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परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता – 2
पिछले लेख से हमने दाऊद द्वारा सुलैमान को, और आज सभी मसीहियों पर समान रीति से लागू, दिए गए तीसरे निर्देश – “जितनी बातें परमेश्वर के वचन में लिखी हैं, वह उनका आज्ञाकारी बना रहे (1 राजाओं 2:3b)” पर विचार करना आरंभ किया है। पिछले लेख में हमने देखा है कि परमेश्वर के वचन की अनाज्ञाकारिता के कारण ही पाप को सँसार तथा सृष्टि में प्रवेश करने का अवसर मिला, और परमेश्वर के वचन की अनाज्ञाकारिता हमेशा ही लोगों तथा परमेश्वर की सन्तानों के लिए गंभीर समस्याएं उत्पन्न करती रही है, उन पर परमेश्वर के दण्ड, क्रोध, और घोर ताड़ना को लाती रही है। परमेश्वर अपने अनाज्ञाकारी लोगों को, जो उसे छोड़ कर सँसार और उसके सुखों के पीछे हो लेते हैं, न तो कभी छोड़ देता है और न ही उनका तिरस्कार करता है; उसने इस्राएल को नहीं छोड़ा, इस्राएल ने जो प्रभु यीशु और उसके अनुयायियों के साथ किया, उसके बावजूद भी; परंतु न तो उसने उनकी अनाज्ञाकारिता को हल्के में लिया और न ही उसकी अनदेखी की। जो भी परमेश्वर के अनाज्ञाकारिता करता है, उसे इसका परिणाम भोगना होगा और कीमत चुकानी होगी; और यह उनकी अनन्तकाल की आशीषों और प्रतिफलों को भी नष्ट करता है – ऐसे बहुतेरे मसीही विश्वासी होंगे जो स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:13-15), और अनन्तकाल तक खाली हाथ ही रहेंगे; क्योंकि उन्होंने अपने मसीही जीवन वैसे व्यतीत नहीं किए जो परमेश्वर को प्रसन्न करे, उन पर उसकी आशीष लाए, और उन्हें अनन्तकालीन प्रतिफलों को प्रदान करे।
एक अन्य बात जिसे हमें समझना अनिवार्य है, वह है कि परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता का अर्थ होता है जो और जैसा परमेश्वर ने अपने वचन में लिखवाया है, उसी का पालन करना, उसी के अनुसार करना। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, और न ही किसी मनुष्य को अनुमति है, कि वह परमेश्वर के वचन में कोई परिवर्तन, कोई जोड़-तोड़ करे, और फिर उसे बदले हुए वचन को परमेश्वर के लोगों के समक्ष परमेश्वर का खरा वचन कह कर प्रस्तुत करे। प्रभु यीशु के सम्पूर्ण ‘पहाड़ी उपदेश’ में, अर्थात मत्ती रचित सुसमाचार के 5-7 अध्यायों में, हम देखते हैं कि प्रभु यीशु कई दफा, ‘तुमने सुना है,’ या, ‘तुम से कहा गया है,’ या इसी अभिप्राय का कोई वाक्यांश कहते हैं; और फिर, यह कहते हुए कि ‘लेकिन मैं तुम से कहता हूँ,’ वो उसका सुधारा हुआ स्वरूप बताते हैं; अर्थात जीवित वचन जिसने देहधारी होकर हमारे मध्य में डेरा किया (यूहन्ना 1:14), उन्हें सिखा रहा था कि वास्तविक निर्देश क्या था, बजाय उसके जो भ्रष्ट कर के उन्हें सिखाया गया और जिसका पालन करवाया जा रहा था। उस समय के धार्मिक अगुवों ने परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या करके उसका दुरुपयोग इस उद्देश्य से किया था कि वह उनके लिए सहज एवं लाभकारी हो। वे जन-सामान्य को इस भ्रष्ट किए हुए को परमेश्वर का वचन कहकर बताते और सीखते थे, और उसी का पालन करने के लिए कहते थे। मत्ती 15:1-9 में हम देखते हैं कि प्रभु यीशु शास्त्रियों और फरीसियों को फटकार लगाते हैं, उनके द्वारा अपनी ही रीतियाँ बनाकर और मनुष्यों की बनाई हुए आज्ञाओं को परमेश्वर का वचन कह कर सिखाने के लिए। उस समय लोग सामान्यतः अनपढ़ होते थे, और परमेश्वर के वचन की प्रतियां भी पढ़ने और सीखने के लिए सरलता से उपलब्ध नहीं थीं; इसीलिए लोग मजबूर थे कि धार्मिक अगुवों के द्वारा उन्हें जो भी बताया और सिखाया जाए, उसी को स्वीकार कर लें, और उसे का पालन करें।
