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सोमवार, 18 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 114 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 43

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पवित्र आत्मा से सीखना – 23

 

    जैसे कि प्रभु यीशु ने प्रतिज्ञा दी थी, परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक विश्वासी में निवास करने के लिए उसे उसके उद्धार पाने के क्षण से ही प्रदान कर दिया जाता है। उसे विश्वासी का सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है; ताकि उसके मसीही जीवन को जीने और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई के ठीक से निर्वाह करने में सहायक हो। जैसे कि परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए अन्य प्रावधानों के लिए है, वैसे ही विश्वासी को परमेश्वर पवित्र आत्मा का भी योग्य भण्डारी होना है। इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए विश्वासी को परमेश्वर द्वारा उसे दी गई बातों के बारे में सीखना है, जिनमें पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है। उसका शिक्षक होने के नाते, परमेश्वर पवित्र आत्मा विश्वासी को सभी बातों के बारे में सिखाता है, अपने बारे में भी। वह यह तब ही करता है जब विश्वासी मनुष्यों और मनुष्यों की रचनाओं से सीखने पर निर्भर होने, जो उसे झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों में फँसा सकते हैं, की बजाए पवित्र आत्मा से सीखने के लिए तैयार होता है। इस वर्तमान श्रृंखला में हम पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में सीख रहे हैं, और इस से संबंधित विभिन्न बातों को हमने 1 पतरस 2:1-2 और भजन 25 से देखा है। अभी हम 1 कुरिन्थियों 2:12-14 पर विचार कर रहे हैं; और हमने पद 12 से देखा है कि मसीही विश्वासियों को, अपनी बुनियादी शिक्षा के समान, उन बातों के बारे में सीखना है जो परमेश्वर ने उन्हें दी हैं। अब हम पद 13 पर विचार कर रहे हैं, और हमने उसके पहले वाक्यांश को देखा है जिस में पौलुस कहता है कि वह और उसके सहकर्मी उन बातों के बारे में विश्वासियों को सिखाते हैं। इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले, पिछले लेख में हमने बाइबल, परमेश्वर पवित्र आत्मा, और उस से परमेश्वर के वचन को सीखने के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को दोहराया था। पद 13 के दूसरे वाक्यांश को समझने के लिए यह करना आवश्यक था, और आज हम इस दूसरे वाक्यांश को देखेंगे।

    जैसा हमने पद 13 के पहले वाक्यांश पर विचार करते समय देखा है, पौलुस कहता है कि वह और उसके सहकर्मी परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई बातों के बारे में सिखाते थे। इस पद के दूसरे वाक्यांश में पौलुस इस शिक्षा के साथ जुड़े हुए एक बहुत महत्वपूर्ण पक्ष का भी उल्लेख करता है, जिसका पालन वह और उसके सहकर्मी अपनी सेवकाई में करते थे। इस पद के दूसरे वाक्यांश में पौलुस कहता है, कि वे लोग उन बातों के बारे में “मनुष्यों के ज्ञान की सिखाई हुई बातों में नहीं, परन्तु आत्मा की सिखाई हुई बातों में” होकर सिखाते थे। स्मरण रखिए कि उसके परिवर्तन होने के समय से ही पौलुस का स्वामी परमेश्वर हो गया था, वह परमेश्वर के लिए कार्य करता था, और वह परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई जिम्मेदारियों के निर्वाह के द्वारा परमेश्वर की सेवा करता था। यहाँ पर, यह पत्री उसने परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखी, मसीही विश्वासियों, अर्थात परमेश्वर की सन्तानों के जीवनों में घुस आई गलतियों को सुधारने के लिए। यहाँ पर वह परमेश्वर द्वारा अपनी सन्तानों को दी गई बातों से संबंधित विषयों को संबोधित कर रहा है, और उसका उद्देश्य है उन्हें सही कर के उन बातों के बारे में सिखाना जिस से कि उन्हें परमेश्वर के लिए ठीक से उपयोग किया जा सके। दूसरे शब्दों में, इस बात के साथ संबंधित हर बात में ‘परमेश्वर’ है; इसका तात्पर्य है कि उस से संबंधित शिक्षा और सुधार में भी परमेश्वर ही होना चाहिए; अर्थात, उन्हें किसी भी प्रकार की मानवीय चतुराई अथवा दक्षता एवं बुद्धिमता के द्वारा नहीं सुधारा जाना है, बल्कि जैसे परमेश्वर चाहता है, वैसे किए जाना है।

