परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 12
एक मसीही विश्वासी के परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने के बारे में देखते हुए, हमने पिछले लेखों में कुछ उन तरीकों को देखा है, जिनके द्वारा शैतान बड़ी चालाकी और चुपके से परमेश्वर के वचन में फेर-बदल करवा देता है। हम पहले यह देख चुके हैं कि शैतान यह मुख्यतः दो तरीकों से करता है: पहला तरीका, जिसे हम उसके विभिन्न स्वरूपों में देखते आ रहे हैं, है बाइबल के वास्तविक लेख को बनाए रखना किन्तु उसे बाइबल के विपरीत अर्थ और अभिप्राय प्रदान करवा देना। जैसा हमने पिछले लेखों में देखा है, इस फेर-बदल को करवाने और लागू करवाने का शैतान का सबसे कारगर और सफल तरीका है यह काम जाने या अनजाने में परमेश्वर का प्रतिबद्ध जन, कलीसिया के प्रमुख व्यक्तियों या अगुवों, बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि के द्वारा करवाना। ये धार्मिक लोग यही सोचते और समझते रहते हैं कि वे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं और उसके वचन का प्रचार कर रहे हैं; लेकिन उन्हें एहसास ही नहीं होने पाता है कि बड़ी चालाकी से शैतान ने उन्हें फँसा लिया है और वे उसके लिए कार्य कर रहे हैं और जो वो प्रचार कर रहे हैं, सिखा रहे हैं, वह परमेश्वर के वचन का बिगड़ा हुआ, भ्रष्ट किया हुआ स्वरूप है। परमेश्वर के वचन के साथ छेड़-छाड़ करने का शैतान का दूसरा तरीका, जिसे हम आज देखेंगे, पवित्र शास्त्र के लेख को ही बदल देना है । परमेश्वर द्वारा दिए गए वचन में कुछ जोड़ने अथवा उसमें से कुछ निकाल लेने के द्वारा वे वचन के अर्थ और अभिप्राय ही बदल देते हैं। और शैतान यह कार्य भी धार्मिक अगुवों के द्वारा ही करवाता है।
यह बात प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के समय प्रकट थी। उस समय के धार्मिक अगुवों ने परमेश्वर के वचन में बहुत से फेर-बदल कर दिए थे, उसे अपने स्वार्थ के लिए सहज तथा अपने लाभ के लिए उपयोग करने के लिए। जब हम मत्ती 5 से 7 अध्याय में प्रभु द्वारा दिए गए ‘पहाड़ी उपदेश’ को पढ़ते हैं, तो हम प्रभु यीशु को बहुधा ‘तुम सुन चुके हो’, ‘तुम से कहा गया था’, आदि वाक्यांशों का पवित्र शास्त्र की शिक्षाओं के विषय उपयोग करते हुए देखते हैं; और फिर वह इसके बाद कहता है, ‘परन्तु मैं तुम से कहता हूँ’ और फिर जन-सामान्य को उस समय के धार्मिक अगुवों द्वारा जो गलत कहा और सिखाया गया था उसके सही स्वरूप को बताता है। इसी प्रकार से, मत्ती 15:1-15 में, फरीसियों और शास्त्रियों से प्रभु कहता है, “और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश कर के सिखाते हैं” (मत्ती 15:9)। ये दोनों उदाहरण भली-भांति चित्रित करते हैं कि कैसे उस समय भी, धार्मिक अगुवों ने परमेश्वर के वचन में फेर-बदल करके उसे बिगाड़ दिया था, भ्रष्ट कर दिया था।