आज भी लगभग यही स्थिति विद्यमान है, यद्यपि परमेश्वर का वचन अनेकों भाषाओं और विभिन्न स्वरूपों – लिखित और डिजिटल रूप में; साथ ही बाइबल के अध्ययन की सामग्री भी बहुतायत से और सरलता से उपलब्ध है। और प्रभु परमेश्वर ने अपना वचन सिखाने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को अपना पवित्र आत्मा भी प्रदान कर रखा है – जैसे हम वचन के भण्डारी होने से संबंधित लेखों में विस्तार से देख चुके हैं। किन्तु फिर भी अधिकाँश “मसीही” अपने धार्मिक अगुवों पर ही भरोसा करते हैं, उन्हीं की कही हुई को सुनते और मानते हैं, उनकी डिनॉमिनेशन या मत के अगुवे जो कहते और करवाते हैं उसी का पालन करते हैं। यह तथ्य कि विभिन्न डिनॉमिनेशनों और मतों के सिद्धांतों और रीतियों में परस्पर बहुत अन्तर पाए जाते हैं इस बात का प्रमाण है कि मनुष्यों के बनाए हुए ये नियम और रिवाज़, ये सिद्धान्त और रीतियाँ, परमेश्वर का वास्तविक वचन नहीं हैं। जैसा कि प्रभु यीशु की पृथ्वी के सेवकाई के दिनों में फरीसी, शास्त्री, और अन्य धार्मिक अगुवे कर रहे थे, आज ये डिनॉमिनेशनों और मतों के धार्मिक अगुवे भी परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या और दुरुपयोग कर रहे हैं, उसे अपने लिए सहज और लाभकारी बनाकर उस बदले हुए तथा भ्रष्ट किए हुए वचन को परमेश्वर का सच्चा और खरा वचन बताकर सिखा रहे हैं, जो कि वह कदापि नहीं है। इसीलिए, प्रभु यीशु ने जो उस समय फरीसियों से कहा था, वही आज भी वैसे ही इन लोगों पर भी लागू होता है – “और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश कर के सिखाते हैं” (मत्ती 15:9)। अर्थात, इन भ्रष्ट धारणाओं और रीतियों के अनुसार की जाने वाली समस्त आराधना और भक्ति “व्यर्थ आराधना” है, निष्फल और निरर्थक है। जो लोग यह करवाते और करते हैं उन्हें इससे कोई स्वर्गीय आशीष, कोई अनन्तकालीन लाभ नहीं मिलता है, वे चाहे कितनी ही ईमानदारी और श्रद्धा से इसका निर्वाह क्यों न करें।
मसीहियों के लिए परमेश्वर के निर्देश “निर्मल आत्मिक दूध” (1 पतरस 2:2) की लालसा रखने के हैं, न परमेश्वर के वचन के नाम पर बदला हुआ, भ्रष्ट किया हुआ, जो कुछ भी सिखाया और करवाया जाए उसी में बने रहने के। जैसा हमने मसीही विश्वासी के परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने से संबंधित लेखों में देखा है, कलीसियाओं की बढ़ोतरी और विश्वासियों की आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक बातों में परमेश्वर का परिशुद्ध, बिना भ्रष्ट किया गया वचन देना, सीखना, और पालन करना, एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। परिशुद्ध वचन से ही कलीसिया बढ़ती और विश्वासियों की आत्मिक उन्नति होती है, किसी अन्य से नहीं। परमेश्वर की आशीषें और प्रभु के साथ संगति केवल उसके खरे वचन के मानने वालों के साथ ही हैं (यूहन्ना 14:21, 23; यशायाह 40:31; 2 तीमुथियुस 3:15-17)।
अगले लेख में दाऊद के द्वारा सुलैमान को दिए गए चौथे निर्देश “सावधान रहे, और हमेशा प्रभु के प्रति समर्पित बना रहे (1 राजाओं 2:4b)” पर विचार करना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Obedience to God’s Word – 2
Since the last article, we have begun to consider the third instruction that David gave to Solomon, and is now applicable to all the Christians – “To be obedient to the Word of God, in all things written in it (1Ki 2:3b).” In the previous article we have seen that disobedience to God’s Word caused sin to enter into creation and the world, and disobedience to God’s Word has always caused serious problems for the people and children of God; even inviting God’s retribution, wrath, and severe chastisement upon them. God does not abandon or reject His disobedient people who leave Him and go follow the world and its pleasures; He has not rejected Israel, despite what Israel has done to the Lord Jesus and to those following Him; but neither does He condone their disobedience nor takes it lightly. Anyone who disobeys God, will have to suffer and pay a price for it; and this even eats away their eternal blessings and rewards – there will be many Christian Believers who will enter heaven empty handed (1 Corinthians 3:13-15), and remain so for eternity; because they failed to live their Christian lives in a manner that would please God, bring His blessings upon them, and cause them to receive eternal rewards.
