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रविवार, 29 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 205

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 50


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (25) 


मसीही विश्वास में आने के कितने समय के बाद? (2)   


पिछले लेख में हमने देखा है कि बाइबल के अनुसार न तो ऐसा कोई निर्देश है, और न ही कोई उदाहरण है कि किसी नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी से किसी भी आधार पर, प्रभु की मेज़ में भाग लेने से रुके रहने के लिए कहा गया हो। लेकिन फिर भी कुछ कलीसियाओं में यह “प्रतीक्षा की अवधि” देखने को मिलती है। साथ ही डिनॉमिनेशनल कलीसियाओं में इसका एक संशोधित रूप भी देखने को मिलता है, जहाँ किशोरों को प्रभु भोज में भाग लेने की अनुमति तब ही मिलती है जब उनका “दृढ़ीकरण” हो जाता है। जब तक उनका यह “दृढ़ीकरण” नहीं हो जाता है, कलीसिया के किशोरों को न तो प्रभु भोज की अनुमति होती है, और न ही उन्हें दिया जाता है। यद्यपि परमेश्वर के वचन बाइबल में इस पारंपरिक रीति, “दृढ़ीकरण” और उसकी अनिवार्यता या आवश्यकता का कोई उल्लेख नहीं है; यह पूर्णतः मनुष्यों के द्वारा बनाई गई रीति है जिसे मण्डली पर थोप दिया गया है, उनके लिए अनिवार्य बना दिया गया है।


किसी न किसी रूप में इस “प्रतीक्षा अवधि” के लागू किए जाने का मुख्य कारण है, धार्मिक अगुवों के द्वारा प्रभु भोज के लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़ देना। यद्यपि यह बाइबल के अनुसार तो नहीं है, किन्तु मसीहियत की पारंपरिक समझ यही है कि उद्धार तथा मसीही कहलाए जाने के लिए बपतिस्मा अनिवार्य है। हम आज बाइबल से इस विवादास्पद धारणा और इसके औचित्य के बारे में कोई चर्चा नहीं करेंगे; क्योंकि इसके बारे में हम बपतिस्मे से सम्बन्धित पहले के लेखों में देख चुके हैं। प्रभु भोज के बारे में इस धारणा के पीछे का तर्क यह है कि क्योंकि प्रभु भोज में केवल ईसाई या मसीही ही भाग ले सकते हैं, और क्योंकि जिसका बपतिस्मा नहीं हुआ है वह मसीही नहीं है, कम से कम पूर्ण रीति से तो नहीं, इसलिए उसे प्रभु भोज में भाग लेने की अनुमति नहीं है। पारंपरिक और डिनॉमिनेशनल कलीसियाओं में, जहाँ बाइबल के विपरीत, शिशुओं को “बपतिस्मा” देने का प्रचलन है, उनकी धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार “दृढ़ीकरण” की रीति का पालन, व्यक्ति के “मसीही” हो जाने की प्रक्रिया को पूरा कर देता है; इसलिए “दृढ़ीकरण” के बाद वह जन प्रभु भोज में भाग ले सकता है। लेकिन यहाँ पर एक प्रश्न है, हमने पिछले लेखों में सुसमाचारों में से प्रभु यीशु द्वारा प्रभु भोज को स्थापित करने तथा उसके बाद 1 कुरिन्थियों 17-34 से व्यक्ति को अपने आप को जाँचने और उचित रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेने के बारे में सीखा है; बाइबल की उन बातों पर ये लोग कितना ध्यान देते हैं, उनका पालन करने के लिए कितने इच्छुक होते हैं? क्या किसी ने कभी विचार किया और प्रश्न उठाया है कि मनुष्यों की बनाई हुई रीति, परमेश्वर के निर्देशों और वचन से अधिक महत्वपूर्ण क्यों और कैसे हो गई? क्या परमेश्वर के वचन और निर्देशों की अवहेलना करके, मनुष्यों द्वारा बनाई रीतियों का पालन करने की अनिवार्यता को थोपना बुद्धिमत्ता की बात है? क्या यह परमेश्वर के वचन और निर्देशों का ठट्ठा उड़ाना नहीं है कि एक सच्चे और खरे नए विश्वासी को प्रभु भोज लेने से रोक दिया जाए क्योंकि उसे अभी बपतिस्मा नहीं मिला है; लेकिन उसी सभा में एक ऐसे व्यक्ति को जो अधर्मी जीवन जी रहा है प्रभु भोज दे दिया जाए, क्योंकि उसने उस डिनॉमिनेशन या जिस कलीसिया का वह सदस्य है, उसकी रीतियों और परंपराओं का निर्वाह किया है?


नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों की कुछ कलीसियाओं और मण्डलियों में भी यह “प्रतीक्षा अवधि” देखने को मिलती है। एक बार फिर से, इसीलिए, क्योंकि प्रभु की मेज़ में भाग लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़ दिया गया, और प्रभु भोज में भाग लेने के लिए पहले बपतिस्मा होना अनिवार्य कर दिया गया। देखा जाए तो सामान्यतः, एक बार फिर, मनुष्यों की बनाई रीति के अनुसार, व्यक्ति के मसीह यीशु में विश्वास लाने के साथ ही बपतिस्मा नहीं दिया जाता है, जबकि बाइबल से इस परंपरा का कोई समर्थन, कोई आधार नहीं है। वरन, उस व्यक्ति को निरीक्षण में रख दिया जाता है, और जब कलीसिया या मण्डली के अगुवे संतुष्ट हो जाते हैं, तब वे उसे बपतिस्मा लेकर प्रभु भोज में भाग ले लेने देते हैं। प्रभु भोज में भाग लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़ने के लिए बहुधा प्रेरितों 2:41-42 का हवाला दिया जाता है, जहाँ लिखा गया है कि जिन भक्त यहूदियों ने प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास किया, उनके लिए पद 41 में पहले लिखा गया है कि उन्होंने बपतिस्मा लिया, फिर उसके बाद पद 42 में लिखा गया है कि वे मसीही विश्वास के चार स्तम्भ, जिनमें से एक है रोटी तोड़ना, अर्थात प्रभु भोज, के निर्वाह में लौलीन रहे।


लेकिन जो लोग इस लिखे गए क्रम के आधार पर यह करने का तर्क देते हैं, वे इस तथ्य की भी अनदेखी करते हैं कि बाइबल में इसके अतिरिक्त कहीं भी बपतिस्मे और रोटी तोड़ने या प्रभु भोज में भाग लेने को एक साथ नहीं दिखाया गया है। कभी किसी मसीही विश्वासी से यह नहीं कहा गया कि अब क्योंकि उसने बपतिस्मा ले लिया है इसलिए वह प्रभु भोज में भी भाग ले सकता है। और, न ही कभी किसी से यह पूछा गया कि उसने बपतिस्मा लिए बिना मेज़ में भाग क्यों ले लिया; और न ही किसी से यह पूछा गया कि जब उनका बपतिस्मा हो चुका है, तो फिर वो प्रभु की मेज़ में भाग क्यों नहीं ले रहे हैं? बाइबल के खण्ड, जैसे के रोमियों 6:3-5, इफिसियों 4:4-16, और इब्रानियों 6:1-2, जिन्हें बपतिस्मे के बारे में शिक्षा देने के लिए बहुधा उपयोग किया जाता है, इनमें भी बपतिस्मे और प्रभु भोज में कही कोई संबंध नहीं दिखाया गया है।

 

