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आरम्भिक बातें – 75
मरे हुओं का जी उठना – 10
विश्वासियों के लिए पुनरुत्थान के निहितार्थ – 2
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई पाँचवीं आरम्भिक बात, “मरे हुओं का जी उठना” पर ज़ारी हमारे अध्ययन में, पिछले लेख से हम ने 1 कुरिन्थियों 15, जो बाइबल का “पुनरुत्थान का अध्याय” है, में पुनरुत्थान के बारे में दी गई शिक्षाओं पर विचार करना आरम्भ किया है। हम ने देखा है कि प्रभु के पुनरुत्थान पर विश्वास करने, या, न करने के तात्पर्य क्या हैं। पौलुस पवित्र आत्मा में हो कर पद 19 में, मसीही विश्वासी के लिए उस का निष्कर्ष रखता है, “यदि हम केवल इसी जीवन में मसीह से आशा रखते हैं तो हम सब मनुष्यों से अधिक अभागे हैं” जो ऐसा अभिप्राय है जिस के निहितार्थ मसीही विश्वासियों के व्यवहारिक जीवन को प्रभावित करते हैं, अर्थात, प्रभु यीशु का पुनरुत्थान, केवल पार्थिव, शारीरिक, और नश्वर लाभ की आशा देने के लिए नहीं है। हम आज इसे थोड़ा विस्तार से देखेंगे।
पौलुस, पवित्र आत्मा में हो कर इस पद में कहता है कि प्रभु यीशु के पुनरुत्थान, और उस के परिणामस्वरूप मसीही विश्वासियों के निश्चित पुनरुत्थान के कारण, मसीही विश्वासियों का ध्यान सांसारिक से स्वर्गीय की और हो जाना चाहिए; केवल इस जीवन की बातों पर लगे रहने से हट कर उन के अनन्त जीवन पर लग जाना चाहिए। पौलुस ने यही बात कुलुस्से की मंडली को लिखी अपनी पत्री में भी दोहराई, “सो जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए, तो स्वर्गीय वस्तुओं की खोज में रहो, जहां मसीह वर्तमान है और परमेश्वर के दाहिनी ओर बैठा है। पृथ्वी पर की नहीं परन्तु स्वर्गीय वस्तुओं पर ध्यान लगाओ” (कुलुस्सियों 3:1-2)। पुनरुत्थान की, सुसमाचार की, सामर्थ्य केवल इसी जीवन के लिए और उस सामर्थ्य के द्वारा शारीरिक तथा नाशमान बातों को प्राप्त करने के लिए नहीं है। वे, जिनकी पुनरुत्थान और सुसमाचार से आशा केवल इस सँसार की बातों और लाभ तक ही सीमित है, पवित्र आत्मा ने उन्हें पौलुस में होकर सबसे अधिक अभागे कहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे नाशमान साँसारिक बातों के पीछे भाग रहे हैं, जो देर-सवेर, जब वे इस पृथ्वी से कूच करेंगे, सब यहीं पीछे छूट जाएंगी। और जब वे अनन्तकाल में प्रवेश करेंगे, तो वे खाली हाथ होंगे, संभवतः उद्धार पाए हुए भी नहीं होंगे, और तब फिर वे अनन्त विनाश में चले जाएँगे।
यही वह भ्रम जिस का उन लोगों को कोई एहसास नहीं है, वह विनाशकारी परिणाम है जिस पर उन लोगों ने कभी विचार नहीं किया है; उन्होंने जो प्रभु के पुनरुत्थान और उस में विश्वास करने के प्रचार और शिक्षा को केवल लोगों को यीशु के नाम में पार्थिव, शारीरिक, और नश्वर बातों को प्राप्त करवाने, जैसे कि शारीरिक चंगाइयाँ, साँसारिक समृद्धि, भौतिक लाभ, नौकरी लगना, विवाह होना, या किसी अन्य साँसारिक अथवा शारीरिक समस्या से छूट जाना आदि के लिए उपयोग करते हैं। किन्तु वे कभी सुसमाचार को, अर्थात, लोगों के पापी होने, प्रभु यीशु में विश्वास के द्वारा सेंत-मेंत पापों से छुटकारा मिलने, प्रत्येक व्यक्ति के अवश्यंभावी न्याय के होने, स्वर्ग या नरक में जाने आदि के बारे में कोई प्रचार नहीं करते हैं, कोई शिक्षा नहीं देते हैं, इस पर कोई ज़ोर नहीं देते हैं। जो लोग यीशु के नाम में साँसारिक और शारीरिक लाभ प्राप्त करने की तो बात करते हैं, किन्तु उद्धार के सुसमाचार