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व्यावहारिक भण्डारीपन
पिछले लेखों में हमने परमेश्वर का भण्डारी होने के बारे में कुछ सामान्य बातों को देखा है; अर्थात, वह मसीही विश्वासी होने के बारे में जो परमेश्वर के लिए ज़िम्मेदारी और परिश्रम के साथ कार्य करता है, कि परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई जिम्मेदारियों (इफिसियों 2:10) को परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए संसाधनों की सहायता से भली-भांति पूरा करे।
अधिकांश लोग यह मान लेते हैं कि परमेश्वर के नाम में कुछ भी “भला” करने से, जैसे कि औरों की सहायता करना, प्रचार करना, भले कार्य करना, कलीसिया के कार्यों में संलग्न रहना, भले बन कर रहना भलाई करना नियमित प्रार्थना करना और वचन पढ़ना, आदि का करना, परमेश्वर के लिए कार्य करना है, उसके भले भण्डारी होना है, और इसके लिए उन्हें उचित पहचान और पुरस्कार मिलेंगे। किन्तु बाइबल यह नहीं सिखाती है; अपने वचन में परमेश्वर ने उसके भण्डारी होने के लिए यह करना नहीं सिखाया है। परमेश्वर के वचन से कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जो यह दिखाते हैं कि मसीहियों में बहुतायत से प्रचलित यह आम धारणा कितनी गलत और व्यर्थ है। न्याय के समय बहुत से लोगों को बहुत सदमा पहुँचेगा, जब वे खाली हाथ रह जाएँगे, क्योंकि उन्होंने वह नहीं किया जो परमेश्वर ने उनके करने के लिए रखा था। उसके स्थान पर उन्होंने अपनी ही सोच-समझ के अनुसार वह किया जो उन्हें लगा कि परमेश्वर के नाम में किया जाना चाहिए; और बहुतेरों ने तो वह भी नहीं किया होगा – उस दास के समान जिसे एक तोड़ा दिया गया और उसने उसे ऐसे ही रख दिया, बिना परमेश्वर के लिए उसका कोई उपयोग करे (मत्ती 25:24-25)।
परमेश्वर के वचन बाइबल से ऐसे स्वतः ही तय किए गए भण्डारीपन के व्यर्थ ठहरने के कुछ उदाहरणों को देखिए:
मूसा ने समझा था कि इस्राएली उसे उनका छुड़ाने वाला मान लेंगे और स्वीकार कर लेंगे। इसलिए उसने अपनी ही इच्छा के अनुसार वह किया जो उसे सही लगा ताकि इस्राएलियों पर अपनी धाक जमा सके कि वह उनका अगुवा और छुड़ाने वाला है (प्रेरितों 7:24-29), किन्तु उसे अपनी जान बचाने के लिए भाग जाना पड़ा। परमेश्वर ने पहले उसे जंगल में चालीस वर्ष तक बिना किसी हैसियत का, मूक और मूर्ख भेड़ों का चरवाहा होने का प्रशिक्षण दिया, और उसके बाद ही उसे अपने लोगों की चरवाही करने वाला, उन्हें मिस्र से छुड़ा कर लाने वाला अगुवा बनाया जो चालीस वर्ष की जंगल की यात्रा में बहुत धैर्य के साथ उनकी सहता रहा, और उन्हें वाचा की भूमि, कनान देश की सीमा तक ले कर आया।
दाऊद ने सोचा (कृपया 1 इतिहास 13 और 15 अध्याय पढ़िए) कि राजा होने के नाते, वह वाचा के संदूक को जैसे वह चाहे और उसके सलाहकार जो विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते थे, अनुमोदन करें, स्थानांतरित कर सकता है। किन्तु इसका परिणाम बहुत विनाशकारी हुआ, दाऊद परमेश्वर से अप्रसन्न और भयभीत हुआ (1 इतिहास 13:10-13)। उसे बाद में यह एहसास हुआ कि उसे हर कार्य परमेश्वर की इच्छा और विधि के अनुसार करना है (1 इतिहास 15:2, 12-13), और जब उसने ऐसा ही किया, तब आनन्द हुआ और परमेश्वर की महिमा हुई (1 इतिहास 15:25-28)।
