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शुक्रवार, 8 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 14 – Be a Steward / भण्डारी बनो – 6

कुछ व्यावहारिक बातें

 

    पिछले लेखों में हमने देखा है कि किस प्रकार से प्रत्येक मसीही विश्वासी परमेश्वर का एक भण्डारी है, और अन्ततः अपने भंडारी होने के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है, चाहे वह इस बात का एहसास करे अथवा न करे, चाहे वह इस उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए परिश्रम करे अथवा नहीं करे। हमने यह भी देखा है कि मसीही विश्वासी किस प्रकार से भण्डारी होने के प्रति गैर-ज़िम्मेदार हो जाते हैं – परमेश्वर तथा उस से संबंधित बातों के प्रति अपने गलत रवैये और सोच के कारण। जब तक कि परमेश्वर और उसकी बातों के प्रति उनका रवैया सही नहीं होगा, वे भण्डारी होने के अपने दायित्व का ठीक से एहसास एवं निर्वाह नहीं करने पाएँगे। भण्डारी होने का यह गैर-ज़िम्मेदारी का निर्वाह मूलतः दो तरह से प्रकट होता है – या तो व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति लापरवाह और उदासीन होता है; या अपने आप ही अधिकार को ले लेता है और फिर उसका स्वार्थी उद्देश्यों तथा सांसारिक लाभ को पाने के लिए दुरुपयोग करता है। आज हम परमेश्वर के वचन में दी गयी कलीसिया, या प्रभु के लोगों की मण्डली से संबंधित भण्डारी होने की जिम्मेदारियों के बारे में कुछ व्यवहारिक बातों के देखेंगे।


    परमेश्वर की कलीसिया, उसके लोगों में भण्डारी होने के निर्वाह की व्यवहारिक उपयोगिता का आरंभ, सम्बन्धित लोगों को छोटी जिम्मेदारियों को देने के साथ आरम्भ होता है, और यदि उन में वे विश्वासयोग्य और परिश्रम करने वाले पाए जाते हैं, तब ही उन्हें और अधिक देने के लिए उनपर भरोसा किया जा सकता है (लूका 16:10-11)। इसलिए मसीही विश्वास में आते ही किसी को भी तुरंत ही बड़ी जिम्मेदारियों के दिए जाने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। कोई भी, कभी भी, आरम्भ से ही किसी भी बात का विशेषज्ञ या उसमें परिपक्व नहीं होता है; हर किसी को, वे चाहे जो भी करें, छोटी बातों से आरम्भ करके, अनुभव के द्वारा सीखते हुए बढ़ना और माहिर बनना पड़ता है, जो भी वे करते हैं उसमें अनुभव के द्वारा ही परिपक्वता आती है। वास्तव में बाइबल की शिक्षा यही है कि कलीसिया में अगुवा होने के और ज़िम्मेदारी के स्थान, कभी भी नए विश्वासियों को नहीं दिए जाने चाहिएँ (1 तिमुथियुस 3:6)। यदि विश्वासी आत्मिक रीति से बढ़ते और परिपक्व होते जाते हैं, और केवल तब ही जब पहले वे छोटी ज़िम्मेदारियों के निर्वाह में विश्वासयोग्य पाए जाते हैं, (1 तिमुथियुस 3:10), तब ही उन्हें, धीरे-धीरे और अधिक तथा और बड़ी ज़िम्मेदारियों को सौंपा जाना है।