को नहीं बताते हैं, जिन के विश्वास, प्रचार, शिक्षा, और व्यवहार का आधार ये शारीरिक, साँसारिक, भौतिक, और नश्वर बातें प्राप्त कर लेना है, वे वास्तव में शैतान के लिए काम कर रहे हैं और यीशु के नाम में लोगों को अनन्त विनाश में भेज रहे हैं। क्योंकि जो उन के प्रचार और शिक्षाओं के द्वारा प्रभु में ‘विश्वास’ केवल इस लिए कर लेते हैं कि इस से उन्हें ये शारीरिक और नश्वर वस्तुएँ मिल जाएंगी, वे “सब मनुष्यों से अधिक अभागे” बन जाते हैं। क्योंकि एक बार जब उन का, जिन्होंने प्रभु यीशु के पुनरुत्थान और प्रभु के नाम को लेने से केवल शारीरिक और नश्वर लाभ ही प्राप्त किया है, जीवन समाप्त हो जाता है, जैसा कि वह निश्चय ही कभी न कभी तो होगा, वे फिर अनन्त विनाश में चले जाएँगे। ऐसा इस लिए होगा क्योंकि उद्धार का सुसमाचार उन्हें कभी सुनाया और सिखाया ही नहीं गया; उन्हें कभी पापों से पश्चाताप करने और प्रभु को अपना जीवन समर्पित कर देने के बारे में प्रचार ही नहीं किया गया। उन्हें तो केवल यही प्रचार किया और सिखाया गया कि उन्हें अपनी शारीरिक समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए प्रभु पर ‘विश्वास’ या ‘भरोसा रखना’ है, और उन्होंने यही विश्वास किया, यही भरोसा रखा, इसी का पालन किया। प्रभु के पुनरुत्थान की सामर्थ्य का स्वाद चख लेने के बाद, उन के फिर भी विनाश में चले जाने के लिए कौन जवाबदेह होगा? प्रचारकों ने उन्हें शारीरिक चँगाई दे दी, और यह करने के लिए उन प्रचारकों का बहुत नाम, प्रशंसा, और प्रसिद्धि भी हो गई; परन्तु उन्होंने उन लोगों की आत्मिक चँगाई के लिए कुछ नहीं किया और उन्हें नरक में भेज दिया! केवल एक ही है जो यह कतई नहीं चाहता है कि लोगों को उन के पापों के बारे में, और प्रभु यीशु में हो कर पापों की क्षमा और उद्धार के बारे में पता चले; और वह शैतान है। इस लिए यीशु के नाम में किया गया कोई भी प्रचार और व्यवहार, जो लोगों को उनके केवल शारीरिक लाभ के बारे में बताता है, किन्तु और भी अधिक आवश्यक, आत्मिक समस्याओं से छूटने के बारे में नहीं बताता है, वह शैतान की ओर से है, वह चाहे यीशु के नाम में किया जाए, किन्तु प्रभु से हो ही नहीं सकता है (मत्ती 7:21-23)।
शारीरिक चँगाई तथा भौतिक समस्याओं से छुटकारा पाने का अर्थ स्वतः ही आत्मिक चँगाई और पापों से मुक्ति पा लेना नहीं है। हम सुसमाचारों में देखते हैं कि प्रभु द्वारा दी गई चंगाइयों के साथ वह हमेशा फिर पाप न करने के लिए भी कहता था; अर्थात प्रभु हमेशा ही लोगों से उन के पापों के बारे में बात करता था, और लोगों को उन से बच कर रहने के लिए कहता था। लेकिन आज जो लोग प्रभु के नाम में चँगाई देने की बात करते हैं, उन के प्रचार में इस का कोई उल्लेख नहीं होता है। बैतहसदा के कुण्ड के पास एक 38 वर्ष से बीमार व्यक्ति अकेला और असहाय पड़ा था, प्रभु ने उसे चँगा किया (यूहन्ना 5:1-9), प्रभु उस के पास फिर से लौट कर आया, और पाप से बच कर रहने के लिए चेतावनी दी (यूहन्ना 5:14), लेकिन फिर भी उस व्यक्ति ने जा कर यहूदियों को बता दिया और प्रभु के लिए कठिनाई उत्पन्न कर दी (यूहन्ना 5:15-16)। प्रभु यीशु ने पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के दिनों में बहुतेरे लोगों को चँगा किया, लेकिन जब उसे पकड़ कर पिलातुस के सामने क्रूस पर मृत्यु दण्ड के लिए लाया गया, तो उन में से एक भी प्रभु के पक्ष में बोलने नहीं आया; बल्कि जितने वहाँ जमा थे वे सभी चिल्ला रहे थे कि उसे क्रूस दिया जाए (मरकुस 15:11-15), कोई नहीं चाहता था कि उसे छोड़ दिया जाए। उन के मध्य किए गए प्रभु के आश्चर्यकर्म और चंगाइयों ने उन्हें प्रभु के अनुयायी या शिष्य नहीं बनाया था। यही बात आज भी उतनी ही सत्य है; यीशु के नाम में लोगों के लिए जो कुछ भी किया जाता है वह उन्हें यीशु का अनुयायी या शिष्य नहीं बना देता है; वे तो प्रभु के पास केवल शारीरिक या भौतिक लाभ के लिए आते हैं, और उन में से अधिकाँश फिर से सँसार में लौट जाते हैं।