दाऊद ने सोच लिया कि वह परमेश्वर के लिए मंदिर बनवाएगा, और परमेश्वर का नबी नातान भी उसके साथ सहमत था (2 शमूएल 7:1-3)। लेकिन परमेश्वर सहमत नहीं था, और उनकी इच्छा को नकार दिया; मंदिर के निर्माण को दाऊद के पुत्र सुलैमान के लिए ठहराया (2 शमूएल 7:5, 12-13)। दाऊद ने परमेश्वर की अगुवाई में मंदिर के निर्माण के लिए सारी तैयारियाँ कीं (1 इतिहास 28:11-19), किन्तु मंदिर को बनाना सुलैमान के करने के लिए निर्धारित था (1 इतिहास 29:2, 19)।
प्रभु यीशु मसीह ने अपने पहाड़ी उपदेश के अन्त के निकट, मत्ती 7:21-23 में, एक बहुत गंभीर चेतावनी और चौकस करने के लिए विचारशील बातें कहीं। उन्होंने कहा कि अन्त के समय बहुत से लोग उनके पास आ कर कहेंगे कि उन्होंने उसके नाम में भविष्यवाणियाँ कीं, दुष्टात्माएँ निकालीं, और आश्चर्यकर्म किए। परन्तु प्रभु उनका इनकार कर देगा और उन्हें अपने से दूर भेज देगा, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य नहीं किया, वरन वह किया जो उन्हें करना सही लगा। यहाँ पर पद 22 बहुत चौंका देने वाले शब्दों के साथ आरम्भ होता है, “उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे”; ध्यान कीजिए, स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, वे थोड़े से या कुछ लोग नहीं होंगे, बल्कि “बहुतेरे” होंगे। आज भी, बहुत से लोग अपनी स्वयं ही निर्धारित की गई सेवकाई या भण्डारीपन के निर्वाह के भ्रम में जी रहे और कार्य कर रहे हैं, जो अन्ततः व्यर्थ और निष्फल ठहरेगा।
भण्डारी होने का अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर के नाम में कोई भी बात को सोच और स्वीकार कर लें, और फिर जैसा अच्छा लगे, वैसे ही उसे अपनी इच्छा के अनुसार करने लग जाएँ। भण्डारी होने का अर्थ है परमेश्वर के आज्ञाकारी होना, और परमेश्वर की आज्ञाकारिता में होकर कार्य करना। भले भण्डारी होने के लिए हमें परमेश्वर से पता करना होता है कि वह हम से क्या चाहता है, और हमें उसे किस तरह से करना है; और फिर परमेश्वर जो हम से चाहता है, उसे परमेश्वर के कहे के अनुसार ही करना है; न कि परमेश्वर के नाम में अपनी इच्छा के अनुसार कुछ भी कर लें।
उन कार्यों के अतिरिक्त जो परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए निर्धारित किए हैं, प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर ने कुछ दिया है:
· अपना वचन
· अपना पवित्र आत्मा
· अपनी कलीसिया की सदस्यता और साथ में उसकी संतानों की सहभागिता
· अपने वरदान, जो पवित्र आत्मा सेवकाई के अनुसार देता है
जैसा हम पहले के लेखों में देख चुके हैं, प्रत्येक मसीही विश्वासी उसका जो परमेश्वर ने उसे दिया है, भण्डारी है। इसलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी उपरोक्त चारों का, जो परमेश्वर की प्रत्येक संतान को दिए गए हैं, भी भण्डारी है। अगले लेख से हम उपरोक्त चारों से सम्बन्धित भण्डारी होने के विभिन्न बातों पर बारी-बारी विचार करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Practical Stewardship
In the previous articles we have seen some general aspects of being a steward of God, i.e., a Christian Believer working diligently and responsibly for God, to fulfill his God given work or responsibilities (Ephesians 2:10), through utilizing the resources that God has entrusted him with.
