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हमेशा ईमानदार और प्रभु के प्रति समर्पित
पिछले लेख में हमने आशीषित और सफल जीवन जीने के लिए सुलैमान को दाऊद द्वारा दिए गए तीसरे निर्देश पर विचार करके, जो आज हमारे लिए भी उसे तरह से लागू है, उस निर्देश का समापन किया था। हमने देखा था कि धार्मिक अगुवे हमें जो कुछ भी करने के लिए कहते या सिखाते हैं, केवल बिना विचारे उसका पालन कर लेना भर ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि कई बार वे कलीसिया या मण्डली की बढ़ोतरी और विश्वासियों की आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक परमेश्वर के खरे और वास्तविक वचन के स्थान पर, मनुष्यों के द्वारा बनाए गए सिद्धांतों, बातों, रीतियों को बता और सिखा रहे हो सकते हैं। इस बात पर भण्डारी होने से संबंधित कई लेखों में बहुत बार बल दिया गया है, इसे समझाया गया है, विशेषकर परमेश्वर के वचन के भण्डारी होने से संबंधित लेखों में। उन लेखों में प्रेरितों 17:11 और 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 को भी कई बार बताया गया है, यह दिखाने के लिए कि यह परमेश्वर के वचन की शिक्षा है कि बिना पहले परमेश्वर के वचन से उस बात की पुष्टि करे, किसी भी शिक्षा को ग्रहण नहीं करें; चाहे उसका प्रचार करने और शिक्षा देने वाला कोई भी क्यों न हो, और उसका नाम, ख्याति, और ओहदा कुछ भी क्यों न हो, क्योंकि प्रत्येक प्रचारक अन्ततः मनुष्य ही है, और शैतान के द्वारा बहकाया और भरमाया जा सकता है। साथ ही 1 कुरिन्थियों 14:29 कलीसिया या मण्डली के लोगों को यह निर्देश भी देता है कि परमेश्वर के वचन से प्रचार करने और सीखने वाले प्रत्येक जन और उसके संदेश को जाँचें और परखें; यह उनका दायित्व है। यदि कलीसियाएँ और मण्डलियाँ इन निर्देशों का पालन करने लगें, तो वे अनेकों गलत शिक्षाओं और झूठे सिद्धांतों से बची रह सकती हैं, और शैतान को कलीसिया में अपने झूठ और धोखे घुसना बहुत कठिन हो जाएगा।
आज हम 1 राजाओं 2:2-4 में सुलैमान को दिए गए दाऊद के चौथे निर्देश पर विचार करेंगे; यह चौथा निर्देश है, “सावधान रह, और हमेशा प्रभु के प्रति समर्पित बना रहे (1 राजाओं 2:4b)।” एक बार फिर, क्योंकि हम भण्डारीपन के संदर्भ में बातों का विस्तृत अध्ययन कर चुके हैं, इसलिए हमें फिर से विस्तार से उन्हीं बातों में जाने की आवश्यकता नहीं है, वरन इस अंतिम लेख में केवल उन बातों के सहारे से बात को रख सकते हैं।
इस चौथे निर्देश का आधार परमेश्वर का सर्वज्ञानी होने का गुण है। ऐसा कुछ नहीं है, बिल्कुल कुछ भी नहीं, जिसके बारे में परमेश्वर पहले से ही जानता न हो; और हम मनुष्यों की कल्पनाओं से कहीं बढ़कर न जानता हो। इससे पहले भी, मंदिर बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपते समय, दाऊद ने सुलैमान को निर्देश दिया था, “और हे मेरे पुत्र सुलैमान! तू अपने पिता के परमेश्वर का ज्ञान रख, और खरे मन और प्रसन्न जीव से उसकी सेवा करता रह; क्योंकि यहोवा मन को जांचता और विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है उसे समझता है। यदि तू उसकी खोज में रहे, तो वह तुझ को मिलेगा; परन्तु यदि तू उसको त्याग दे तो वह सदा के लिये तुझ को छोड़ देगा” (1 इतिहास 28:9)। दूसरे शब्दों में, यद्यपि परमेश्वर सब कुछ के बारे में सब कुछ जानता है, यहाँ तक कि विचारों के उद्देश्यों को भी समझता है, फिर भी वह मनों को जाँचता है। प्रभु