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शनिवार, 18 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 84 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 13


पवित्र आत्मा – सत्य का आत्मा – 2

 

    पिछले लेख में, मसीही विश्वासी के परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए परमेश्वर पवित्र आत्मा का योग्य और भला भण्डारी होने के सन्दर्भ में, हमने यूहन्ना 14:17 से मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा के एक अन्य पक्ष को सीखना आरम्भ किया था, जिस से कि मसीही विश्वासी इस संसाधन का उपयुक्त और सफल उपयोग कर सके, और मसीही विश्वास के अपने जीवन और सेवकाई में ठीक से उस की सहायता प्राप्त कर सके। हमने इस पद में प्रभु यीशु द्वारा पवित्र आत्मा के बारे में शिष्यों से कही गई तीन बातों को देखा था। फिर हमने उन में से पहली बात, अर्थात पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है को देखना आरम्भ किया था। पिछले लेख के अन्त, यह इस बात के साथ किया गया था कि पवित्र आत्मा के सत्य का आत्मा होने के बारे में कही गई इस बात से ज़रा सा भी हटना, उसके साथ हल्का सा भी समझौता, मसीहियत की बुनियाद को झकझोर कर रख देगा। आज हम इस बात को कुछ गहराई से देखते और समझते हैं।


    बाइबल के इस तथ्य का कि पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है, अर्थ है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा केवल उसी के साथ जुड़ा हुआ होगा जो बाइबल के अनुसार सही और सत्य है; और कभी भी किसी भी ऐसी बात के साथ नहीं होगा जो बाइबल के अनुसार सही और सत्य नहीं है। यह बात हमेशा ही और हर हाल में लागू रहेगी, चाहे प्रचार करने और शिक्षा देने वाला और उसकी बातें कितनी भी तर्कसंगत, आकर्षक, और भक्त क्यों न प्रतीत हो। क्योंकि, उसकी परिभाषा के अनुसार, सत्य का आत्मा किसी भी असत्य के साथ कभी भी, किसी भी रीति से, हो ही नहीं सकता है – किसी भी असत्य के साथ नहीं, तात्पर्य में भी नहीं, किसी ऐसी बात के लिए भी नहीं जो बहुत महत्वपूर्ण अथवा अनिवार्य प्रतीत होती है। यदि यह नहीं होगा, तो फिर किसी ज़रा सी बात के लिए, उसका सत्य का आत्मा होने का दावा गलत हो जाएगा, और इससे उसके बारे में प्रभु यीशु का दावा झूठा हो जाएगा, और परमेश्वर का वचन बाइबल त्रुटिपूर्ण हो जाएगी। यदि परमेश्वर का लिखित वचन झूठा तथा त्रुटिपूर्ण है, तो फिर वह जीवित वचन जो देहधारी हुआ और जिसने हमारे बीच में डेरा किया (यूहन्ना 1:1-2, 14), वह भी गलत और त्रुटिपूर्ण है; और फिर इस कारण मसीही विश्वास का, हमारे उद्धार का, परमेश्वर के सिद्ध, अटल, और बिना किसी त्रुटि के होने, इत्यादि का सम्पूर्ण आधार और कारण, ये सभी बातें संदेह की छाया में आ जाएँगी, और अविश्वसनीय, इसलिए अस्वीकार्य हो जाएँगी।


    इसलिए यह सर्वोपरि महत्व की बात है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित किसी भी प्रचार अथवा शिक्षा को स्वीकार करने से पहले, प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसे बाइबल से जाँच-परख कर, उसकी सत्यता और यथार्थ की पुष्टि कर लेनी चाहिए। किसी भी मसीही विश्वासी को केवल प्रचारक या शिक्षक के नाम और प्रतिष्ठा के आधार पर उसके द्वारा कही जा रही किसी भी बात को यूँ ही स्वीकार कभी नहीं करना चाहिए। न ही कभी किसी को भी किसी नाटकीय शारीरिक हाव-भाव को या भावनात्मक व्यवहार को पवित्र आत्मा के होने के ‘प्रमाण’ के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसके विपरीत, इस प्रकार के सभी प्रदर्शन इस बात का प्रमाण हैं कि उनके साथ पवित्र आत्मा किसी भी रीति से जुड़ा हुआ नहीं है। इस प्रकार का सभी प्रचार और शिक्षा यह दिखाता और सिखाता है कि यह झूठ है, गलत है; क्योंकि प्रभु यीशु के शिष्यों के मध्य पवित्र आत्मा द्वारा ऐसा कोई भी कार्य परमेश्वर के वचन में, आरंभिक कलीसिया में, कहीं नहीं कहा या किया गया है।