प्रभु यीशु मसीह के स्वर्गारोहण के पश्चात, प्रभु में विश्वास द्वारा मिलने वाले उद्धार के सुसमाचार का प्रचार होने लगा, और जैसे-जैसे कलीसियाएँ बढ़ने और फैलने लगीं, सभी स्थानों पर मसीही विश्वासी बढ़ने लगे, तो साथ ही शैतान ने भी मसीही विश्वास की बिगाड़ी हुई शिक्षाओं को उनमें फैलाना आरम्भ कर दिया। उस समय लोगों के लिए एक बहुत गंभीर समस्या थी उनके पास लिखित नया नियम विद्यमान नहीं होना, जैसा कि आज हमारे पास है, और इससे शैतान का कार्य और भी सरल हो गया क्योंकि सभी शिक्षाएँ या तो मौखिक दी जाती थीं, अथवा विभिन्न स्थानों पर स्थित लोगों या कलीसियाओं को लिखी गई पत्रियों के द्वारा दी जाती थीं। नीचे दिए गए थोड़े से उदाहरणों को देखते समय, कृपया इस एक बात पर भी ध्यान कीजिए, कि वे कौन लोग थे जिनके द्वारा शैतान ने इन फेर-बदल की, तथा वचन को भ्रष्ट करने वाली बातों को मण्डलियों में घुसाया था। आप देखेंगे कि लगभग हर बार धार्मिक अगुवों या कलीसियाओं से संबंधित प्रमुख लोगों के द्वारा ही शैतान ने यह कार्य करवाया है। अनेकों में से कुछ उदाहरण हैं:
· प्रेरितों 20:28-30 में, पौलुस बंदी हो कर रोम जाते समय, मार्ग में इफिसुस की मण्डली के अगुवों से मिलता है, और उन्हें उन लोगों के बारे में सचेत करता है जो आकर टेढ़ी-मेढ़ी बातें प्रचार करेंगे और लोगों को खींच कर ले जाएँगे; और वह विशेष रूप से यह भी कहता है कि ऐसे कुछ लोग उन्हीं में से – कलीसिया के उन अगुवों में से, जिन्हें वह संबोधित कर रहा था, भी उठ खड़े होंगे।
· गलातियों 1:6-9 में पौलुस गलातिया की मण्डली के विश्वासियों को, उनके गलत सुसमाचार के पीछे चल निकलने के लिए, डांट रहा है; और वह भी सही सुसमाचार ग्रहण करने के शीघ्र ही बाद। लेकिन साथ ही इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि पौलुस किन के लिए कहता है कि वे गलत सुसमाचार प्रचार कर सकते हैं – वह स्वयं अपने, अपने साथियों, या किसी स्वर्गदूत के द्वारा यह होने की बात करता है! अर्थात वे लोग जिन्हें सुसमाचार प्रचार सौंपा गया है, उसकी समझ दी गई है, वे ही गलत प्रचार करने के लिए बहकाए और भरमाए जा सकते हैं। यह एक बार फिर इस बात की पुष्टि करता है कि शैतान बड़ी चालाकी से धर्मी लोगों को, वचन का वरदान पाए हुए प्रचारकों और शिक्षकों को, परमेश्वर और उसके वचन के विपरीत बातें सिखाने और प्रचार करने के लिए उपयोग करता है।
· इसी प्रकार से 2 तीमुथियुस 2:17-18, तथा 2 थिस्सलुनीकियों 2:1-2 में, पौलुस उस गलत सन्देश का सुधार करता है जो कुछ प्रचारकों द्वारा प्रचार किया जा रहा था और कलीसियाओं को परेशान कर रहा था, कि प्रभु का दूसरा आगमन हो चुका है, और वे लोग पीछे छूट गए हैं; इस प्रकार से उन्हें भरमाया जा रहा था कि उनका विश्वास करना व्यर्थ है। कलीसियाओं के मान्यता प्राप्त प्रचारक ही गलत प्रचार कर रहे थे।
· प्रेरित यूहन्ना, 1 यूहन्ना 4:1 में उन झूठे भविष्यद्वक्ताओं के लिए सचेत करता है जो सँसार में फ़ैल चुके थे, प्रभु यीशु और उद्धार की गलत शिक्षाओं के साथ।
· प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 और 3 की सात कलीसियाओं के बारे में विचार कीजिए, और प्रभु के पास उनमें से पांच कलीसियाओं के अगुवों के लिए कितनी गंभीर ताड़ना की बातें थीं, उनके गलत शिक्षाओं और सिद्धांतों के कारण।