साथ ही, यदि प्रेरितों 2:41-42 में लिखी बातों का क्रम इतना महत्वपूर्ण है कि उसके आधार पर एक धर्म-सिद्धांत बनाया और पालन करवाया जा सकता है, तो फिर यह क्रम यहाँ लिखी सभी बातों पर एक समान लागू होना चाहिए। इसलिए, तब तो, जब तक कि एक मसीही विश्वासी का बपतिस्मा न हो जाए, उसे न तो बाइबल अध्ययन में, न संगति रखने, और न प्रार्थना में भाग लेने देना चाहिए, क्योंकि इन सभी का उल्लेख भी बपतिस्मे के बाद ही हुआ है। तो फिर क्यों, उन कलीसियाओं या मंडलियों में, जिनमें प्रभु की मेज़ में भाग लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़कर प्रतीक्षा करवाई जाती है, नए विश्वासियों को प्रार्थना करने, संगति में आने और बाइबल अध्ययन के लिए कहा तथा प्रोत्साहित किया जाता है? क्या ऐसा करने के द्वारा वे अपने ही तर्क और अपनी ही गढ़ी हुई धारणा के अनुसार बनाए हुए धर्म-सिद्धांत को काट नहीं रहे हैं?


बात का सीधा सा तथ्य और आधार यही है कि बपतिस्मा लेने को, तथा मसीही विश्वास के चारों स्तम्भ - इन सभी को, नया जन्म पाए हुए विश्वासी के मसीही जीवन का आरम्भ से ही एक अभिन्न अंग होना ही है। जैसा कि प्रेरितों 2:42 में लिखा हुआ है, मसीही विश्वासियों को इनमें “लौलीन” रहना है, निरंतर और पूरी निष्ठा के साथ इनमें भाग लेते रहना है। कलीसिया तथा विश्वासियों के अगुवों को परमेश्वर के वचन को सिखाने और प्रचार करने की ज़िम्मेदारी तो दी गई है, परन्तु उन्हें परमेश्वर के वचन और निर्देशों में संशोधन करने, या उसमें अपनी ही धारणाओं और बातों को घुसा देने का अधिकार नहीं दिया गया है। बाइबल इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि किसी व्यक्ति ने पापों से पश्चाताप किया है, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता और प्रभु ग्रहण किया है, प्रभु से पापों की क्षमा माँगी है और प्राप्त की है, तो वह परमेश्वर की संतान है, प्रभु यीशु की कलीसिया का सदस्य है, प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है; और प्रभु यीशु मसीह में उसके विश्वास के चिह्न और प्रकटीकरण के रूप में, उसे प्रभु भोज में भाग लेने का अधिकार है।


अगले लेख से हम मेज़ में भाग लेने से सम्बन्धित कुछ और व्यावहारिक बातों को देखना आरम्भ करेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 50


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (25)


How Soon After Coming To Faith? (2)

 

In the previous article we have seen that Biblically, there is no instruction or example of any Born-Again Christian Believer being asked to wait for any period of time before partaking in the Lord’s Table, for any reason. But still, this “waiting period” is seen amongst some Churches. Also, it is seen in a modified form in the denominational Churches, where participation in the Holy Communion is permitted only after the youth have received their “Confirmation.” Without receiving this “Confirmation” the youth is neither permitted, nor administered the Holy Communion. Although, in God’s Word the Bible, there is no mention of this traditional ritual of “Confirmation” and its necessity; it is a purely man-made ritual that has been imposed upon the congregation, and made mandatory for them.