Another thing we need to understand is that obeying God’s Word means obeying and doing according to what God has had written in His Word. It in no way means, or, permits man’s modifications and alterations of God’s Word, and then to be presented to God’s people as the pure word of God. Throughout the Sermon on the Mount, i.e., chapters 5-7 of Matthew’s Gospel, we find the Lord Jesus repeatedly teaching and saying phrases like, ‘you have heard,’ or ‘you were told,’ or implying the same; and then He presents His corrected version by stating ‘but I say to you;’ i.e., the Living Word who became flesh and dwelt amongst us (John 1:14) was teaching them what the actual instruction ought to be, instead of the corrupted one that they had been taught and asked to practice. The religious leaders of those times had misinterpreted and misapplied God’s Word to make it suit their convenience and be of benefit to them. They were teaching this corrupted word of God to the general public and asking them to obey it. In Matthew 15:1-9 the Lord Jesus castigates the Scribes and the Pharisees for creating their own traditions and teaching commandments of men as the word of God. At that time the people were generally illiterate and copies of God’s Word were not so easily available for reading and learning; and so, the people were constrained to learn, accept, and follow whatever the religious leaders taught them and asked them to do.
Much the same situation exists even today, although God’s word is freely available in many languages and forms – printed and digital; and so are Bible studies and teachings readily available. The Lord God has also given His Holy Spirit to each and every Christian Believer to teach them His Word, as we have seen in detail in the articles related to being a steward of God’s Word. But still, the vast majority of the “Christians” believe in and adhere to what their religious leaders, those of their denomination or sect preach and teach them. The very fact that there are major differences in the doctrines and practices of every denomination and sect is a proof that none of these man-made rules and regulations, these doctrines and practices, are actually the Word of God. Like what the Scribes and Pharisees and the other religious leaders were doing during the earthly ministry of the Lord, today’s denominational religious leaders have also manipulated and misinterpreted God’s Word to suit their convenience, and teach that modified and corrupted Word of God, as the “truth” which it most certainly is not. Therefore, what the Lord Jesus said to the Pharisees at that time, also equally applies today – “And in vain they worship Me, Teaching as doctrines the commandments of men” (Matthew 15:9) – all worship and reverence of God based on these denominational doctrines and practices is “vain worship,” i.e., it is inconsequential; it brings no blessings or rewards to those who indulge in it, no matter how piously and sincerely they may practice it.
God’s instructions to the Christian Believers are to desire the “pure milk of the word” (1 Peter 2:2), and not to accept and remain in the corrupted, adulterated thing preached and taught as ‘word of god.’ As we have seen in the articles on the Believer’s stewardship of the Church, and the factors contributing to the growth and edification of the Church and the Christian Believers, it is the pure, unadulterated, unmodified, unaltered Word of God that causes the Believers to be edified and the Church to grow, not anything else. The blessings and fellowship of the Lord is with those who obey His Word (John 14:21, 23; Isaiah 40:31; 2 Timothy 3:15-17).
In the next article we will begin considering David’s fourth instruction to Solomon, “To be careful, taking heed, to remain sincere and committed to the Lord always (1 Kings 2:4b).”
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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