परमेश्वर यह इसलिए करता है जिससे मनुष्यों को परमेश्वर के प्रति खराई से रहने के लिए प्रेरित करे। ऐसा कोई तरीका है ही नहीं कि कोई भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा दे सके या किसी रीति से चतुराई दिखाकर उसका मूर्ख बना सके। इसलिए यदि सभी जन, विशेषकर परमेश्वर के लोग, हमेशा ही इस एहसास के साथ, कि परमेश्वर हमेशा सब कुछ जानता है, उससे कुछ छुपा नहीं है, जीवन जीएँ, और कार्य करें, और परमेश्वर की सेवकाई करें, तो उनके लिए जीवन कितना अधिक आशीषित और सफल हो जाएगा।
परमेश्वर के वचन में ऐसे लोगों के कुछ उदाहरण विद्यमान हैं जिन्होंने परमेश्वर का मूर्ख बनाने का प्रयास किया और उन्हें इसके बहुत गंभीर परिणाम झेलने पड़े; और उनके भी उदाहरण हैं जिन्होंने निःसंकोच अपने पाप और गलतियों को मान लिया, उनके लिए पश्चाताप किया, और आशीषित एवं महिमित हुए। ऐसे कुछ उदाहरणों को दोनों नए और पुराने नियम से देखते हैं:
· जैसा कि हम 1 शमूएल 15 अध्याय से पहले देख चुके हैं, इस्राएल के पहले राजा शाऊल ने परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की, मनुष्यों के डर में आकर अमालेकियों के अच्छे पशुओं को बचाए रखा, बजाए परमेश्वर की आज्ञानुसार उन्हें मार डालने के। जब शमूएल ने इस अनाज्ञाकारिता के लिए उसका सामना किया, तो उसने बच निकलने के लिए बहाना बनाया कि वे पशु परमेश्वर को बलिदान चढ़ाने के लिए बचाए गए थे – अपनी अनाज्ञाकारिता के ऊपर एक झूठ और लाद लिया; और परमेश्वर ने उसके राजा होने का तिरस्कार कर दिया, उसे राज्य से हाथ धोना पड़ा।
· यद्यपि दाऊद ने व्यभिचार और हत्या के घोर पाप किए थे, लेकिन जन नातान नबी ने परमेश्वर के निर्देश पर इनके लिए उसका सामना किया, तो दाऊद ने निःसंकोच अपने पापों को मान लिया, उनके लिए पश्चाताप किया (2 शमूएल 12:13-14)। यद्यपि दाऊद को ताड़ना सहनी पड़ी, लेकिन वह आशीषित भी हुआ; और नए नियम में भी उसे परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति ही कहा गया है (प्रेरितों 13:22)।
· पतरस ने, अपने सभी जोर देकर किए गए दावों के बावजूद, प्रभु का तीन बार इनकार किया; किन्तु फिर पश्चाताप भी किया (मत्ती 26:69-75)। अपने पुनरुत्थान के बाद, प्रभु ने पतरस को उसकी सेवकाई में बहाल कर दिया और उसे अपने अनुयायियों की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी सौंपी (यूहन्ना 21:15-19)।
· हन्नायाह और सफ़ीरा ने, अपने द्वारा किए गए वायदे के संबंध में, लालच में आकर झूठ बोला और विश्वासियों का, प्रेरितों का, और परमेश्वर का भी मूर्ख बनाने का प्रयास किया। उन्हें अवसर प्रदान किया गया कि वे अपने पाप को मान लें, लेकिन उन्होंने नहीं माना, बल्कि अपने झूठ में बने ही रहे, झूठ बोलते ही रहे; और इसकी कीमत अपने प्राणों से चुकानी पड़ी (प्रेरितों 5:1-11)।
परमेश्वर की सेवकाई और सहभागिता में धोखा देने और बच निकालने का कतई कोई स्थान, कोई संभावना नहीं है; वरन, जैसा कि नीतिवचन 28:13 में लिखा है, जो अपने पापों को धोखा देने के द्वारा छुपाने का प्रयास करते हैं, वे अपनी उस से और भी अधिक हानि कर बैठते हैं जो पाप मान लेने से उनकी होती। इसीलिए दाऊद ने सुलैमान को यह निर्देश दिया, जो आज हमारे लिए भी है कि - अपने सम्पूर्ण हृदय और सम्पूर्ण प्राण से सच्चाई के साथ नित परमेश्वर के सम्मुख चलते रहें (1 राजाओं 2:4b)। ईमानदारी हमेशा ही सबसे अधिक उत्तम विकल्प रही है और हमेशा सबसे अधिक उत्तम विकल्प बनी रहेगी। यदि हम से पाप हो भी जाए, तो भी हमारे पास एक आश्वासन है, कि यदि हम अपने पापों को मान लें तो हम बहाल कर दिए जाएँगे (1 यूहन्ना 1:9)। किन्तु जो अपने पापों को छुपाने और परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास करते हैं, उन्हें नीतिवचन 28:13 पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