    पवित्र आत्मा ही सभी विश्वासियों को उनकी सेवकाई में, और उसके लिए सामर्थ्य प्रदान करता है। यद्यपि प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में शिष्यों ने जा कर प्रचार किया और आश्चर्यकर्म भी किए, लेकिन अब, प्रभु ने उन्हें प्रेरितों 1:8 में, पवित्र आत्मा प्राप्त करने तक की प्रतीक्षा करने के लिए कहा, और उसके बाद ही वे सेवकाई के लिए जाएं, क्योंकि तब पवित्र आत्मा उनकी सामर्थ्य होगा, और तब ही वे प्रभु के लिए प्रभावी होंगे।


    क्योंकि पवित्र आत्मा केवल सत्य ही के साथ रहेगा, इसलिए उसकी सामर्थ्य भी केवल उसी के साथ होगी जो वास्तव में सत्य है, और कभी भी किसी भी असत्य के साथ नहीं। इसलिए, चाहे कोई भी कुछ भी कहे, प्रचार करे, और सिखाए कि परमेश्वर की सामर्थ्य को कैसे उपयोग करना है, यदि वह बाइबल के अनुसार सत्य नहीं है, तो वह प्रभु के लिए कदापि प्रभावी भी नहीं होगा। लेकिन हो सकता है कि वह उस प्रचारक और शिक्षक के लिए, लोगों को प्रभावित करने, नाम और ख्याति प्राप्त करने, या साँसारिक लाभ और वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए प्रभावी हो जाए। अगले लेख में हम ‘सत्य’ के बारे में समझेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Holy Spirit – The Spirit of Truth – 2

 

    In the previous article, in context of the Christian Believer being a steward of the God given God the Holy Spirit to every Born-Again Christian Believer, we had started to learn from John 14:17, another aspect of the ministry of the Holy Spirt in the life of a disciple of Christ, so that the Believer can effectively and successfully utilize this resource, and take His help in his ministry and life of Christian faith. We had seen the three things that the Lord had stated about God the Holy Spirit to the disciples in this verse, and then had started to learn about the first of these three, i.e., the Holy Spirit is the Spirit of Truth. In the last article, we had stopped by saying that the least bit of deviation, the slightest compromise with this aspect of the Holy Spirit being the Spirit of Truth will severely shake the very foundations of Christianity. Today we will delve into and understand it.


    This Biblical fact, that the Holy Spirit is the Spirit of Truth, means that God the Holy Spirit will only be associated with that which Biblically is the truth; and never ever with anything that Biblically is not the truth. This holds true, no matter how logical, appealing, and pious anyone’s preaching and teaching may seem. Because by definition, the Spirit of Truth can never have anything to do with any untruth – none whatsoever, not even in the implications, not for anything that seemingly is very important or necessary. If this was not so, then, because of even one slightest thing, the claim of His being the Spirit of Truth will become false, and therefore Lord Jesus’s claim about Him will become a lie, and God’s Word the Bible will become erroneous. If God’s written Word is false and erroneous, then the Living Word that became flesh and dwelt amongst us (John 1:1-2, 14), is also false and erroneous, and therefore the whole basis and reason of the Christian Faith, of our salvation, of God being inerrant, infallible and absolute, etc., all come under a shadow of suspicion and become unreliable, therefore, unacceptable.


    Hence, it is of paramount importance that before accepting any preaching or teaching about God the Holy Spirit, whoever the preacher or teacher may be, every Christian Believer should verify from the Bible the absolute genuineness of what is being stated. No Christian Believer should ever take for granted and fall for the name or reputation of the preacher or teacher. Neither should anyone ever accept any dramatic physical and emotional actions and expressions as ‘proof’ of the Holy Spirit being involved. On the contrary, all such displays are a proof that the Holy Spirit is absolutely not involved in it. All such preaching and teaching that shows and promotes this is false, since nothing of this sort is ever recorded anywhere about the work and ministry of the Holy Spirit amongst the disciples of the Lord Jesus and in the life of the first Church in the Word of God.


    It is the Holy Spirit that gives the power to all Believers, in and for all their Christian ministries. Although earlier too, during the earthly ministry of the Lord Jesus, the disciples had gone for preaching and done miracles, but now the Lord Jesus had asked the disciples in Acts 1:8 to wait till they had received the Holy Spirit, and only then go for ministry, since the Holy Spirit would be their power, and only then will they be effective for the Lord.


    Since the Holy Spirit will only be with the truth, therefore His power will also be available only with that which actually is the truth, and never with anything that is not the truth. Hence despite all that anybody may preach or teach about how to effectively use God's power, if it is not the Biblical truth, then it will not be effective for the Lord either. Although it may be very beneficial for the preacher and teacher to impress people and acquire worldly name, fame, and gains. In the next article we will learn about understanding ‘the truth.’


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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