Many people assume that doing any ‘good’ thing in the name of God, e.g., helping others, preaching, doing good works, being involved in Church activities, being good doing good saying their prayers and reading God’s Word regularly, etc. is working for God, is being His good steward, and they will be duly acknowledged and rewarded for it. But that is not what the Bible teaches; that is not what God has shown in His Word as being His stewards. Numerous examples can be cited from God’s Word to show that this very common notion, so prevalent amongst the Christians is actually incorrect and vain. At judgment time, many will be shocked and left empty-handed because they had not done what God had kept for them to do. Instead, they had gone ahead and done so many things that they had assumed they need to do in God’s name; and many would not even have done that – like the servant to whom one talent had been given, they had simply kept it away, without doing anything for God (Matthew 25:24-25).
Consider a few examples from God’s Word the Bible about the vanity of presumptive stewardship:
Moses assumed that the Israelites would see him as their deliverer, and accept him. So, he took matters in his own hands and acted the way he felt was appropriate to impress upon the Israelites his claim to being their leader and deliverer (Acts 7:24-29), but had to flee for his life. It was only after God had first made him learn being a shepherd of dumb sheep for forty years in the wilderness as a nobody, that he was eventually sent by God to shepherd His people out of Egypt and patiently suffer them throughout the wilderness journey, till he brought them to the border of the Promised Land, Canaan.
David assumed (Please read 1 Chronicles 13 and 15) that as King, he could shift the Ark of the Covenant in the manner that seemed right to him and that was also approved by others ruling with him in various responsible positions. But it only ended up in disaster, David became angry and afraid of God (1 Chronicles 13:10-13). It was later that he realized he had to do things the way ordained by God (1 Chronicles 15:2, 12-13), and when he did so, there was joy and God was glorified (1 Chronicles 15:25-28).
David assumed he could build a Temple for God, and God’s prophet Nathan agreed with him (2 Samuel 7:1-3). But God did not agree, and overruled them; entrusting the building of the Temple to David’s son Solomon (2 Samuel 7:5, 12-13). David made all the preparations for the Temple under the guidance of God (1 Chronicles 28:11-19), but the actual building of the Temple was kept for Solomon to do (1 Chronicles 29:2, 19).
The Lord Jesus towards the end of His Sermon on the Mount, gave a very solemn warning and serious words of caution in Matthew 7:21-23. He said that at the end, many will come to Him saying that in His name they had prophesied, cast out demons, and done miracles. But the Lord would reject them and send them away, since they had not done things in the will of God, but had done what they felt was right. Here, verse 22 begins with very sobering words “Many will say to Me in that day”; take note, in the Lord Jesus’s own words, it will be “many”, not some or a few. Even today, there are many living and working under this deception of assumed or contrived stewardship, which eventually will turn out to be vain and fruitless.
Being a steward of God does not mean assuming things in the name of God and doing them any which way that suits one’s fancy. Stewardship means being obedient to God, and doing things for God in obedience to God. For being good stewards, we have to seek from God what He wants us to do, and then do that which God tells us to do, in the manner He wants us to do; instead of being presumptive and doing anything we feel is good enough for God.
Besides the things or works that God has determined for every Christian Believer, to every Christian Believer God has also given:
His Word
His Holy Spirit
His Church Membership along with Fellowship of His Children
Some Gift of the Holy Spirit for ministry
As we have seen in the earlier articles, every Christian Believer is God’s steward of whatever has been entrusted to him by God. Hence, all Christian Believers are also God’s stewards for the above four, given to every child of God. From the next article, we will start looking at the stewardship aspects related to each of the above, one after the other.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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