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रविवार, 19 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 85 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 14


पवित्र आत्मा – सत्य का आत्मा – 3

 

    हम मसीही विश्वासियों के परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए संसाधनों के योग्य और भले भण्डारी होने की आवश्यकता के बारे में अध्ययन करते आ रहे हैं। उन संसाधनों में से एक है परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो परमेश्वर द्वारा विश्वासियों में निवास करने के लिए दिया गया है, ताकि उनके मसीही जीवन और सेवकाई में उनका सहायक और मार्गदर्शक हो। पवित्र आत्मा और उसकी सामर्थ्य के उपलब्ध होने का सही उपयोग कर पाने के लिए मसीही विश्वासी को उसका योग्य और भला भण्डारी होना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में हम अब यूहन्ना 14:17 को देख रहे हैं, जहाँ पर पवित्र आत्मा के मसीही विश्वासियों का सहायक और साथी होने के बारे में तीन बातें कही गई हैं। इन तीन में से पहली है कि वह सत्य का आत्मा है; और पिछले दो लेखों से हम इस बात के अर्थ को समझ रहे हैं। आज हम समझेंगे और सीखेंगे कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, सत्य क्या है।


   बाइबल दो बातों को, वास्तव में एक बात के ही दो स्वरूपों को, सत्य कहती है – पहला तो स्वयं प्रभु यीशु मसीह है – जैसा कि उन्होंने अपने ही शब्दों में कहा है, “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6); वही जीवित वचन भी है, यूहन्ना 1:1-2, 14। दूसरा, सम्पूर्ण बाइबल सत्य है, “तेरा सारा वचन सत्य ही है; और तेरा एक एक धर्ममय नियम सदा काल तक अटल है” (भजन 119:160)। यह अनन्तकालीन, अटल, त्रुटि रहित, अपरिवर्तनीय वचन, हमेशा के लिए स्वर्ग में स्थिर है (भजन 119:89)। इसलिए, इसमें कोई अचम्भे की बात नहीं है कि परमेश्वर के वचन, वचन में कुछ भी जोड़ने, अथवा उस में से कुछ भी घटाने या हटाने को बहुत गंभीरता से वर्जित करता है, ऐसा करने वाले के लिए कठोर दण्ड की भी चेतावनी देता है (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर के वचन में कुछ जोड़ना अथवा उस से कुछ हटाना, जीवित देहधारी वचन प्रभु यीशु में ही कुछ जोड़ने या उस में से कुछ हटाने के तुल्य होगा। इसका यह भी तात्पर्य होगा कि, परमेश्वर के गुणों के विपरीत, मनुष्य अपनी बुद्धि, समझ, और योग्यता के द्वारा परमेश्वर के सिद्ध और अनन्तकालीन सत्य को संपादित कर सकता है, निर्णय कर सकता है कि किस भाग को परिवर्तित करना है, किसे थोड़ा और सुधारना है! यह असंभव है, यह एक शैतानी छलावा है, यह कहने का एक तरीका है कि परमेश्वर का वचन सिद्ध और त्रुटि रहित नहीं है; उसे मनुष्य द्वारा और बेहतर किया जा सकता है।


    इस बात का व्यवहारिक उपयोग यह है कि आत्मिक बातों के लिए, मसीही विश्वासियों के द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और लागू किए जाने के लिए, ऐसी कोई भी बात जिसे प्रभु यीशु मसीह ने नहीं कहा या सिखाया है, ऐसा कुछ भी जो बाइबल में पवित्र आत्मा की अगुवाई और मार्गदर्शन में प्रेरितों और नबियों के द्वारा दिया और कहा नहीं गया है (2 तीमुथियुस 3:16; 1 कुरिन्थियों 3:11; इफिसियों 2:20), वह कदापि सत्य नहीं हो सकता है – उस बात को कहने और सिखाने वाला चाहे कोई भी हो, वह बात कितनी भी तर्कसंगत, आकर्षक, और भक्तिपूर्ण क्यों न प्रतीत हो। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, जीवन और भक्ति से सम्बन्धित सभी बातें हमें प्रभु यीशु मसीह की पहचान के द्वारा दे दी गई हैं (2 पतरस 1:3)। इसका अर्थ है कि मसीही जीवन जीने के लिए जो भी शिक्षाएं, नमूने, और उदाहरण आवश्यक हैं, विश्वासी के जीवन में और उसके सामने आने वाली परिस्थितियों का सामना करने के लिए जो भी उसे चाहिए, उसे कैसे प्रार्थना और आराधना करनी है, शैतानी युक्तियों और छल की बातों को कैसे पहचानना और उन पर कैसे जयवंत होना है, परमेश्वर को कैसे प्रसन्न करना है, आदि, सब कुछ पहले से ही परमेश्वर द्वारा हमें दे दी गई हैं। इसलिए, विश्वासी को भक्ति का जीवन जीने और अपनी सेवकाई में प्रभु के लिए प्रभावी होने के लिए और किसी बात की कोई आवश्यकता नहीं है, और न ही इस वचन के अतिरिक्त उसे कुछ और कभी दिया जाएगा।


