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विश्वासियों को अनुशासन चाहिए – 2
पिछले लेख से हमने कलीसिया में अनुशासन लागू करने विषय पर विचार करना आरंभ किया है, और देखा है कि सभी विश्वासी, चाहे उनकी शारीरिक अथवा आत्मिक आयु कुछ भी हो, वे परमेश्वर के वचन में कितने भी दृढ़ और स्थापित क्यों न हों, कलीसिया में उनकी प्रतिष्ठा और स्तर जो भी हो, फिर भी सभी चूक कर सकने वाले मनुष्य मात्र हैं, सभी गलतियाँ करते हैं, और इसलिए सभी को सुधारे जाने और अनुशासन के अंतर्गत लाए जाने की आवश्यकता रहती है। कोई भी मसीही जीवन के इस आधारभूत तथ्य के ऊपर अथवा उस से परे नहीं है। यशायाह भविष्यद्वक्ता भी, यद्यपि वह परमेश्वर के नबी के रूप में कार्य कर रहा था, जब वह परमेश्वर और उसकी पवित्रता की उपस्थिति में लाया गया, उसे तुरंत एहसास हो गया कि वह कितना अशुद्ध और निकृष्ट है, वास्तव में परमेश्वर की उपस्थिति में होने के कितना अयोग्य है (यशायाह 6:1-10); प्रेरित पौलुस ने, वर्तमान काल में न कि भूतकाल में, पाप के साथ बने रहने वाले अपने संघर्ष के लिए व्यथा व्यक्त की (रोमियों 7:15-24); प्रेरित यूहन्ना ने “हम” के उपयोग के द्वारा यह दिखाया कि वह भी उनमें सम्मिलित है जो पाप करते रहते हैं और जिन्हें, जब भी वे पाप करें, पश्चाताप के साथ परमेश्वर के सम्मुख आना पड़ता है (1 यूहन्ना 1:8-10)। इसलिए, प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को, जिस कलीसिया और अपनी जिन सन्तानों की सहभागिता में परमेश्वर ने उसे रखा है, वहाँ पर परमेश्वर का भण्डारी होने के नाते, उसमें निवास करने वाले परमेश्वर पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन में, किसी मनुष्य को नहीं बल्कि केवल प्रभु यीशु मसीह ही को अपना आदर्श बनाकर उसका अनुसरण तथा उसके वचन का पालन करना चाहिए। ऐसा करने से वह परमेश्वर का भण्डारी होने की अपनी जिम्मेदारियों पूरी करने पाएगा, और कलीसिया की बढ़ोतरी तथा विश्वासियों की आत्मिक उन्नति में योगदान करने पाएगा। पिछले लेख में हमने विश्वासी के जीवन में अनुशासन की आवश्यकता के बारे में तथा उसे कैसे लागू किया जाना है, इसे बाइबल के उदाहरणों से देखा था। वहीं से और आगे बढ़ते हुए, आज हम इसी विषय पर कुछ और बाइबल के तथ्यों तथा शिक्षाओं को देखेंगे।
परमेश्वर जानता है कि प्रत्येक विश्वासी गलती कर सकता है और गलती करने की उसकी प्रवृत्ति रहती है। परमेश्वर विश्वासियों के प्रति धैर्य रखता है, और ऐसी परिस्थितियों में पड़ने के बाद उन में से बाहर निकालने में, उन्हें आगे बढ़ने और परिपक्व होने में उनकी सहायता करता है (भजन 37:23-24; नीतिवचन 24:16)। इसलिए, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जिस ने कोई गलती की है, वह अविश्वासी था या हो गया है, या परमेश्वर ने उसका तिरस्कार कर दिया है, या अब वह परमेश्वर के लिए उपयोगी नहीं हो सकता है, परमेश्वर की ओर से नहीं बोल सकता है, आदि; ऐसे सभी तर्क झूठे हैं, बाइबल के अनुसार सही नहीं हैं। उदाहरण के लिए दाऊद, और ऊरिय्याह एवं बतशेबा के साथ किए गए उसके पाप के बारे में विचार कीजिए। उस पाप के बावजूद, नए नियम में दाऊद का 54 बार नाम लेकर उल्लेख किया गया है और उसे नए नियम में भी परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति कहा गया है (प्रेरितों 13:22)। उसके जीवन की इस घृणित घटना के बाद भी उसने भजन लिखे जिन्हें परमेश्वर के पवित्र वचन में अनन्तकाल के लिए स्थान दिया गया है।