यदि केवल इस जीवन में ही हमें मसीह से आशा है, तो वास्तव में, हम सब मनुष्यों से अधिक अभागे हैं; और उस से भी बुरी दशा में वे हैं जिन्होंने लोगों में यह आशा तो जगाई किन्तु उन के उद्धार के लिए कुछ नहीं किया; उनके लिए प्रभु को इस बात का हिसाब देना कितना कठिन होगा। अगले लेख में हम पुनरुत्थान के अभिप्रायों पर विचार ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 75
Resurrection of the Dead – 10
Resurrection’s Implications for the Believers – 2
In our continuing study of the fifth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, “the resurrection of the dead,” since the last article we have started considering the teachings related to resurrection given in 1 Corinthians 15, the resurrection chapter of the Bible. We had seen that having shown the respective implications of believing, and, not believing in the Lord’s resurrection. Paul through the Holy Spirit gives its implication for the Christian Believers in verse 19, which says, “If in this life only we have hope in Christ, we are of all men the most pitiable” an implication that has a bearing on practical Christian living of the Believers; i.e., the resurrection of the Lord Jesus, is not something meant to give hope and assurance only for earthly, or physical, or temporal benefits. We will consider this in some detail in today.
Paul, through the Holy Spirit says in this verse that the resurrection of the Lord Jesus, and consequent to that, the assured resurrection of the Christian Believers is something that should shift focus from the worldly to the eternal; from only this life, to the eternal life of the Believers. Paul reiterates it in his letter to the Colossians, “If then you were raised with Christ, seek those things which are above, where Christ is, sitting at the right hand of God. Set your mind on things above, not on things on the earth” (Colossians 3:1-2). The power of the resurrection, of the gospel, is not meant for only this life and getting physical or temporal benefits through it. Those whose hope from the resurrection and gospel is limited only to things and benefits in this world, the Holy Spirit, through Paul calls them as those who are the most miserable (KJV) or most pitiable (NKJV, NASB, NIV). This is because they are running after the perishable worldly things, which sooner or later be all left behind when they depart from earth; but when they enter eternity, they will be empty handed, possibly not even be saved, and therefore will go into eternal destruction.