यदि आप इस तथ्य पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें, नए नियम में, सभी पत्रियाँ या तो व्यक्तियों को अथवा कलीसियाओं को लिखी गई थीं, मुख्यतः, उनमें घुस आई बहुत सी गलतफहमियों, गलत धारणाओं, और गलत शिक्षाओं को सही करने के लिए। दूसरे शब्दों में, जैसे ही मसीही शिक्षाएँ फैलने लगीं, उसी के साथ ही शैतान द्वारा उनके बिगाड़े और भ्रष्ट किए हुए स्वरूप भी फैलने लगे, यदि सही शिक्षाओं से अधिक तेज़ी से नहीं तो कम से कम उनकी गति से तो अवश्य ही। इसीलिए लगभग आधा नया नियम, अर्थात प्रेरितों के काम और प्रकाशितवाक्य पुस्तकों के मध्य की सारी पत्रियाँ, सभी इसी एक उद्देश्य के अन्तर्गत लिखी गईं – शैतान द्वारा वचन और उसके अर्थ में लाए गए बिगाड़ को सही करने के लिए। यदि आप इस बात का अध्ययन करें कि ये शैतानी शिक्षाएँ और सिद्धान्त कलीसियाओं और मण्डलियों कैसे घुसे, कैसे जम कर बैठ गए, और फिर औरों तक भी फैला दिए गए, तो आप को यह जानकार अचरज होगा कि इन भ्रष्ट शैतानी बातों को कलीसियाओं में घुसने देने और पेट बना लेने में विभिन्न धार्मिक अगुवों और प्रमुख लोगों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है, और इसमें बहुत बड़ी सहायता और समर्थन उन अगुवों के अंध-भक्तों का, तथा मण्डली के लोगों द्वारा बिना कोई प्रश्न उठाए हर बात को चुपचाप स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति का भी रहा है।
अगले लेख में हम देखेंगे कि वर्तमान में, कलीसियाओं और मण्डलियों में यह वचन के साथ छेड़-छाड़ और बिगाड़ कैसे हो रहा है, तथा कैसे पहचाना जाए कि कोई धार्मिक अगुवा, अनजाने में ही परमेश्वर के वचन में बिगाड़ लाने के लिए, शैतान द्वारा संभवतः फँसा लिया गया है, बिना इस के बारे में कोई जानकारी के, या इसका एहसास किए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Altering God’s Word – 12
While considering the stewardship of a Christian Believer towards God’s Word the Bible, in the previous articles we have seen some of the various subtle and inapparent ways by which Satan alters God’s Word. Earlier, it had been stated that Satan does this alteration in mainly two ways: one is what we have been seeing in its various forms, retaining the actual Biblical text but giving it meanings and implications contrary to Biblical teachings. As we have seen in the preceding articles, Satan’s most convincing way of doing and successfully implementing the alteration is by getting it done advertently or inadvertently through God’s committed Believers, Church leaders or elders, Bible preachers or teachers, etc. These religious people keep thinking and believing that they are serving God and propagating His Word, without realizing that very cunningly Satan has trapped them into working for him, and they are actually preaching and teachings his distorted and corrupted versions of God’s Word. Satan’s second method of tampering with God’s Word, which we will see today, is to alter the very text of the Scriptures by adding to or taking away from the original text given by God, and thereby change the meanings and implications of God’s Word. And Satan gets this also done through these same religious people.