यह खण्ड, 1 राजाओं 2:2-4, इन निर्देशों का पालन करने से होने वाले लाभ के बारे में भी बताता है: सब बातों में सुख-समृद्धि (1 राजाओं 2:3c), और भावी पीढ़ियों तक परमेश्वर की आशीषों का बना रहना (1 राजाओं 2:4c)। इसीलिए, इस व्याख्यात्मक श्रृंखला का शीर्षक “आशीषित एवं सफल जीवन” रखा गया है, क्योंकि इन निर्देशों को समझने और पालन करने का यही परिणाम है।
हम इस श्रृंखला का समापन परमेश्वर के वचन के एक खण्ड के साथ करते हैं, जो सभी पाठकों के सामने विचार करने और निर्णय लेने के लिए बात को रखता है। यह खण्ड है: “मैं आज आकाश और पृथ्वी दोनों को तुम्हारे सामने इस बात की साक्षी बनाता हूं, कि मैं ने जीवन और मरण, आशीष और शाप को तुम्हारे आगे रखा है; इसलिये तू जीवन ही को अपना ले, कि तू और तेरा वंश दोनों जीवित रहें; इसलिये अपने परमेश्वर यहोवा से प्रेम करो, और उसकी बात मानों, और उस से लिपटे रहो; क्योंकि तेरा जीवन और दीर्घ जीवन यही है, और ऐसा करने से जिस देश को यहोवा ने इब्राहीम, इसहाक, और याकूब, तेरे पूर्वजों को देने की शपथ खाई थी उस देश में तू बसा रहेगा” (व्यवस्थाविवरण 30:19-20)।
अगले लेख से हम एक नई श्रृंखला आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Always Sincere & Committed to the Lord
In the last article we concluded David’s third instruction to Solomon for leading a blessed and successful life, which equally applies to us today. We saw that it is not enough to ‘obey’ and do according to whatever the religious leaders tell us to do, since very often they could be preaching and teaching man-made doctrines, practices, and rituals, instead of the actual Word of God, which they are supposed to be preaching and teaching to the Church or Assembly congregation for the growth of the Church and the edification of the Christian Believers. This aspect has been emphasized and explained many times in the various articles on stewardship; especially while considering the stewardship of God’s Word. In those articles Acts 17:11 and 1 Thessalonians 5:21 have been quoted repeatedly to emphasize that it is the teaching of God’s Word to not accept anything without first verifying it from God’s Word, no matter who is preaching or teaching, and whatever be the name, fame, and standing of the preacher, since every preacher is human and is prone to being beguiled and misled by Satan. Also 1 Corinthians 14:29 instructs the congregation to evaluate whatever anybody is preaching or teaching from God’s Word; it is their responsibility. If the Churches and congregations adhere to these instructions, the Church would be saved from so many false doctrines and wrong teachings, and Satan would have a hard time infiltrating the Church with his lies and deceptions.
