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आरम्भिक विचार – 2
पिछले लेख से हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में से एक नई श्रृंखला – कलीसिया और मसीही जीवन में परमेश्वर के वचन के द्वारा बढ़ोतरी के बारे में सीखना आरंभ किया है। हमने पिछले लेख में देखा था कि प्रथम शताब्दी में मसीहियत की तीव्रता से होने वाली स्थापना और बढ़ोतरी का मुख्य कारण प्रेरितों तथा अन्य प्रभु के सेवकों के द्वारा वचन को उसकी शुद्धता में प्रचार करना और सिखाया जाना था। उस समय नए नियम की पुस्तकें और पत्रियाँ अभी लिखे जा रहे थे, प्रचार और शिक्षा मुख्यतः मौखिक होते थे, और शैतान के लोगों ने भी गलत सिद्धांतों और झूठी शिक्षाओं का प्रचार आरंभ कर दिया था।
बाइबल हमने बताती है कि कलीसिया की बढ़ोतरी का मुख्य कारण परमेश्वर का वचन है। परमेश्वर अपने वचन में होकर विश्वासियों से बात करता है, उनका मार्गदर्शन करता है। बाइबल में दिखाया गया नमूना है कि यदि मण्डली में परमेश्वर के वचन की सेवकाई सही है, तो कलीसिया की बढ़ोतरी और उन्नति भी होगी। जहाँ परमेश्वर का वचन पनपता है, वहाँ परमेश्वर के लोग भी पनपते हैं। यदि लोगों को परमेश्वर के वचन का उचित पोषण नहीं मिलेगा, वह चाहे उन लोगों की अपनी कमियों-कमजोरियों के कारण हो (1 कुरिन्थियों 3:1-13; इब्रानियों 5:12), या परमेश्वर के वचन के सेवकों में कोई कमियों-कमजोरियों के कारण हो, तो विश्वासियों की, तथा साथ ही कलीसिया की भी परिपक्वता और बढ़ोतरी की हानि होगी। इसे हम पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस में होकर तीमुथियुस को दी गई चेतावनी में देखते हैं (2 तीमुथियुस 2:14-17), जहाँ पौलुस तीमुथियुस को लिखता है कि परमेश्वर के वचन का सही उपयोग न करना लज्जा, अभक्ति, अशुद्ध बकवाद का कारण हो जाता है, ऐसे सन्देश सड़े-घाव के समान फैलते चले जाते हैं और सुनने वालों की हानि का कारण हो जाते हैं (साथ ही 1 तीमुथियुस 6:20 और तीतुस 3:9 भी देखिए)। इसके विपरीत, परमेश्वर के वचन का उपयोग उपदेश देने, समझाने, सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिए करने के द्वारा परमेश्वर के जन सिद्ध बनते हैं और हर एक भले काम के लिए तत्पर हो जाते हैं। इसीलिए पौलुस ने इफिसुस के मसीहियों से अपने विदाई संदेश में उन्हें बल देकर स्मरण कराया कि उसने उन्हें सब कुछ सिखाया और परमेश्वर की सम्पूर्ण मनसा उन्हें सिखाने से बिल्कुल नहीं झिझका (प्रेरितों 20:20-27)। झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धांतों के प्रचार और पालन के लिए शैतान और उसके दूत मुख्यतः तीन आधारभूत बातों को बिगाड़ कर, भ्रष्ट कर के सिखाते हैं – वे किसी दूसरे ही यीशु का प्रचार करते हैं, किसी भिन्न और ही आत्मा की बातें करते हैं जो प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए विश्वासियों को दिए गए पवित्र आत्मा की बातों से भिन्न होती हैं, या कोई अलग ही सुसमाचार सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3-4)।
इसलिए, परमेश्वर से बढ़ोतरी (कुलुस्सियों 2:9) का न मिलना, इस बात का संकेत है कि कलीसिया में परमेश्वर के वचन को लेने और देने में कोई गड़बड़ी है। जैसे कि मानव-शरीर में, वैसे ही कलीसिया में यह बढ़ोतरी और उन्नति सही वचन – परमेश्वर के वचन के पर्याप्त और नियमित पोषण के मिलते रहने से होती है। इसलिए यदि कलीसिया की उन्नति नहीं हो रही है, तो दूध-पीने वाले बच्चे की बढ़ोतरी न होने के समान, दूध में कोई कमी है, अर्थात उस कलीसिया में परमेश्वर के वचन की सेवकाई में कुछ कमी है। यह कमी दो तरह से हो सकती है, और उन दोनों में से कोई एक, अथवा दोनों ही कार्यकारी हो सकती हैं। वह “दूध,” अर्थात परमेश्वर का वचन, या तो मात्रा में कम हो सकता है, अथवा गुणवत्ता में कम हो सकता है, या ये दोनों ही बातें एक साथ होना भी संभव है। मुख्यतः, यह इस बात का सूचक है कि जिन्हें वचन की सेवकाई सौंपी गई है, या तो उनके जीवन में कोई समस्या है जिसके कारण वे परमेश्वर के साथ सही और उचित संपर्क रख कर उस से वचन को प्राप्त नहीं करने पा रहे हैं; या वे प्रभु के साथ पर्याप्त समय नहीं बिता रहे हैं कि उस से उसका वचन उन्हें मिल सके; या फिर वे अपने संदेशों को परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बातों की मिलावट के द्वारा बना रहे हैं, और ये मिलावट की बातें उनकी स्वयं की अथवा किसी अन्य मनुष्य की बातों से ली गई हो सकती हैं। यदि सेवक परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बातों से मिलावट कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा सिखाए गए, प्रचार किए गए, सुनाए गए संदेश चाहे कितने भी भक्तिपूर्ण, सुनने में अच्छे, और रोचक क्यों न हों, लेकिन उनमें इब्रानियों 4:12 को पूरा करने और लोगों में परिवर्तन लाने वाली परमेश्वर की सामर्थ्य कभी नहीं होगी; उन से कोई उन्नति अथवा बढ़ोतरी नहीं होगी।