    पौलुस, उसके परिवर्तन तथा यीशु को अपना प्रभु स्वीकार करने से पहले बहुत पढ़ा-लिखा और ज्ञानवान फरीसी था। वह पवित्र शास्त्र को बहुत अच्छे से जानता था, और उसके विषय चर्चा करने तथा उस से शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षित था। इसलिए, ऐसा नहीं था कि वह पवित्र शास्त्र के बारे में अपनी बुद्धि और ज्ञान के द्वारा विश्वासियों को कुछ सिखा नहीं सकता था। लेकिन पौलुस को उदाहरण के समान उपयोग करने के द्वारा, परमेश्वर पवित्र आत्मा, उन सभी से जो परमेश्वर के वचन की सेवकाई में लगे हैं, यह कह रहा है कि सब कुछ, यहाँ तक कि बिल्कुल बुनियादी बातें भी, “मनुष्यों के ज्ञान की सिखाई हुई बातों में नहीं, परन्तु आत्मा की सिखाई हुई बातों में” होकर ही दी जानी चाहिएँ। अर्थात, वचन की सेवकाई करने वाले लोगों के द्वारा न केवल विषय और प्रचार की संबंधित सामग्री, वरन किन शब्दों के द्वारा उन्हें कहना है, वह भी उन ही शब्दों के द्वारा होना चाहिए जो पवित्र आत्मा देता है, न कि मनुष्यों की अपनी बुद्धि, विचारों, और समझ के अनुसार। यह करना अनिवार्य है, क्योंकि मनुष्य, यहाँ तक कि परमेश्वर को समर्पित विश्वासी भी, बाइबल के शब्दों को बाइबल के बाहर की रीति से उपयोग कर लेते हैं और इस प्रकार वे परमेश्वर के वचन में मिलावट कर के उसे व्यर्थ कर देते हैं (1 कुरिन्थियों 1:17)। इस से हमें परमेश्वर के वचन के बारे में पौलुस की सेवकाई के एक और पक्ष को समझने में भी सहायता मिलती है, जो वह 1 कुरिन्थियों 4:6 में कहता है, और जिस के बारे में हम पहले भी देख चुके हैं, कि पौलुस कभी भी जो पवित्र शास्त्र में लिख दिया गया है उस से आगे नहीं बढ़ता था, विचारों में भी नहीं (KJV, NKJV, YLT आदि अंग्रेजी अनुवाद देखिए)।

