women (Acts 6:1-2; Acts chapter 15; Galatians chapter 2; etc.), no woman has ever been named as being amongst the Elders of the Church. Nor is there any record of any sermon having been preached by any woman in any Church in the New Testament.
It is quite pertinent and interesting to note here that in the first Church, appointments for God’s ministries in His Church, were done by God (Acts 20:28; 1 Corinthians 12:28; Ephesians 4:11-12), and there is no mention or indication of any of these ministries ever being given to women in the Church by God. Later, as the Churches grew, criteria were laid down to appoint Elders, Bishops, and Deacons for the functioning of the Churches (1 Timothy 3:1-13; Titus 1:5-10), and appointments were to be done accordingly. Note that here too, in giving the criteria, it was for appointment of men, not women, to these positions. One should also keep in mind that the terms “Elders, Bishops, and Deacons” had a very different meaning at that time, than they have today. All of these words existed and were used in the Greek language, in which the books of New Testament were originally written, with certain meanings which the general public well understood. These are not words which were coined exclusively for the Church; rather, in the Church too they were used at that time with the same meaning as they were outside the Church by the general public. They are all words that were commonly used by people for offices of service in the community. Therefore, in the Church too, for those congregations of that time, they meant people appointed for serving and looking after the functioning of the local Church congregations; and not people put up on positions of authority and governance, as they have become and are seen now. It is because of this change in the meaning of these words, deviation from the initial Biblical concept, to the present worldly concept, that the desire for exercising the authority of these offices has also started to surface in different ways, and one of these ways is women desiring to be functioning as Pastors in the Church, which is the first step, the entry to rising up to these positions.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued
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