Today we will consider the fourth of David’s instructions to Solomon as given in 1 Kings 2:2-4; this fourth instruction is, “To be careful, taking heed, to remain sincere and committed to the Lord always (1 Kings 2:4b).” Again, because of the detailed studies we have already done in the articles on stewardship, we need not go into the same details again, but only need to build up on that in this concluding article.
The basis of this fourth instruction is God’s characteristic of being omniscient. There is nothing, absolutely nothing, that God does not already know about; and knows about in far greater detail than we humans could ever imagine. David had instructed Solomon earlier, while handing over the charge to build the Temple to him, “As for you, my son Solomon, know the God of your father, and serve Him with a loyal heart and with a willing mind; for the Lord searches all hearts and understands all the intent of the thoughts. If you seek Him, He will be found by you; but if you forsake Him, He will cast you off forever” (1 Chronicles 28:9). In other words, although the Lord God knows everything about everything, even the intents of man’s thoughts, yet He searches the hearts. The Lord God does this to induce man to live in sincerity towards God. There is no way any man can ever outwit God or cleverly pull wool over His eyes. So, if everyone, especially God’s people always live, and work, and serve God with this realization that God always knows everything and nothing is ever hidden from Him, then life would be so much more blessed and successful for them.
God’s Word has various examples of people who tried to fool God and suffered very serious consequences, and of those who unhesitatingly accepted their sins and errors, repented of them, and came out blessed and glorified. Let us look at a few examples from both, the Old and the New Testaments:
· Israel’s first king, King Saul, as we have seen from 1 Samuel chapter 15, disobeyed God, and fearing men, saved the good animals of the Amalekites instead of killing them all, as God had instructed. When Samuel confronted him about the disobedience, he tried to wriggle out of the situation by making the excuse that the good animals were left alive to sacrifice to the Lord – a lie compounding his disobedience; and God rejected him from being king, he lost the kingdom.
· David, though he had committed the heinous sin of adultery and murder, but when was confronted for it by the prophet Nathan, under instructions from God, immediately and unhesitatingly accepted his sin and repented of it (2 Samuel 12:13-14). Though David was chastised, but he was also blessed; and even in the New Testament, he is still called a man after God’s own heart (Acts 13:22).
· Peter, despite his emphatic claims to the contrary, denied the Lord three times; but repented also (Matthew 26:69-75). After His resurrection, the Lord restored Peter to his ministry, giving him charge of looking after His followers (John 21:15-19).
· Ananias and Saphira, out of covetousness about the commitment they had made, lied and tried to fool the Believers, the Apostles, and God. They were given an opportunity to confess their sin but they did not confess, instead they lied and stuck to their falsehood; and had to pay for it with their lives (Acts 5:1-11).
In God’s service and fellowship, there is no room or possibility of getting away through deception; rather as it says in Proverbs 28:13, those who try to hide their sins by deceiving, end up suffering even worse than what they would have suffered by confessing and acknowledging their sins. Therefore, David’s instruction to Solomon, and even to us today - walk before God in truth with all your heart and with all your soul (1 Kings 2:4b). Honesty is, and always will be the best policy, and even if we sin, we have the assurance that if we confess our sins, we will be restored (1 John 1:9). But those who try to hide their sins and deceive God, need to ponder over Proverbs 28:13.
This passage, 1 Kings 2:2-4, also speaks of the benefits of following these instructions: Prosperity in all things (1 Kings 2:3c), and God’s blessings extending to posterity (1 Kings 2:4c). This is why this expository series on this passage has been titled “Blessed and Successful Life” since that is the net result of understanding and following these instructions.
We conclude this series with a passage from God’s Word, one that calls all readers to ponder over and come to a conclusion. The passage is: “I call heaven and earth as witnesses today against you, that I have set before you life and death, blessing and cursing; therefore choose life, that both you and your descendants may live; that you may love the Lord your God, that you may obey His voice, and that you may cling to Him, for He is your life and the length of your days; and that you may dwell in the land which the Lord swore to your fathers, to Abraham, Isaac, and Jacob, to give them.” (Deuteronomy 30:19-20).
We will begin on something different from the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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