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मंगलवार, 22 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 41 – Law & Life / व्यवस्था और जीवन – 5

व्यवस्था की उपयोगिता – 1

 

हमने इस श्रृंखला के आरंभ में तीन प्रश्न अपने सामने रखे थे, जिनके उत्तर अभी पूरे नहीं हुए हैं: पहला है कि यदि उद्धार व्यवस्था के पालन से नहीं है, तो फिर पुराने और नए नियम में व्यवस्था द्वारा जीवन मिलने की बात क्यों कही गई? और दूसरा है तो फिर व्यवस्था के दिए जाने का क्या उद्देश्य था? और तीसरा प्रश्न है कि आज हम मसीही विश्वासियों, प्रभु के लोगों के लिए, क्या व्यवस्था की कोई उपयोगिता अथवा भूमिका है? पिछले लेखों में हम इनमें से पहले प्रश्न, व्यवस्था के द्वारा जीवन मिलने को देख और समझ चुके हैं। हमने देख लिया है कि परमेश्वर ने जो कहा है, उसे पूरा भी किया है। “व्यवस्था” की सही परिभाषा, अर्थात, परमेश्वर और मनुष्यों के साथ सही संबंध बनाने और निभाने के सही निर्वाह, तथा बाइबल के अनुसार “जीवन” का तात्पर्य को समझने के द्वारा हमने देखा है कि, पुराने नियम में भी और नए नियम में भी लोगों ने अनन्त जीवन में प्रवेश किया है, और आज भी कर रहे हैं। आज हम दूसरे प्रश्न, परमेश्वर के लोगों को व्यवस्था के दिए जाने के उद्देश्य को समझेंगे। 


इसके लिए कृपया गलातीयों 3 अध्याय अपने सामने रखिए। इस अध्याय के पहले 12 पदों में व्यवस्था के श्राप, अर्थात उसके संपूर्ण पालन की अनिवार्यता को समझाने के बाद, 13 पद में लिखा है कि मसीह यीशु ने हमारे लिए श्रापित होकर, अर्थात, व्यवस्था का उसकी पूर्णता में पालन कर के, हमें व्यवस्था के पालन के बंधन से छुड़ा लिया है। और उसने यह इसलिए किया कि, “यह इसलिये हुआ, कि इब्राहिम की आशीष मसीह यीशु में अन्यजातियों तक पहुंचे, और हम विश्वास के द्वारा उस आत्मा को प्राप्त करें, जिस की प्रतिज्ञा हुई है” (गलातियों 3:14)। परमेश्वर ने अब्राहम को सारे जगत की आशीषों का मूल, और उसमें होकर परमेश्वर की आशीषों को संसार के सभी लोगों में पहुँचाने की प्रतिज्ञा, व्यवस्था के दिए जाने से 430 वर्ष पहले ही दे दी थी (उत्पत्ति 12:1-3; गलातीयों 3:16-18)। और जैसा गलातीयों 3:16 में लिखा है, अब्राहम को दी गई यह प्रतिज्ञा उसके वंश में से जन्म लेने वाले प्रभु यीशु मसीह में होकर संसार के सभी लोगों के लिए दी गई थी। और 3:17 के अनुसार, व्यवस्था आकर प्रतिज्ञा को टाल नहीं देती है; व्यवस्था तो प्रतिज्ञा में जोड़ी गई है। फिर परमेश्वर पवित्र आत्मा, पौलुस में होकर 3:19 में व्यवस्था के दिए जाने के उद्देश्य को बताता है, “तब फिर व्यवस्था क्यों दी गई? वह तो अपराधों के कारण बाद में दी गई, कि उस वंश के आने तक रहे, जिस को प्रतिज्ञा दी गई थी, और वह स्‍वर्गदूतों के द्वारा एक मध्यस्थ के हाथ ठहराई गई” (गलातियों 3:19)। अर्थात, अब्राहम को प्रतिज्ञा के दिए जाने से लेकर, मसीह यीशु में प्रतिज्ञा के पूरे किए जाने के समय यानि कि प्रभु यीशु के उद्धारकर्ता होकर आने के समय तक, लोगों को निरंतर उनके पाप की दशा का एहसास करवाए रखने के लिए (इब्रानियों 10:3), व्यवस्था का दिया जाना आवश्यक था। 