इसी प्रकार से, कुरिन्थुस की मण्डली या कलीसिया के बारे में विचार कीजिए, उनकी आत्मिकता की दुर्बल स्थिति और मसीही गवाही की दुर्दशा के बावजूद, पौलुस में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने उन्हें फिर भी “परमेश्वर की कलीसिया” कह कर संबोधित किया है (1 कुरिन्थियों 1:1-2)। यद्यपि उस कलीसिया के विश्वासियों को शारीरिक और बालकों के समान अपरिपक्व कहा गया है (1 कुरिन्थियों 3:1-4), किन्तु साथ ही 1 कुरिन्थियों 1:2 में उन्हें “पवित्र” भी कहा गया है। और ध्यान कीजिए कि उन्हें लिखी दोनों पत्रियों में से किसी में भी उन्हें कभी ‘अविश्वासी’ या परमेश्वर द्वारा तिरस्कृत नहीं कहा गया है, और न ही यह कहा गया है कि भविष्य में कभी उनका तिरस्कार कर दिया जाएगा। उनकी दुर्बल आत्मिक दशा और बुरे मसीही जीवन जीने के कारण परमेश्वर ने उन से न तो अपना वचन वापस लिया, न उन्हें और वचन देने से मना किया, न ही उन से उन्हें दिए गए पवित्र आत्मा के वरदान वापस लिए, और न ही उन लोगों का उपयोग करना बँद किया; बल्कि, पौलुस लिखता है कि परमेश्वर ने उन्हें और भी ‘धनी’ किया, उन में होकर मसीह की गवाही को और भी दृढ़ किया (1 कुरिन्थियों 1:5-8)। पौलुस उनकी आलोचना करता है, उन्हें उनकी अनेक और घोर कमियाँ दिखाता है, यहाँ तक कि प्रभु की मेज से सम्बन्धित गलतियाँ भी, जिनसे परमेश्वर की तीव्र ताड़ना उन पर पड़ी थी (1 कुरिन्थियों 11:30); पौलुस उन्हें सुधारता है, उन्हें डाँटता है, इतनी कठोरता से डाँटता है कि कुरिन्थुस के विश्वासियों को यह अच्छा नहीं लगा (2 कुरिन्थियों 7:8), लेकिन उन्हें कभी ‘अविश्वासी’ या ‘भक्तिहीन’ नहीं कहता है।
यह बात, अर्थात, एक परिपक्व या वरिष्ठ विश्वासी के द्वारा दूसरों को उनकी गलतियाँ दिखाए जाने का यह अर्थ कदापि नहीं है, और न ही कभी ऐसा समझा जाना चाहिए, कि उसका उद्देश्य उस गलती करने वाले विश्वासी को नीचा दिखाना है या वह उस विश्वासी का विरोधी है, उसका उपहास करना चाहता है। और न ही यह गलती करने वाले विश्वासी की कलीसिया में सेवकाई, स्तर, कार्यों, और योगदान का इनकार करना अथवा अवहेलना करना है। बल्कि, सुधारे जाने के इस कार्य को उस विश्वासी के प्रति प्रेम और उसकी भलाई तथा आत्मिक उन्नति की इच्छा के रूप में देखा जाना चाहिए; उसे भजन 141:5 और गलतियों 4:16 के भाव में ग्रहण करना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि गलतियाँ न बताना, और विश्वासी को उन्हीं गलतियों में बने रहने देना, यह उसके प्रति गैर-ज़िम्मेदार होना है। यह, अर्थात उसे उसकी गलतियों में बने रहने देना, वास्तव में उसकी आत्मिक बढ़ोतरी और उन्नति में बाधा डालने के समान है, उसे बिना चिताए ही उसकी अनन्तकालीन आत्मिक आशीषों की स्वयं ही हानि करते रहने देना है।
इसी प्रकार से, यद्यपि हमें अपने अगुवों से सीखना है, उनका आदर करना है, लेकिन फिर भी हमें सचेत भी रहना है कि हम उनकी नकल और उनकी गलतियों का अनुसरण न करने लग जाएँ, जो वे, चाहे अनजान में ही, किन्तु कर रहे हों। हर हाल में, वह चाहे मण्डली का सदस्य हो, या अगुवा हो, अथवा वचन का कोई प्रचारक और शिक्षक, हर किसी को अन्ततः प्रभु के सामने खड़े होकर अपना ही हिसाब देना होगा (2 कुरिन्थियों 5:10), न कि किसी अन्य का; और तब, न तो कोई भी जन किसी अन्य के लिए कोई सिफारिश करने पाएगा, और न ही किसी अन्य के प्रतिफलों के दिए जाने के लिए प्रभु पर कोई भी, कैसा भी प्रभाव डालने पाएगा। तो फिर बजाए प्रभु का अनुसरण और उसके वचन का पालन करने के, किसी मनुष्य को प्रसन्न रखने के प्रयास क्यों करना, या मनुष्य पर और उसकी बातों पर अँध-विश्वास क्यों रखना? क्या किसी मनुष्य का अनुसरण करने से कोई लाभ होगा, यदि कुछ हुआ भी? इसके विपरीत, मनुष्यों का अनुसरण करने, उनकी बातों का पालन करने से, मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई किसी-न-किसी गलती में हमारे गिरने की संभावना बढ़ जाती है। हमारी वफादारी हमेशा ही प्रभु और उसके वचन के प्रति होनी चाहिए, न कि किसी भी मनुष्य के; क्योंकि शैतान कभी भी किसी भी मनुष्य को बहका और भटका सकता है, और फिर वह मनुष्य उसी तरह से औरों को बहका और भटका सकता है। जैसा कि इन लेखों में अनेकों बार कहा गया है, यह प्रत्येक विश्वासी की ज़िम्मेदारी है कि जो भी प्रचार किया और सिखाया जा रहा है, चाहे वह प्रचार करने और सिखाने वाला कोई भी क्यों न हो, उसकी बातों को स्वीकार करने और पालन करने से पहले उन्हें वचन से जाँच-परख लेना चाहिए (प्रेरितों 17:11; 1 कुरिन्थियों 14:29; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21), और पुष्टि कर लेने के बाद ही उनका पालन करना चाहिए। इसलिए, किसी अगुवे की शिक्षा अथवा राय से सहमत नहीं होना या उसकी बात, उसके प्रचार और शिक्षाओं की आलोचना करना, उसकी बातों को सुधारना, उसका विरोधी होने या उसके प्रति अनादरपूर्ण होने का चिह्न नहीं है। वरन, यह परमेश्वर और उसके वचन के आज्ञाकारी होने, तथा किसी के भी द्वारा बहकाए और भटकाए जाने के प्रति सचेत होने, हानि में पड़ने से बचने के इच्छुक होने का चिह्न है। इसे भी भजन 141:5 और गलतियों 4:16 के भाव में ग्रहण करना चाहिए।
अगले लेख में हम कलीसिया तथा विश्वासियों में अनुशासन को लागू करने के बारे में और देखना ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Believer’s Need Discipline – 2
In the previous article we have started on the topic of implementing discipline in the Church, and have begun to see that all Christian Believers, irrespective of their physical or spiritual age, their being established in God’s Word, their status and position in the Church, everyone is a fallible person, does make some mistake or the other, and therefore does need correction and being disciplined. No one is over and above this basic fact of Christian living. Even the prophet Isaiah, although already serving as God’s prophet, when he was brought into the presence of God and His Holiness, immediately realized how vile and deplorable, how unworthy of being in the presence of the Lord he actually was (Isaiah 6:1-7); the Apostle Paul laments his struggle with sin, not in the past tense, but in the present tense (Romans 7:15-24); the Apostle John, through the use of “we,” includes himself amongst those who continue to sin and need to come before God in repentance whenever they sin (1 John 1:8-10). Therefore, every Born-Again Christian Believer, being God’s steward of the Church where God has placed him in fellowship with His other children, with the help and guidance of God’s Holy Spirit residing in him, must, instead of any man or man’s teachings, make only the Lord Jesus and His Word his role-model to follow and obey. By doing this, he will be able to fulfill his responsibilities as God’s steward, to help in the growth of the Church and the Believers in their spiritual lives. In the previous article we have seen some things about the necessity of discipline in a Believer’s life, and Biblical examples of how it is to be carried out. Carrying on from there, let us consider some further Biblical facts and teachings on this topic.