    सामान्यतः, विश्वास में आने के कुछ समय बाद ही लोग यह आशा रखते हैं कि उन्हें सीधे से पुलपिट की, अर्थात कलीसिया या मण्डली में वचन के प्रचार की सेवकाई दे दी जाएगी; उनके कलीसिया या मण्डली से संबंधित अन्य कार्यों या सेवकाइयों से जुड़े हुए न होने पर भी। लेकिन सभी मसीही विश्वासियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि केवल वचन का प्रचार ही कलीसिया में एकमात्र सेवकाई नहीं है। वचन की सेवकाई किसी ऐसे जन को दे देना जो अभी उसके लिए ठीक से तैयार नहीं है, या परमेश्वर द्वारा उस सेवकाई के लिए निर्धारित नहीं किया गया है, न केवल कलीसिया के लिए वरन उस जन के आत्मिक जीवन के लिए भी बहुत हानिकारक हो सकता है। हम परमेश्वर के वचन से देखते हैं कि सिखाने, प्रचार करने, और वचन से सम्बन्धित अन्य सेवकाइयों के लिए परमेश्वर ही सेवक नियुक्त करता था (इफिसियों 4:11-12)। ऐसा इसलिए क्योंकि, चाहे जानते हुए अथवा अनजाने में, या किसी असावधानी के कारण, परमेश्वर के वचन के प्रति की गई कोई भी लापरवाही या उसका कैसा भी दुरुपयोग होने के कलीसिया में बहुत व्यापक तथा दूरगामी और गंभीर दुष्प्रभाव होते हैं। इसीलिए, प्रेरित इस बात के लिए बहुत सावधान रहते थे कि वे प्रार्थना और वचन के अध्ययन तथा उसकी सेवकाई की अपनी ज़िम्मेदारी के साथ किसी भी प्रकार का कोई भी समझौता नहीं होने देंगे, इन में संलग्न रहेंगे। और इसलिए कलीसिया के अन्य मुद्दे अन्य ज़िम्मेदार और योग्य जन सम्हालेंगे (प्रेरितों 6:2-4)।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Some Practical Considerations

 

    In the previous articles we have seen how every Christian Believer is a steward of God, and eventually will be accountable to God for his stewardship, whether or not he realizes it, whether or not he strives to fulfil his responsibility as God’s steward. We have also seen how Christian Believers become irresponsible in their stewardship – because of their wrong attitude and thinking towards God and things related to him. Unless their attitude and thinking towards God is correct, they will not be able to realize or fulfil their stewardship properly. This irresponsible stewardship manifests in two basic ways – either being careless and unconcerned towards the responsibility; or usurping authority and misusing it for selfish purposes and worldly gains. Today we will look at some practical considerations related to stewardship, given in God’s Word the Bible, in context of the Church, or, the congregation of God’s people.

    The practical fulfilling of stewardship in the Church of God, amongst His people, is initiated by giving concerned people small responsibilities, and if they are found diligent and faithful, then they can be trusted with more (Luke 16:10-11). So, no one should expect great responsibilities straightaway, soon after coming into the faith, even though they may be very clear about their God given talent and work. No one is ever an expert or is reliably mature in anything from the start; everyone has to begin small, then gradually learn, grow, and become an expert, become mature in whatever they do, through experience. In fact, the Biblical teaching is that positions of responsibility and leadership in the Church are not to be given to novices (1 Timothy 3:6). Only as the Believers grow and mature spiritually, and only if they are found trustworthy in small responsibilities (1 Timothy 3:10), gradually more and bigger responsibilities are to be given to them. But if the stewards are careless and unwilling for small things, or demanding for certain things and disinterested in others, then they will be denied more important ones also.

    Usually, soon after coming to faith, people often straightaway expect to be given the pulpit i.e., being given the Word ministry in the Church; without their being concerned about other things to do in the Church and its various ministries. But all Believers should realize that Word Ministry is not the only stewardship in the Church. Giving the Word Ministry to someone not ready, or not chosen for it by the Lord can be disastrous not only for the Church but for that person’s own spiritual life as well. We see from God’s Word that it is the Lord who appoints those entrusted with the teaching, preaching, and Word related ministries (Ephesians 4:11-12). This is because any carelessness or misuse of God's Word, knowingly or unknowingly, inadvertently, will have severe and widespread consequences in the Church. Therefore, the Apostles were very particular that they would not compromise in their responsibility of prayer, of studying, and of ministering God' Word and remain involved in it, while the other matters were handled by other Believers, who also had to be worthy of handling the matter (Acts 6:2-4).


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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