This is the unrealized travesty, the disastrous result of those who preach, teach, and use the Lord’s resurrection and faith in Him, only for people receiving earthly, physical, and temporal things in the name of Jesus, e.g., physical healings, worldly prosperity, material benefits, getting employment, or getting married, or being delivered from any other physical or worldly problem or situation, etc. But do not preach the gospel, i.e., about man’s sins, the freely available forgiveness of sins though faith in the Lord, the inevitable eternal judgement of mankind, going to heaven or hell, are never told, or taught or emphasized. Those preaching about physical benefits in the name of Jesus, but not sharing the gospel of salvation, those whose faith, preaching, teaching, and conduct is based upon receiving the physical, worldly, material, and temporal, are actually engaged in working for Satan and sending people into eternal destruction in the name of Jesus. Because those who, through their preaching and teaching, come to ‘believe’ in the Lord only for getting these physical and temporal things done, become “the most pitiable of all men.” Because once the life of those who have only physically and temporally benefitted from the Lord’s resurrection and calling upon His name, is over, as it most certainly will be at some time, they will still go into eternal destruction. This will be because the gospel of salvation was never preached and taught to them; they were never told about repenting from sins and submitting their lives to the Lord Jesus. All they were preached and taught was ‘believe’ or ‘have faith’ in the Lord to deliver them from their physical problem, and that is all that they ‘believed’ and ‘had faith’ about. They were never told and taught about the necessity of repentance from sins, about accepting the Lord Jesus as their savior and submitting to Him, about living a life obedient to the Lord and His Word. All they were told and taught was being delivered from their physical problems, and they followed that. Who will answer for their eternal destruction despite having tasted the power of the Lord’s resurrection? The preachers healed them physically, received a lot of name, fame, and appreciation for it, but never did anything for their spiritual healing, and sent them to hell! The only one who does not want people to learn of their sins and about salvation through forgiveness of sins by the Lord Jesus, is Satan. Therefore, any preaching and practice in the name of Jesus that does not tell the people about their need to be delivered not just from physical problems, but more importantly from their spiritual problems, is satanic; it cannot be from the Lord, though it may be in the name of the Lord (Matthew 7:21-23).
Physical healing and relief from physical problems does not automatically mean spiritual healing and deliverance from sins. We see in the gospel accounts that the Lord’s physical healings were accompanied by the admonition “go and sin no more” i.e., the Lord always spoke to them about their sins and not falling back into them. But this is missing from those who appeal to people to come and be healed in the name of Lord Jesus today. The man having an infirmity for 38 years, lying alone and helpless by the pool of Bethesda, was healed by the Lord (John 5:1-9), the Lord came back to him and warned him about sinning (John 5:14), but he still went and told the Jews and made things difficult for the Lord’s ministry (John 5:15-16). The Lord Jesus had healed countless number of people during His earthly ministry, but none of them stood with Him, or spoke in favor of Him when He was brought before Pilate to be crucified; instead, all who were gathered before Pilate were yelling to have Him crucified (Mark 15:11-15), none wanted Him released. Jesus’s healings and miracles amongst them had not made them the followers or disciples of Christ. The same is true today; all that is done in the name of Jesus, does not make people the followers or disciples of the Lord; they only come for physical and temporal gain, and then most of them go back into the world.
If in this life only we have hope in Christ, then indeed, we are the most pitiable of all men; and far worse are the ones who raise this hope in people but do not do anything for their salvation; how difficult it will be for them to answer for this before the Lord. In the next article we will continue with the implications of resurrection.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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