God knows that every Believer is prone to committing errors and has a tendency of doing wrongs. God is patient with the Believers, and helps them come out of it, helps them to grow and mature (Psalms 37:23-24; Proverbs 24:16). Therefore, it does not mean that the one who has committed some mistakes, is, or has become an unbeliever, or has been rejected by God, or cannot be God's spokesperson, or can no longer be used by God, etc.; all such contentions are false, are unBiblical. Take for example, David, for his sin with Bathsheba and Uriah; yet in the New Testament he has been quoted very often by name, 54 times, and is again called a man after God's own heart (Acts 13:22). David still wrote his Psalms after this sordid episode, which have been included in God’s Holy Word for eternity.
Similarly, also think of the Corinthian Church, despite its sorry state of spirituality and Christian witness, it was still addressed as the Church of God by the Holy Spirit through Paul (1 Corinthians 1:1-2). Although the Believers of that Church were called carnal and immature (1 Corinthians 3:1-4), but in 1 Corinthians 1:2 they were also called “saints.” And note that nowhere in the two letters written to them, were they ever called ‘unbelievers’ or those who had been rejected by God, or, will be rejected by God. Their poor spiritual status and Christian living did not mean that God had taken back or denied them His Word and the spiritual gifts of the Holy Spirit, or was not using them; rather, Paul says that God had enriched them and gave them spiritual gifts, confirmed the testimony of the Lord Jesus through them (1 Corinthians 1:5-8). Paul criticizes them, points out their multiple and even gross shortcomings, even problems related to the Lord's Table that invited severe retribution from God (1 Corinthians 11:30); though Paul corrects them, even rebukes them severely, so-much-so that the Corinthian Believers did not like it (2 Corinthians 7:8), but he never calls them ‘unbelievers’ or ‘ungodly’.
This pointing out of one’s errors by a spiritually mature or senior Believer neither means, nor should it be seen as, or taken as insulting or belittling that errant Believer; or, that the one correcting him is opposed to him, wants to ridicule him. Nor is it denying the errant Believer’s service, standing, work, and contribution in the Church of God. Instead, this corrective action should be taken as an act of love and of concern for the well-being and spiritual growth of the Believer, it should be taken in the spirit of Psalm 141:5 and Galatians 4:16. Rather, by not pointing out the errors, and thereby allowing the errant Believer to continue in his wrongs, is actually being an irresponsible steward towards him. It is tantamount to preventing him from growing and maturing spiritually by letting him persist in his faults, and letting him harm his own eternal blessings.
In the same manner, while we are to learn from our Elders and honor them, yet we should be careful not to keep copying them and emulating the errors that the Elders might be making, even inadvertently. In any case, every person, whether a member of the Church or an Elder, or a preacher and teacher of God’s Word, everyone will be standing before the Lord to give an account of himself (2 Corinthians 5:10), not of anyone else; and then, nor will any person be able to make any recommendations for anyone else, nor will he be able influence the Lord in any manner about the rewards someone else should receive. So why go after pleasing or blindly following any person instead of following our Lord and His Word? How does following any man benefits us, if at all? On the contrary, following any man or their words only makes us more prone to falling into some man-made error or the other. Our allegiance must be with the Lord God and His Word, and not with any man, since man can always be misled by Satan as well as mislead others. As has been pointed out on numerous occasions in these articles, it is every Believer’s responsibility to always first cross-check from God’s Word everything that is being preached and taught, no matter who is preaching or teaching it; and only accept and follow whatever is preached and taught after confirming it through this verification (Acts 17:11; 1 Corinthians 14:29; 1 Thessalonians 5:21). So, having differences of opinions and criticizing or correcting an Elder and his preaching or teachings, does not mean being opposed to him or being disrespectful towards him. Rather, it shows being obedient to God and His Word, and cautious about being misled by anyone and get harmed. It should also be taken in the spirit of Psalm 141:5 and Galatians 4:16.
In the next article, we will continue with learning about implementing discipline in the Church and amongst Believers.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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