व्यवस्था के कारण लोगों को उनके पाप का ही नहीं, वरन पाप के लिए उनकी जवाबदेही का भी एहसास हुआ, क्योंकि उन्हें बार-बार अपने पापों को स्वीकार करते हुए उनके लिए निर्धारित भेंट और बलिदान चढ़ाने पड़ते थे। व्यवस्था, यानि कि परमेश्वर के मानकों के द्वारा ही उन्हें पाप की पहचान हुई (रोमियों 3:20; 5:13)। व्यवस्था एक शिक्षक के समान लोगों को पाप के बारे में सिखाने, और उन्हें स्मरण दिलाते रहने के लिए कि “क्योंकि अनहोना है, कि बैलों और बकरों का लहू पापों को दूर करे” (इब्रानियों 10:4) और प्रभु के उन्हें बचाने और छुड़ाने के लिए आने तक उन्हें संभाले रखने के लिए थी (गलातियों 3:23-24)। हम देख चुके हैं कि व्यवस्था का अर्थ है परमेश्वर और मनुष्यों के साथ सही संबंध में आना और बने रहना। व्यवस्था में दिए गए सभी पर्व, भेंट, बलिदान, रीतियाँ, आदि, सभी प्रभु यीशु मसीह के चरित्र, जीवन, और समस्त मानव जाति उद्धार के लिए उनके द्वारा किए गए कार्य के विभिन्न पहलुओं के प्ररूप या प्रतीक हैं। तात्पर्य यह कि व्यवस्था में दी गई ये सभी बातें मिलकर प्रभु यीशु मसीह के संपूर्ण स्वरूप और उनके उद्धार के कार्य को उसकी परिपूर्णता में दिखाती हैं। इसीलिए व्यवस्था में दी गई इन बातों - पर्वों, भेंट, बलिदान, रीतियों, आदि को यदि निभाना है तो उनकी संपूर्णता में ही निभाना पड़ेगा, तब ही प्रभु का सम्पूर्ण स्वरूप और कार्य पूरा किया गया माना जा सकेगा। किसी भी, कोई एक भी बात को नहीं निभाना, प्रभु के उद्धार के कार्य को अधूरा छोड़ देने के समान है, और अधूरे कार्य से उद्धार नहीं है। इसीलिए यह केवल प्रभु यीशु मसीह ही कर सकता था, और उसी ने किया भी; और इसीलिए किसी भी मनुष्य के लिए प्रभु यीशु के समान संपूर्ण व्यवस्था का पालन असंभव है। 


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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The Utility of the Law – 1

 

    At the beginning of this series, we had three questions before us, and we are yet to complete their answers: First, if salvation is not from the observance of the Law, then why does the Old and New Testaments speak of having life through the law? The second, then why was the Law given? And the third question is, does the Law have any utility or role, for us Christians, the people of the Lord, today? In the previous articles, we have looked at and understood the first of these questions, the receiving of life through the Law. We have seen that what God has said, He has also fulfilled it. People in the Old Testament and in the New Testament have entered eternal life, and continue to do so, through living by and the fulfilling of the correct definition of "the Law," i.e., coming into and maintaining the right relationship with God and fellow human beings, and what it means to “have life” according to the Bible. Today we'll consider the second question, the purpose of the Law being given to God's people.


    For this please keep Galatians, chapter 3 before you from God’s Word, the Bible. In this chapter, after explaining the “curse of the Law”, i.e., the absolute necessity of its perfect observance, in the first 12 verses of this chapter, verse 13 states that Christ Jesus, became cursed for us, i.e., suffered and kept the Law in its fullness for us, and thereby gave us the freedom from the bondage of Law. And why did He do it, "that the blessing of Abraham might come upon the Gentiles in Christ Jesus, that we might receive the promise of the Spirit through faith" (Galatians 3:14). God had promised Abraham that he would be the source of blessings for the whole world. This promise of God's blessings coming upon all people of the world through him, was made to him 430 years before the Law was given (Genesis 12:1-3; Galatians 3:16-18). And as it is written in Galatians 3:16, this promise given to Abraham was to be made available to all the people of the world through his seed, through the Lord Jesus Christ. According to 3:17, the Law did not nullify this promise; the promise remained very much in place, awaiting its fulfilment. The Law was only added to it, as God the Holy Spirit, states through Paul, "What purpose then does the law serve? It was added because of transgressions, till the Seed should come to whom the promise was made; and it was appointed through angels by the hand of a mediator” (Galatians 3:19). From the time the promise was given to Abraham, until the fulfilment of the promise in Christ Jesus, through the coming of the Lord Jesus as Savior of the world, the Law was given, to keep people continually aware of the state of their sinfulness, by repeated reminders (Hebrews 10: 3).


    The Law not only made people realize their state of sinfulness, but also of their accountability for sin, as they repeatedly confessed their sins and offered the prescribed offerings and sacrifices for them time and again. It was by the Law, i.e., by coming before God's standards, that they could learn of and identify sin in and around them (Romans 3:20; 5:13). The Law was meant to be a teacher to teach people about sin, and to keep reminding them “... For it is not possible that the blood of bulls and goats could take away sins” (Hebrews 10:4) and to safeguard them until the Lord comes to deliver and redeem them (Galatians 3:23-24). We already have seen that the actual meaning of the Law is to come into and remain in the right relationship with God and humans. All the feasts, offerings, sacrifices, rituals, etc. mentioned in the Law, are all fore-types and representations of various aspects of the character, life, and work of the Lord Jesus Christ for the salvation of all mankind. The implication is that all these things in the Law, put together, show the full nature of the Lord Jesus Christ and His work of salvation in all its fullness. That is why, if these things that are given in the Law, i.e., the feasts, offerings, sacrifices, rituals, etc. are to be fulfilled by any person, then they have to be fulfilled, in-toto, in letter and in spirit, in true reverence, by him. A partial fulfilment, or a ritualistic fulfilment will tantamount to non-fulfilment, since that leaves the life and work of Christ Jesus incomplete and therefore inefficacious to save anyone. That's why only the Lord Jesus Christ could do it, and He did it too, for us; And that is why it is impossible for any person to perfectly fulfil the Law like the Lord Jesus did.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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