    तो अब, हम किस तरह से पहचान सकते हैं कि परमेश्वर के वचन का कोई प्रचारक अथवा शिक्षक, चाहे वह एक प्रतिबद्ध मसीही विश्वासी, एक भक्त जन ही है, कहीं वह वचन का प्रचार करने और शिक्षा देने में अपनी समझ, बुद्धि, और विचारों का तो उपयोग नहीं कर रहा है? क्या वह वास्तव में पवित्र आत्मा की अगुवाई में, उसे की सामर्थ्य से “आत्मा की सिखाई हुई बातों में” होकर ही बोल रहा है? यहीं पर आकर पिछले लेख में दोहराई गई बातें सही उत्तर तक पहुँचने में हमारी सहायता करती हैं। जैसा हमने पहले देखा है, परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है (यूहन्ना 14:17; 15:16; 16:13), इसलिए वह अपने कहे या किए में कभी भी किसी भी ऐसी बात के साथ नहीं जुड़ेगा जो सत्य नहीं है, अर्थात जो बाइबल के अनुसार सही नहीं है। असत्य का एक स्वरूप होता है बाइबल के शब्दों और वाक्यांशों को बाइबल के बाहर के अर्थों और अभिप्रायों के साथ उपयोग करना; अर्थात उन्हें ऐसी बातें कहने और ऐसे अर्थों के साथ उपयोग करना जो उनके विषय बाइबल में नहीं दी गई हैं। दूसरा, हमने देखा है कि पवित्र आत्मा के सिखाने का तरीका है प्रभु यीशु के द्वारा जो कहा गया है उसे स्मरण करवाना (यूहन्ना 14:26), अपनी ओर से कोई नई बात नहीं बोलना, लेकिन केवल उसे ही लेकर बताना जो प्रभु यीशु ने कह रखा है (यूहन्ना 16:13-15)। इसलिए ऐसा कोई भी प्रचार अथवा शिक्षा जो बाइबल का सत्य नहीं है, जो पहले से ही बाइबल में नहीं कहा गया है, वरन बाइबल के लेखों के साथ जोड़ा जा रहा है, ऐसी कोई भी बात जो पहले से लिखे से आगे बढ़ने में आती है, चाहे वह विचारों में ही क्यों न हो, वह पवित्र आत्मा की ओर से नहीं है। यह मसीही विश्वासियों के लिए प्रेरितों 17:11 और 1 थिस्सलुनीकियों 5:21, हर बात को पहले परमेश्वर के वचन से जाँच-परख कर देखना और केवल उसी को थामे रहना जो सही है, के कड़ाई से पालन के महत्व को दिखाता है।

    जो परमेश्वर के वचन की सेवकाई में लगे हैं, उन्हें इस का ध्यान रखना चाहिए कि वे “मनुष्यों के ज्ञान की सिखाई हुई बातों में नहीं, परन्तु आत्मा की सिखाई हुई बातों में” होकर ही प्रचार करें और सिखाएँ। और जैसा हम पहले देख चुके हैं, यह श्रोताओं, कम से कम कलीसिया के अगुवों, की ज़िम्मेदारी है कि इस से पहले कि प्रचार की गई बात को अपने जीवनों में लागू करने के लिए स्वीकार किया जाए, वे जाँचे और परखें कि प्रचारक के द्वारा इन सिद्धान्तों का पालन हो रहा है कि नहीं (1 कुरिन्थियों 14:29)। अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे, और इस पद 13 के तीसरे वाक्यांश के बारे में देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 23

 

    As promised by the Lord Jesus, God the Holy Spirit is given to reside in every Born-Again Christian Believer, from the moment of his salvation. He is given to be the Believer’s Helper, Companion, Teacher, and Guide; to help him live his Christian life and to also fulfil his God assigned ministry. As for the other provisions from God, every Believer must also be a worthy steward of God’s Holy Spirit too. To fulfil this responsibility, the Believer should learn about the things that God has given to him, including learning about God the Holy Spirit. As his Teacher, God the Holy Spirit teaches every Believer about all things, including Himself. He does this if the Believer is willing to learn from Him, instead of relying on learning from man and man’s works, which renders him prone to learning false teachings and wrong doctrines. In this current series we are learning about learning from the Holy Spirit, and have seen various aspects from 1 Peter 2:1-2, and Psalm 25. Presently, we are considering 1 Corinthians 2:12-14; and have seen from verse 12 that it is expected of Christian Believers to learn about the things that God has freely given to them, as part of their basic learning. We are on verse 13 now, have considered its first phrase, where Paul says that he and his co-workers teach about these things to the Believers. Before proceeding further, in the previous article we have revised some very important Biblical facts about the Bible, God the Holy Spirit, and learning God’s Word from Him. This was necessary to be able to understand the second phrase of verse 13, which we will consider today.

