एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि पौलुस
ने उस समय यह बात इसलिए कही थी क्योंकि तब अधिकांश स्त्रियाँ अनपढ़ होती थीं, इसलिए
उन्हें वचन की पर्याप्त समझ-बूझ नहीं रही होगी, और वे
गलत व्याख्या कर सकती थीं। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है, इसलिए
यह निर्देश आज के लिए नहीं हैं। किन्तु परमेश्वर के वचन में जहाँ पर यह निर्देश
दिए गए हैं, और साथ ही कारण भी लिखवाया गया है, वहाँ
शैक्षिक स्तर और क्षमता की तो कोई बात ही नहीं दी गई है। और उस समय में न केवल
महिलाएँ, वरन अधिकांश पुरुष भी अनपढ़ थे, प्रभु
के शिष्यों और प्रेरितों में से अधिकांश तो अनपढ़ थे। फिर तो इस आधार पर केवल
स्त्रियों को ही क्यों, पुरुषों को भी सेवकाई नहीं सौंपी
जा सकती थी! किन्तु प्रभु ने तो अनपढ़ लोगों को भी समझ-बूझ वाला, ज्ञानवानों को
निरुत्तर करने वाला बना दिया (प्रेरितों 4:13)।
एक तर्क यह भी है कि, क्योंकि तिमुथियुस
इफिसुस में कलीसिया का अगुवा था, इसलिए पौलुस द्वारा तिमुथियुस को लिखी पत्री में
कही गई बात को लेकर, यह तर्क दिया जाता है कि यह बात इफिसुस
की मण्डली के लिए ही कही गई थी। इसका आधार यह बनाया जाता है कि इफिसुस उस समय की
एक बहुत मानी जाने वाली देवी, डायना, का शहर
था; वहाँ पर डायना का बहुत भव्य मन्दिर था, और
डायना के भक्त वहाँ बहुतायत से रहते तथा आते-जाते थे (प्रेरितों 19 अध्याय देखिए)।
इस कारण वहाँ के समाज में स्त्रियों का बोल-बाला था, जो कि
मसीही कलीसिया में भी दिखाई देता था। इसलिए पौलुस ने मसीही विश्वासियों को अन्य
लोगों से भिन्न दिखाने के लिए यह लिखा था। किन्तु पौलुस ने तो कुरिन्थुस की मण्डली
को लिखी पत्री में भी यही बात लिखी थी। फिर,
तिमुथियुस को अथवा कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी पत्रियों में डायना का, समाज
में स्त्रियों के बोल-बाले का कोई उल्लेख नहीं है। दोनों स्थानों पर इस निर्देश के
स्पष्टीकरण के जो आधार दिए गए हैं, उनके साथ इस तर्क का कोई
सामंजस्य कदापि नहीं है। और इसीलिए यह तर्क भी व्यर्थ और अस्वीकार्य है।
अपनी बात को किसी भी प्रकार से सही
ठहराने का प्रयास करने वाले, यह तर्क भी देते हैं कि 1
कुरिन्थियों 14:34-35 में पति-पत्नियों के लिए यह बात कही गई है, न कि सभी
स्त्रियों के लिए। और फिर अपनी बात को तर्क संगत ठहराने के लिए वे यह भी कहते हैं
कि 1 तिमुथियुस 2:11-12 में भी मूल यूनानी भाषा के जिन शब्दों का अनुवाद “पुरुष” और
“स्त्री” किया गया है, वे शब्द पति और पत्नी के सूचक हैं।
यद्यपि यह संभव है, किन्तु उन यूनानी शब्दों का केवल
पति-पत्नी ही अर्थ नहीं है। ठीक वही शब्द, इसके
ठीक पहले, 1 तिमुथियुस 2:8-10 में भी उपयोग किए गए हैं। तब तो इस तर्क के आधार
पर 1 तिमुथियुस 2:8-10 में दिए गए शालीनता के एवं मर्यादापूर्ण व्यवहार से संबंधित
निर्देश केवल पति-पत्नियों पर ही लागू होने चाहिएँ,
अविवाहित पुरुषों और स्त्रियों पर नहीं; और यह बिल्कुल अस्वीकार्य बात है। यदि पद
8-10 जन-सामान्य के लिए है, तो फिर 11-12 पद की बात केवल पति-पत्नियों के लिए कैसे
हो सकती है? क्या यह तर्क देना बाइबल की बातों को अपनी बात मनवाने के लिए दुरुपयोग
का स्पष्ट उदाहरण नहीं होगा?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों
को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ
प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की
बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा
से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और
स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु
मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना
जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी
कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों
के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं
आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को
अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे
उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित
प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे
अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना
जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और
समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक
के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए
स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
According to the
Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the
Pulpit in the Church?