हम अगले लेख में भी इन आरम्भिक बातों को देखना ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Preliminary Considerations – 2
Since the previous article we have begun learning a new series from God’s word, the Bible – about growth in the Church and Christian life through God’s Word. We had seen in the last article that the rapid growth and establishment of Christianity in the first century was predominantly due to God’s Word being preached and taught in its purity by the Apostles and ministers of the Lord, although the books and letters of the New Testament were still being written, the preaching and teaching was mainly in the oral form, and messengers of Satan had begun to preach and teach false doctrines and wrong teachings.
The Bible tells us that the primary means of Church growth is God's Word. God speaks to the Believers and guides them through His Word. The Biblical pattern is that if the ministry of God's Word is proper, then Church growth will happen. Where God's Word grows, God's people also grow. If the people do not receive the proper nourishment of the Word of God, whether due to the people’s own deficiencies (1 Corinthians 3:1-3; Hebrews 5:12), or due to deficiencies in the ministers of God’s Word, then the spiritual growth and maturity of the Believers, as well as the Church will suffer. This is seen in Paul’s warning to Timothy through the Holy Spirit (2 Timothy 2:14-17), where Paul writes to Timothy that not rightly dividing the Word of God is like profanity, idle babblings, that promote ungodliness, and such messages spread like cancer, ruining the hearers (also see 1 Timothy 6:20; Titus 3:9). On the other hand, using God’s Word for teaching, reproof, correction, and instructions in righteousness causes the man of God to be complete and thoroughly equipped for every good work (2 Timothy 3:16-17). That is why Paul in his farewell address to the Ephesian Believers, emphatically reminded them that he made it a point to teach the whole counsel of God to them (Acts 20:20, 27). To preach and teach wrong doctrines and false teachings, Satan and his messengers corrupt and adulterate three basic doctrinal things – they preach about some other Jesus, they speak of things pertaining to a spirit different from the things of the Holy Spirit who has been given to every Born-Again Christian Believer, they teach a different gospel (2 Corinthians 11:3-4).
Therefore, the increase from God (Colossians 2:19) not coming would imply there is something wrong in the Church receiving and/or serving God's Word. This growth, as for the human body, happens through the Church receiving the proper, regular, and adequate nourishment of the Word - God's Word. So, if the Church is not growing, then taking an analogy from a milk-fed child's growth, there is a deficiency in the milk, i.e., the Word of God in that Church. This can be in two forms, and either one, or both may be the operative reason for this deficiency. The 'Milk,' i.e., God’s Word is either deficient in quantity, or it is deficient in quality, or in both. Primarily it indicates that those entrusted with the Word ministry either have some problem in their own lives, therefore are not able to connect with God and receive His Word from Him; or, they are not spending adequate time with the Lord to receive the Word from Him; or they are making up their messages by adulterating God’s Word with man's word - either their own, or borrowed from someone else. If the ministers are adulterating God’s Word with man’s words, then although what they say, preach, and teach may sound pious, nice, and interesting, but it will never have the power of God to fulfil Hebrews 4:12 and transform others.
We will continue to look at some more preliminary considerations in the next article as well.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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