    इसीलिए, पौलुस ने कहा है कि वह कभी भी लिखित वचन के आगे नहीं बढ़ा (1 कुरिन्थियों 4:6), अर्थात, प्रभु के लिए अपनी सेवकाई में, जो परमेश्वर ने दे रखा है, उस में उसने कभी कुछ नहीं जोड़ा। साथ ही पौलुस 1 कुरिन्थियों 11:1 और 1 थिस्सलुनीकियों 4:1 में मसीही विश्वासियों से यह आग्रह भी करता है कि किसी मनुष्य का नहीं बल्कि प्रभु यीशु का अनुसरण करने वाले बनें, उसी तरह से जैसे कि वह स्वयं प्रभु का अनुसरण करता है। हम अगले लेख में परमेश्वर पवित्र आत्मा के सत्य का आत्मा होने के बारे में और आगे देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Holy Spirit – The Spirit of Truth – 3

 


    We have been studying about the necessity of Christian Believers to be worthy stewards of God’s provisions to them. One these provisions is God the Holy Spirit, given by God to reside in them, to help and guide them in their Christian life and ministry. The Believer needs to be a worthy steward of the Holy Spirit, to be able to properly utilize His availability and power in his life. In this context, we are now looking at John 14:17, where three things related to the Holy Spirit being the Helper and Companion of the Believers are mentioned. The first of these three is that He is the Spirit of Truth; and in the last two articles we have seen the implications of this statement. Today we will understand and learn, what is the truth, as per God's Word the Bible.


    The Bible calls two, actually two forms of one, as the Truth - first is the Lord Jesus Christ Himself – as He has said in His own words, “Jesus said to him, "I am the way, the truth, and the life. No one comes to the Father except through Me” (John 14:6); He is the Living Word John 1:1-2, 14. The second is, the whole of the Bible the is truth, “The entirety of Your word is truth, And every one of Your righteous judgments endures forever” (Psalms 119:160). This eternal, inerrant, infallible, unalterable Word is forever settled in heaven (Psalm 119:89). Therefore, it is not at all surprising that God’s Word strictly forbids and severely penalizes adding anything to it or taking away anything from it, the written Word (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). This is because adding to, or taking away from God’s Word would be adding to or taking away from the Lord Jesus, the incarnate Living Word. It would also imply that, contrary to the characteristics of God’s Word, man through his wisdom and ability can edit and decide which part of God’s eternal, perfect truth should be modified or improved upon! This is an impossibility, it is a satanic deception, another way of saying that God’s Word is not perfect and inerrant; it can be improved upon by man.


    The practical application of this fact is that for spiritual matters, for the utilization and application of God’s Word by the Christian Believers, anything that has not been said or taught by the Lord Jesus, anything that has not already been given or said in the Bible, through the Apostles and Prophets under the inspiration and guidance of the Holy Spirit (2 Timothy 3:16; 1 Corinthians 3:11; Ephesians 2:20), cannot be the truth - no matter who teaches it, or how logical, appealing, and pious it may seem. As we have seen earlier, all things pertaining to life and godliness have already been given to us through the knowledge of the Lord Jesus (2 Peter 1:3). This means that all teachings, patterns, and examples of living the Christian life, the ways of handling various situations that will come in the Believer’s way, how to worship and pray, how to recognize and overcome the satanic deceptions and ploys, how to please God, etc. have all already been given to us by God. Hence, there is nothing more or else that the Believer needs, or will be given to him besides this Word, to live a godly life and be effective for the Lord in his ministry.


    That is why Paul has said that he never went beyond the written Word (1 Corinthians 4:6); i.e., in his ministry for the Lord, he never added anything to what God had given. Paul also exhorts the Christian Believers in 1 Corinthians 11:1 and 1 Thessalonians 4:1, to follow not any person, but the Lord Jesus Christ, in just the same manner as he follows Him. We will learn further about God the Holy Spirit being the Spirit of Truth in the next article.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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