    As we have seen while considering the first phrase of verse 13, Paul says that he and his co-workers teach about the things that God has freely given to all Believers. In the second phrase of this verse, Paul adds a very important aspect of this teaching, that he and others with him practice in their ministries. Paul says in the second phrase of this verse that he speaks “not in words which man's wisdom teaches but which the Holy Spirit teaches.” Remember that Paul since his conversion belonged to God, worked for God, served God through fulfilling his God assigned responsibilities. Here, he is writing this letter under the guidance of God the Holy Spirit to help the Believers, the children of God, to correct the errors that have crept into their Christian lives. Here he is addressing issues related to things given by God to His children, and he is to correct them bring them around to learning about those things and utilizing them for God. In other words, everything related to this matter has ‘God’ in it; which implies that even in the teachings and corrections, God must be there; i.e., it must not be done through any human ingenuity and wisdom, but only as God wants it done.

    Paul was a very well educated and learned Pharisee before his conversion and accepting Jesus as Lord. He was very well versed in the Scriptures, and was well trained in discussing about them, teaching from them. So, it was not that he could not have used his intellect and knowledge of the Scriptures to teach the Believers about things from God’s Word. But by using Paul as an example, God the Holy Spirit is putting across to all those who are engaged in the ministry of God’s Word, that everything, even the basic teachings, must be given “not in words which man's wisdom teaches but which the Holy Spirit teaches.” Notice that it says here “in words” i.e., not only the matter, the contents of the teachings, but even the words to be used for imparting those teachings must be those which the Holy Spirit gives, and not from the thoughts, understanding, and wisdom of men. It is essential to do this, since men, even the committed Believers of God, are prone to using Biblical words in unBiblical ways, as we have seen earlier, and thereby corrupt God’s Word, render it ineffective (1 Corinthians 1:17). This also helps us to understand better another aspect of Paul’s ministry of utilizing God’s Word, mentioned in 1 Corinthians 4:6, and one we have considered earlier, that Paul never went beyond what has already been written in the Scriptures, not even in his thinking.

    So, how do we recognize whether or not a preacher or teacher of God’s Word, even though he is a committed Believer, a godly person, is using his own thoughts, understanding, and wisdom to preach and teach things, or is he actually doing this through under the guidance and ability given by the Holy Spirit, through words “which the Holy Spirit teaches”? This is where the revision of the previous article helps us reach the answer. As we have seen earlier, God the Holy Spirit is the Spirit of Truth (John 14:17; 15:26; 16:13) therefore there will never be anything that is not the truth, i.e., that is not Biblically true, in all that He says and does. One form of “non-truth” is using Biblical words and phrases with extra-Biblical meanings and uses; i.e., using them in a manner and to convey meanings and things not mentioned in the Bible for them. Secondly, we have seen that the way the Holy Spirit teaches is by reminding about what the Lord has said (John 14:26), and not speaking anything new on His own authority, but taking and declaring what the Lord has said (John 16:13-15). Therefore, any preaching or teaching that is not the Biblical truth, anything that is not already mentioned in the Bible, but is being added to the Biblical text, anything that is going beyond what has already been written, even if it is only in thinking, is not from the Holy Spirit. This underscores for the Believers the absolute necessity of adhering to Acts 17:11 and 1 Thessalonians 5:21, of cross-checking everything from God’s Word and holding on to only that which is true and rejecting the rest.

    Those engaged in the ministry of God’s Word must make it a point to preach and teach “not in words which man's wisdom teaches but which the Holy Spirit teaches.” And, as seen earlier, it is the responsibility of the audience, at least the Church elders amongst the audience, to see that these principles are being followed (1 Corinthians 14:29) by the speaker, before permitting the congregation to accept that which has been preached and taught for application in their lives. In the next article, we will carry on to consider about the third phrase of verse 13.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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