The main reason for this “waiting period”, in one form or the other, is because partaking of the Lord’s Table has been linked by the religious leaders to baptism. Although not Biblical, but according to the traditional and denominational understanding of Christianity, baptism is essential for salvation and for being considered a “Christian”. We are not going to be discussing the Biblical standing and validity of this contention today; since it has already been considered in the earlier articles related to Baptism. The logic is that since only “Christians” are to partake of the Lord’s Table, therefore, since the one who is not baptized, is not a Christian, at least not a ‘full-fledged one’, therefore, he is not to be allowed to participate in the Holy Communion. In the traditional and denominational Churches, according to their beliefs and understanding, after the unBiblical infant baptism, fulfilling the ritual of “Confirmation” completes this process of the person becoming a “Christian”, therefore, after “Confirmation”, one can participate in the Holy Communion. But then a moot point is, how much importance do they give to what we have seen and learnt from the Gospel accounts about Lord’s establishing the Holy Communion, and to the necessity of a person examining himself and then participating worthily as we have previously seen in our study from 1 Corinthians 17-34? Does anybody bother to ponder and question, why a man-made tradition is made more important and essential than God’s instructions and Word? Is it at all prudent to disregard God’s Word and instructions, but insist that man-made traditions be followed? Is it not a mockery of God’s Word and instructions that a sincere new Christian Believer might be denied the Holy Communion, since he is not yet baptized; but in that very Communion service the Holy Communion will be given to a person who is known to be living an ungodly life, simply because he has fulfilled the prescribed rituals of his denomination or the Church he attends?


Even in some of the Churches and Assemblies of the Born-Again Believers, this “waiting period” is seen. Again, because partaking in the Lord’s Table has been associated with baptism, and baptism has been made the precondition to taking part in the Holy Communion. Usually, again as a man-made tradition without any Biblical support for it, baptism is not given immediately after a person comes to faith in the Lord Jesus. But the person is asked to wait, he is put under observation, and after the religious elders of the Church or Assembly are satisfied, they allow the person to be baptized, and then to participate in the Holy Communion. The association of baptism and partaking in the Lord’s Table is often justified on the basis of Acts 2:41-42, where it is first written in verse 41 that the devout Jews who accepted the Lord Jesus as their savior, were baptized, and after that it is written in verse 42 that they continued steadfastly in the Four Pillars of Christian Faith, one of which is Breaking of Bread, i.e., participating in the Holy Communion.


But those who use this sequence of recording of events fail to note that nowhere else in the Bible has baptism ever been in any manner mentioned along with the Breaking of Bread, i.e., participating in the Holy Communion. Nowhere was it ever stated by anyone to any of the new Believers that having been baptized, they can now partake of the Lord’s Table. Neither was any Christian Believer ever questioned why he took part in the Table without having been baptized; nor was anyone questioned why they did not participate, although they had been baptized. Even in passages such as Romans 6:3-5, Ephesians 4:4-6, and Hebrews 6:1-2, which are often used to teach about baptism, has any association between baptism and Holy Communion been given.

 

Moreover, if the sequence of mentioning various related events in Acts 2:41-42, so very important that a doctrinal stand can be built upon it, then it should be equally relevant for the other things mentioned there as well. Therefore, in that case, until a Christian Believer is baptized, he should not be permitted to participate in Bible studies, in gathering for fellowship with other Believers, and saying prayers either, since all of them are mentioned after baptism. Why then, even in those Churches and Assemblies which impose the association of baptism with participation in the Lord’s Table, are the new Believers encouraged to pray, study the Bible and come for fellowship, while they wait to be baptized and be allowed to take the Holy Communion? By doing this are they not contradicting their own logic and their contrived doctrinal stand?


The basic fact of the matter is that baptism and the Four Pillars of Christian Faith are all meant to be an integral part, from the very beginning of a Born-Again Christian Believer’s life. As it says in Acts 2:42, the Christian Believers are to “continue steadfastly”, unceasingly and diligently in them. The Church elders and religious leaders are to preach and teach God’s Word, but they have not been given the authority or responsibility of changing God’s Word, or substituting it with their own fanciful logic and modifications. The Bible is very clear, if a person has repented of sins, accepted Jesus as his Lord and savior, asked for and received the forgiveness of sins from the Lord, then he is a child of God, is a member of the Church of the Lord Jesus, is a disciple of the Lord Jesus; and as an expression of his Faith in the Lord Jesus, he has the right to participate in the Holy Communion.


From the next article we will consider some other practical applications of participating in the Lord's Table.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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