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बाइबल के स्वरूप
के निहितार्थ – 1
पिछले लेख में हमने देखा था कि बाइबल
अनुपम है, न तो इसे सँसार की किसी भी अन्य पुस्तक के समान देखा जा सकता है, और न
ही सँसार की किसी पुस्तक से इस की तुलना की जा सकती है,
क्योंकि यह परमेश्वर के द्वारा दी गयी है, पवित्र
आत्मा की प्रेरणा द्वारा लिखी गई है, और स्वयं प्रभु
यीशु का ही एक स्वरूप है जिसे एक उद्देश्य से हमारे हाथों में रखा गया है। बाइबल
के इन तथ्यों का अधिकांश लोग एहसास नहीं रखते हैं और न ही उन्हें कोई मान्यता देते
हैं, यहाँ तक कि बाइबल पढ़ने वाले और बाइबल में विश्वास रखने वाले अधिकांश
मसीही भी नहीं। इसीलिए, यह प्रत्येक मसीही की ज़िम्मेदारी
है कि उसे उसका भण्डारी होना है, ताकि वह इसका
ध्यान रखे कि परमेश्वर के जीवित वचन बाइबल को उसका उचित आदर और श्रद्धा प्राप्त हो।
इस भण्डारीपन का तात्पर्य है यह सुनिश्चित करना कि बाइबल और उसके सत्यों के साथ
कभी कोई छेड़-छाड़ न हो, उनका दुरुपयोग, गलत
व्याख्या, उनसे अनुचित व्यवहार कभी न हो, और वे
हमेशा ही उनके वास्तविक सच्चे स्वरूप में औरों के सामने प्रस्तुत किए जाएं।
अभी के लिए, हम
पहले परमेश्वर के वचन बाइबल के इस स्वरूप और स्वभाव की समझ में निहित कुछ
तात्पर्यों को देखेंगे। फिर, बाद में, हम उन
विभिन्न बातों को देखेंगे जिन्हें शैतान करवाता है, बहुधा
अनजाने में, और जो बाइबल में लिखी बातों, उनके उपयोग, और
संबंधित वचन की सेवकाई में देखी जाती हैं। इन गलतियों को कई बहुत ज्ञानवान,
जाने-पहचाने, आदरणीय, भली मनसा रखने वाले भक्त,
समर्पित, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी प्रचारकों और शिक्षकों की सेवकाई
में भी देखा जाता है।
आज हमारे हाथों में पूर्ण बाइबल है, जो
पुराने नियम के समयों में नहीं था। उस समय,
परमेश्वर अपने लोगों से बातें अपने नबियों और चुने हुए कुछ लोगों में होकर करता था, जिन्हें
वह सीधे बात करने के द्वारा, या दर्शनों अथवा स्वप्नों के
द्वारा अपनी बात बताता था (गिनती 12:6; दानिय्येल
1:17; 7:1)। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर सभी लोगों से सीधे बात
नहीं करता था, लेकिन केवल कुछ चुने हुए लोगों में होकर सभी के लाभ के लिए अपनी बात
व्यक्त करता था। पवित्र आत्मा उन नबियों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों से उसे, जो
परमेश्वर ने उन्हें बताया था, व्यक्तिगत पुस्तकों के रूप में लिखवाता था; और इन
पुस्तकों को यहूदी पवित्र शास्त्र के रूप में उपयोग करते थे। प्रभु यीशु मसीह ने
भी अपनी पृथ्वी की सेवकाई के समय इन प्रेरणा द्वारा लिखी गई पुस्तकों में से ही
पढ़ा और हवाला दिया (लूका 4:3-12, 16-21)। तो, पुराने
नियम के समय में भी, परमेश्वर हर किसी से, प्रत्येक से बात नहीं करता था, वरन
थोड़े से चुने हुए लोगों में होकर सभी के लिए अपनी बात कहता था। वह जन-सामान्य से, और
अपने लोगों, इस्राएलियों से, अपने नबियों के द्वारा बातें
करता था और उसने उनके द्वारा लिखी हुई पुस्तकों को लोगों को उपलब्ध करवाया था जिस
से कि उन पुस्तकों का उपयोग उस समय के लोगों तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए परमेश्वर
के बारे में सीखने, उन्हें उसकी इच्छा बताने, उनका
मार्गदर्शन करने, उन्हें शिक्षा देने, और
उन्हें सुधारने के लिए किया जाए (व्यवस्थाविवरण
6:1-9; यहोशू 1:8; 1 शमूएल 3:21; 2 इतिहास
34:18-19, 21, 24-27)। पहली कलीसिया के समय, प्रथम ईस्वी में, सुसमाचार,
पत्रियाँ, और अन्य पुस्तकें लिखी गईं; ये भी
कुछ ही लोगों – प्रेरितों और कुछ चुने हुए लोगों के द्वारा सभी के उपयोग और लाभ के
लिए लिखी गईं। पुराने और नए नियम की इन सभी पुस्तकों को पवित्र आत्मा की अगुवाई
में संकलित किया गया, जिस से हमारे लिए परमेश्वर का सम्पूर्ण
वचन, जिसे हम “बाइबल” कहते हैं, उपलब्ध हुआ।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों
को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ
प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की
बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा
से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और
स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु
मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना
जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी
कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों
के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं
आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को
अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे
उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित
प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे
अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना
जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और
समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक
के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए
स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Implications of
Nature of The Bible - 1
In the previous
article we have seen how The Bible is unique, can neither be seen as, nor
compared with any other book of the world, since it is God breathed, written
under the inspiration of the Holy Spirit of God, and is a form of the Lord
Jesus Christ Himself, that has been placed in our hands for a certain purpose. These
Biblical facts are seldom realized and acknowledged by most, even most of the
Bible reading and Bible believing Christians. Therefore, it is every Christian
Believer’s responsibility, his stewardship to ensure that God’s Living Word The
Bible is given its due honor and reverence. This stewardship means ensuring
that
The Bible and its truths are never be tampered with, are not
misused, misinterpreted, mishandled, and are always presented in their actual
form to others.
For now, we will first look at
some implications that are inherent in this understanding about the form and
nature of God’s Word The Bible that we have seen in the previous article. Then,
later, we will consider the various ways in which Satan induces, often
inadvertently, these wrong practices about the Bible and things written in it,
through the ministry of the Word of God to happen. These errors can be seen even
in and through the ministry of some quite knowledgeable, well-known,
well-respected, well-meaning, pious, committed Born-Again Christian Believers,
preachers and teachers of God’s Word.
Now, we have the complete Bible
in our hands, which was not so in the Old Testament times. At that time God
spoke to His people through His Prophets and chosen people, speaking to them
directly, or through using visions and dreams as well to communicate what He
wanted to say to them and through them (Numbers 12:6; Daniel 1:17; 7:1). In
other words, God did not communicate with everyone directly, but only through a
few that were chosen by Him for the benefit of all. The Holy Spirit had the Prophets
and chosen people of God write what was spoken to them as individual books;
which then were used as the Scriptures by the Jews. Even the Lord Jesus in His
earthly ministry read from and quoted from these inspired writings (Luke
4:3-12, 16-21). So, even in the Old Testament times, God did not speak with
everyone and anyone, but only to and through His chosen few. But He
communicated with the general population and His people the Israelites, through
His Prophets and He made available their writings to the people, and for
posterity, to teach them about Himself, show them His will, guide and instruct
them, and correct them (Deuteronomy 6:1-9; Joshua 1:8; 1 Samuel 3:21; 2
Chronicles 34:18-19, 21, 24-27). At the time of the first Church, in the first
century AD, the Gospels, the Letters, and other books were written; again
through a few – the Apostles and other chosen by God, for the benefit of all.
All of these Old and New Testament writings were compiled together under the
guidance and inspiration of the Holy Spirit to provide for us the completed
Word of God which we know as and call “The Bible.”
If you have not yet accepted the
discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to
ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to
the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the
blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the
Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely,
surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life.
You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ
willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and
submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words
something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank
you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.
Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose
again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the
living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption
from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your
care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your
one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future
life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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