Part 6 – Some Arguments Given
in Favor of Women - 2
Another argument that is often
given is that Paul had said this at that time since most of the women of that
time were uneducated, therefore they might not have had sufficient
understanding about the Scriptures and could have misinterpreted them. But
today that is not the case, therefore, this instruction is not for today. But
at the place where these instructions have been given in God’s Word, the
reasons for those instructions have also been given, and there is no mention of
any educational status or capabilities there in those reasons. And, in that
time, not just the women, but most of the men too were uneducated, and most of
the Lord’s disciples and Apostles were uneducated. Therefore, on this basis,
why just the women, even the men could not have been entrusted the ministry!
But the Lord made even the uneducated people to have such understanding that
the educated and knowledgeable could not stand up to them (Acts 4:13).
An argument is that since
Timothy was a Pastor of the Church in Ephesus, therefore, what Paul has written
was meant for the Church in Ephesus. This is said because a very well known and
venerated goddess, Diana, had a very grand temple in Ephesus, and Ephesus was
considered to be her city; worshippers of Diana kept coming and going in and out
of Ephesus in large numbers (see Acts chapter 19). Therefore, the women of that
city had a dominant position in the society, which was also being seen in the
Christian Church there. Therefore, to show Christians as different from the
other people, Paul wrote this instruction. But Paul has written the same thing
to the Church in Corinth. Also, Paul has not written anything about the
influence of Diana or of the dominance of women in that society in giving these
instructions in either of the letters to the Corinthian or the Ephesian
Churches. In both the letters, the reasons given for giving this instruction, have
nothing to do with this argument. Therefore, this argument too is vain and unacceptable.
Those who want to prove their argument
to be correct at any cost, also give another reason – that what is said in 1
Corinthians 14:34-35 is for husbands and wives, and not for all women. Then, to
further bolster this argument they say that the word used in the original Greek
language in 1 Timothy 2:11-12, that has been translated as “men” and “women”,
are words indicative of husbands and wives. Although this may be possible, but
the meaning of those Greek words is not only husbands and wives. Those very
words have been used in the immediately preceding verses, 1 Timothy 2:8-10
also. Therefore, going by this argument, the instructions given in those verses
for wearing modest apparel and living with decency should also be applicable
only to the husbands and wives, and not the unmarried men and women; and this
is an absolutely unacceptable argument. If verses 8-10 are for the general
public, then how can verses 11-12 be only for husbands and wives? Is not the
giving of this argument a clear example of manipulating the Bible to make it
conform only to a particular opinion or understanding?
If you have not yet accepted the
discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to
ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to
the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the
blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the
Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely,
surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life.
You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ
willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and
submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words
something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank
you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.
Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose
again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the
living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption
from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your
care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your
one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future
life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued
बहुत ही अच्छे से समझाया सर आपने खुदा आपको इसी तरह से अपने वचन के ज्ञान और आत्मिकता में आगे बढ़ाता जाए,
जवाब देंहटाएंसर मुझे प्रभु भोज के विषय पर कुछ बातों को सीखना था। अगर आपने उसके उपर कोई संदेश डाला है तों उसका लिंक मुझे भी दे दीजिए
Tnx sir
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