बाइबल के स्वरूप के निहितार्थ – 4
पिछले लेख में हमने देखा था कि क्योंकि अब बाइबल पूर्ण, संकलित, और लगभग सभी के लिए आसानी से उपलब्ध है, इसलिए परमेश्वर सामान्यतः, और मुख्यतः हम से और सँसार के लोगों से बाइबल के माध्यम से संपर्क और वार्तालाप करता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर अब किसी से भी किसी भी अन्य तरीके से संपर्क या वार्तालाप नहीं करता है; निःसंदेह वह करता है। किन्तु वह जिस भी माध्यम से वार्तालाप करे, अब अपने लिखित वचन बाइबल की बातों के बाहर कभी नहीं जाता है, कभी उस में कुछ जोड़ता नहीं है, कभी उस में से कुछ घटाता नहीं है। इसलिए यदि कोई परमेश्वर से किसी नए दर्शन या सन्देश को प्राप्त करने का दावा करता है, तो बड़े ध्यान से बाइबल में पहले से ही दे दी गई शिक्षाओं के आधार पर उसकी तथा उसके दावे की जाँच की जानी चाहिए।
बाइबल के स्वरूप और स्वभाव की समझ का यह निहितार्थ भी है कि जब बाइबल हम से बात करती है, जैसे कि वह उन से जो उसमें विश्वास करते हैं, उस पर भरोसा रखते हैं, करती है, तब वह परमेश्वर है जो हम से बात कर रहा है, हमें निर्देश दे रहा है, हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। इस बात का परीक्षण और निश्चय कि हम से बात करने वाला परमेश्वर ही है, यही है कि उसकी बात हमेशा ही बाइबल के पूर्णतः अनुसार तथा बाइबल से पूर्णतः सहमत होगी। उसकी बात कभी भी बाइबल में लिखी बात से लेशमात्र भी भिन्न अथवा असहमत नहीं होगी; और न ही कभी किसी को उसे बाइबल, या बाइबल में उल्लेखित परमेश्वर के लोगों के जीवन, व्यवहार, बातों, शिक्षाओं आदि के साथ संगत दिखाने या समझाने के लिए किसी प्रकार के कोई विशेष प्रयास करने होंगे; परमेश्वर की बातें स्वतः ही बाइबल की बातों तथा शिक्षाओं के साथ सटीक और संगत बैठ जाएँगी।
बाइबल हमारे हाथों में विद्यमान असीम, अचूक, अटल, सिद्ध परमेश्वर का भौतिक स्वरूप है; परन्तु सावधान रहें, न तो इसकी पूजा-अर्चना की जानी है, और न ही इसके सामने सिर झुका कर इसकी उपासना-आराधना करनी है; इसे किसी ईश्वरीय स्वरूप में माने जाने के लिए नहीं दिया गया है। इसे हमें दिया गया है जिससे कि हम परमेश्वर और उसकी इच्छा के बारे में जान सकें, उसमें होकर परमेश्वर के साथ संपर्क और वार्तालाप कर सकें, और परमेश्वर को स्वीकार्य तथा भावता हुआ जीवन जीना सीख सकें; न कि उसे आराध्य के समान उपयोग करें चाहे यह कितना भी भक्ति या श्रद्धा पूर्ण क्यों न प्रतीत हो।
क्योंकि यह प्रभु परमेश्वर का भौतिक स्वरूप है, इसलिए यह संभव ही नहीं है कि कोई भी मनुष्य अपनी सीमित, चूक सकने वाली, बदलने वाली, अपूर्ण बुद्धि से इसे समझ सके या इसकी थाह ले सके। जैसा कि बहुधा देखा जाता है, मनुष्य अपने ज्ञान, अपनी शिक्षा, अपनी समझ-बूझ, अपने तर्क-वितर्क, कई बातों के बारे में अपनी बुद्धिमता, आदि के आधार पर बाइबल की बातों का गलत अर्थ और व्याख्या कर सकता है, उनका दुरुपयोग कर सकता है, उन्हें अनुचित रीति से लागू करना सिखा सकता है, उन से या उनके आधार पर गलत शिक्षा और प्रचार कर सकता है। यह सब करते हुए वह व्यक्ति सँसार के लोगों के सामने बहुत ज्ञानवान और तर्कसंगत भी प्रतीत हो सकता है, उसकी बहुत प्रशंसा की जा सकती है, वह बहुत प्रसिद्ध और मानने योग्य समझा जा सकता है। किन्तु बाइबल की वास्तविक समझ-बूझ, ज्ञान, शिक्षा, और उनका सही उपयोग करना केवल पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से ही हो सकता है। सँसार के स्वाभाविक, उद्धार नहीं पाए हुए लोगों के पास कभी भी बाइबल की सही आत्मिक समझ नहीं होगी (1 कुरिन्थियों 2:11-14), और इसीलिए, वे कभी भी उसका उपयोग परमेश्वर की महिमा के लिए, और उस तरह से नहीं करने पाएंगे, जैसा परमेश्वर ने अपने वचन के लिए निर्धारित किया है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Implications of Nature of The Bible - 4
In the previous article we had seen that since the Bible is complete, compiled, and readily available to nearly everyone, therefore, now God usually and predominantly communicates with us and the people of the world through His Word The Bible. This does not mean that God no longer communicates with anyone through any other means; He undoubtedly does so. But whatever be the means He communicates through, He never goes outside of His written Word the Bible, never adds to it, never takes away from it. Hence anyone claiming to have any fresh or new revelations and communications from God should be carefully and diligently evaluated from the Word of God, on the basis of the teachings already given in the Word of God.
The understanding of the form and nature of The Bible also implies that when The Bible speaks to us, as it does with those who believe in it and trust it, it is God who is speaking with us, instructing us, guiding us. The test of whether or not it is God who is speaking with us is that whatever God says or teaches or guides us about, will always be in complete agreement and accordance with what He has already given to us in His word The Bible. It will never, in any manner be at any variance from what is written in the Bible, and we will not have to make any special efforts in any way to make it sound or appear consistent with The Bible, with the lives, practices, teachings, etc., of God’s people in the Bible. We will not have to justify it in any manner to make it seem acceptable with the Bible; it will automatically and smoothly fall into line with what the Bible says and teaches.
The Bible is a physical form of the infinite, infallible, perfect Lord God in our hands; but beware, it is not for bowing down before it or using it as a deity in any manner. It is given to us for knowing about God and His will, for communicating with God through it, and learning to live life pleasing and acceptable to God; not for using it as a deity, howsoever reverential that may seem to be.
Since it is a physical form of the Lord God, therefore, there is simply no way that any man can ever understand or fathom it with his finite, fallible, imperfect mind. As is seen quite often, man, through his own intellect, his education and learning, his own understanding, logic, and wisdom about various things, can misuse, misinterpret, misapply, wrongly teach and preach the Bible and things of the Bible, and even appear very rational and knowledgeable about them to the people of the world, be highly appreciated and become famous because of it. But the factual knowledge, understanding, learning, and proper utilization of the Bible can only come through the help and guidance of the Holy Spirit. The natural, unsaved people of the world will never have the correct spiritual understanding of God’s Word (1 Corinthians 2:11-14), and therefore, they will never be able to use it for God’s glory and in the manner that God has intended His Word to be used.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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