This was evident even at the time of the Lord Jesus’s earthly ministry. The religious leaders of that time had made many alterations in God’s Word, to make it suit their convenience and even greed. As we read through the ‘Sermon on the Mount’ given by the Lord in Matthew chapters 5-7, very frequently we come across the Lord Jesus saying ‘you have heard’, ‘it has been said to you’, etc., about some Scriptural teachings, and He then follows it up by saying ‘but I say to you’ and then states the corrected form of what was wrongly being preached and taught to the general people by the religious leaders of His time. Similarly, in Matthew 15:1-15, to the Scribes and Pharisees the Lord Jesus says “And in vain they worship Me, Teaching as doctrines the commandments of men” (Matthew 15:9). Both these examples well illustrate how the religious leaders had altered and corrupted the Word of God, even at the time of earthly ministry of the Lord Jesus.
After the ascension of the Lord Jesus and the preaching of the gospel of salvation through faith in Him, as the Churches spread and Christian Believers began to increase everywhere, Satan again planted these altered forms of teachings of the Christian Faith. One serious handicap at that time was the lack of the written and compiled New Testament text, as we have in out hands now, and this made Satan’s work much easier, since all the teachings were either orally given, or were in form of letters written to persons or Churches in various locations. While looking at the few examples that are given below, please keep noting the people who were used by Satan to carry out this alteration and corruption of God’s Word. You will see that practically every time it were the religious leaders or prominent people from or related to the Church, whom Satan used. Just a few of the many examples are:
· In Acts 20:28-30, Paul on his way to Rome as a prisoner, meets with the elders of the Ephesian Church, and warns them of people who will come in to preach perverse things and draw people away; and he specifically states that some these perverse people will arise from amongst them – the very Church Elders he was addressing, and warning.
· In Galatians 1:6-9, the Apostle Paul is admonishing the Galatian Believers for turning to a false gospel, and that too soon after receiving the true gospel. But also note who Paul refers to as the ones who are likely to preach this false gospel – he himself, his companions, even an angel from heaven! In other words, those who have been entrusted with the gospel and given the understanding about it, the preachers and teachers gifted with preaching and teaching the Word of God, can be deceived into preaching and teaching false things. This again goes to affirm that Satan very cleverly uses the godly people, to preach and teach things contrary to God and His Word.
· Similarly in 2 Timothy 2:17-18, and 2 Thessalonians 2:1-2, Paul corrects the wrong message that was being preached by some preachers and was disturbing the Churches, that the second coming of the Lord Jesus had already happened, but they were left behind; thus, making them think that their faith was vain. Recognized preachers of the Churches were preaching wrong things.
· The Apostle John, in 1 John 4:1 warns against many false prophets who had gone out into the world with a wrong doctrine about the Lord Jesus and salvation.
· Consider the seven Churches of Revelations chapters 2 and 3, and what severe admonition the Lord had for those Elders having the charge of those Churches; for five of those seven Churches, for their wrong doctrines and teachings.
If you give it serious thought, in the New Testament, all the letters, were written to persons or Churches mainly to correct the many misunderstandings, misconceptions, and wrong teachings that had crept into the lives of the Christian Believers. In other words, as soon as the Christian teachings spread, their corrupted versions from Satan also spread, at least at the same pace if not faster. Therefore, about half of the New Testament text, i.e., all the letters between the books of Acts and Revelation, were all written for this one main purpose – to correct the distortions and misinterpretations that Satan had brought into the Word. If you study how these various satanic teachings and doctrines infiltrated and settled into the Churches and congregations, and then spread to others from them, you will be surprised to see that in letting these satanic corruptions enter and settle down in the Churches and congregations, the various religious leaders and elders had a very major role to play, which was of course strongly helped and supported by the blind-followers of those leaders as well as the tendency of passive unquestioning acceptance by the congregation.
In the next article we will see about the manner in which this tampering with god’s Word and distorting it is happening in the Churches and Assemblies in the present days, and how to recognize that a religious leader may have been ensnared by Satan into inadvertently corrupting God’s Word, without being aware of it, realizing it.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें