वरदानों का प्रयोग - रोमियों 12
पिछले लेखों में हमने 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय से देखा है कि मसीही विश्वासियों को, परमेश्वर
द्वारा उनकी निर्धारित सेवकाई को सुचारु रीति से करने के लिए परमेश्वर पवित्र
आत्मा विभिन्न आत्मिक वरदान देता है। सभी को एक ही वरदान नहीं दिया जाता है,
और न ही किसी एक को सभी वरदान दिए जाते हैं। प्रत्येक को उनकी
सेवकाई के अनुसार, तथा सभी की भलाई एवं मण्डली की उन्नति के
लिए वरदान दिया जाता है। किस को क्या वरदान दिया जाना है यह निर्णय परमेश्वर
पवित्र आत्मा का है; इसमें किसी मनुष्य का किसी भी प्रकार का
कोई भी हस्तक्षेप नहीं है। सभी सेवकाई और वरदान परमेश्वर की दृष्टि में समान महत्व
के हैं, किसी के भी औरों की तुलना में बड़े-छोटे होने की,
या कम अथवा अधिक महत्व का होने की कोई बात नहीं है। किन्तु मसीही
मण्डलियों या कलीसिया के कार्यों में, कौन सी सेवकाई एवं
वरदान अधिकांशतः प्रयोग किए जाते हैं, और किन के प्रयोग की
आवश्यकता, तुलनात्मक रीति से, अन्य से
कम होती है, उसके अनुसार 1 कुरिन्थियों
12:28 में एक क्रम दिया गया है, जिसमें
सबसे पहले वचन की सेवकाइयों से संबंधित सेवकाइयों और वरदानों को लिखा गया है,
और सबसे अंत में अन्य भाषाओं से संबंधित सेवकाई एवं वरदानों को लिखा
गया है। साथ ही फिर 31 पद में प्रोत्साहित किया गया है कि
मण्डली के लोगों को मण्डली में अधिक से अधिक उपयोगी होने की ‘धुन’ में रहना चाहिए;
यद्यपि इस पद का दुरुपयोग यह दिखाने के लिए किया जाता है कि
विश्वासी अपनी इच्छा के अनुसार अपने लिए वरदान माँग सकते हैं - जो इस पद की अनुचित
व्याख्या और गलत प्रयोग है।
बाइबल में 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय के अतिरिक्त भी आत्मिक वरदानों के बारे में लिखा गया है। ऐसा ही एक
वचन-भाग है रोमियों 12 अध्याय; इस
अध्याय में भी परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा आत्मिक वरदानों के बारे
में कुछ भिन्न दृष्टिकोण से लिखवाया है। रोमियों के इस अध्याय में 1 कुरिन्थियों 12 के समान ही, न
केवल वरदानों का उल्लेख और मसीही मण्डली को एक देह के समान दिखाकर सभी सदस्यों को
साथ मिलकर कार्य करने और अपने वरदानों का प्रयोग करने का आह्वान है, वरन उनके प्रयोग के विषय कुछ अनिवार्य आत्मिक बातें और दृष्टिकोण भी बताए
गए हैं। मानव देह को रूपक के समान प्रयोग करने और आत्मिक वरदानों के प्रयोग पर आने
से पहले, पवित्र आत्मा ने इस अध्याय के आरंभिक पदों में इन दोनों बातों के सही
निर्वाह के लिए एक आत्मिक दृष्टिकोण अपनाने और बनाए रखने की बात की है। स्वाभाविक
है कि शारीरिक एवं सांसारिक विचारों तथा दृष्टिकोण को रखते हुए आत्मिक सेवकाई कर
पाना संभव नहीं है। यदि परमेश्वर को प्रसन्न करना है, उससे आशीषें प्राप्त
करनी हैं, तो शारीरिक एवं सांसारिक प्रवृत्ति से उठकर आत्मिक
और परमेश्वर के अनुसार स्थिति में आना और रहना पड़ेगा। तब ही हम परमेश्वर की बात को
समझने और निभाने पाएंगे, जिससे हमारे कार्य उसे स्वीकार्य
हों, और वह उन कार्यों से प्रसन्न हो। इसीलिए पौलुस में होकर
पवित्र आत्मा द्वारा इस अध्याय का आरंभ, इस आह्वान के साथ
होता है: “इसलिये हे भाइयों, मैं
तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि
अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और
परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस
संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने
से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की
भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव
से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2)।
इन दो पदों में ध्यान देने वाली कुछ
बातें हैं:
- पद 1 का आरंभ मसीही विश्वासी को उसके
प्रति परमेश्वर की दया का स्मरण दिलाने के साथ होता है। इसे बेहतर समझने के
लिए इसे इसके संदर्भ में, इससे पहले के पदों के साथ
देखिए। अध्याय 11, विशेषकर उसके अंत में, प्रभु परमेश्वर की महानता तथा सार्वभौमिकता का वर्णन, और उसकी महिमा
का उल्लेख किया गया है। परमेश्वर की इस हस्ती, उसके
सर्वोच्च, सर्वसामर्थी, एवं
सर्वज्ञानी होने, के सामने जब मनुष्य अपनी हस्ती,
अपनी पापमय और परमेश्वर के लिए अस्वीकार्य स्थिति का ध्यान
करता है, तो उसे बोध होता है कि उसमें ऐसा कुछ भी नहीं
है कि परमेश्वर उसका ध्यान करे, उससे संपर्क या व्यवहार
रखे। किन्तु फिर भी परमेश्वर संसार के सभी मनुष्यों से प्रेम करता है,
उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहता है, उन्हें
अपनी संतान होने का आदर देना चाहता है (यूहन्ना 1:12-13)। इसीलिए इस अध्याय और पद का आरंभिक वाक्यांश है, “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया
स्मरण दिला कर बिनती करता हूं...”। तात्पर्य यह कि
आत्मिक सेवकाई और आत्मिक वरदानों के सही प्रयोग के लिए मनुष्य को अपनी किसी
योग्यता अथवा शारीरिक सामर्थ्य अथवा गुण के आधार पर नहीं वरन अपनी अयोग्यता,
अपनी वास्तविकता के बोध के साथ, परमेश्वर
के प्रति दीन, नम्र, नतमस्तक,
आज्ञाकारी, और पूर्णतः समर्पित होकर; हर बात
में परमेश्वर से मिलने वाली उसकी दया, उसके अनुग्रह का ध्यान रखते और मानते हुए,
कार्य करना चाहिए।
- फिर
पद के दूसरे भाग में पवित्र आत्मा मसीही सेवक को अपने आप को परमेश्वर को
स्वीकार्य बलिदान के समान अर्पित करने को कहता है, और इस ही उसकी “आत्मिक सेवा” कहता है। यहाँ पुराने नियम से
परमेश्वर की आराधना और उपासना करने, उससे क्षमा प्राप्त
करने और उसे स्वीकार्य होने के विधि - परमेश्वर को निर्धारित बलिदान चढ़ाने की
बात को समक्ष लाया गया है। परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था में हर एक बलिदान का एक स्वरूप,
एक विधि होती थी; और बलिदान कोई भी हो, किसी भी उद्देश्य से क्यों न चढ़ाया जाए,, उसे उस विधि के अनुसार
चढ़ाना होता था। सभी
बलिदानों के साथ एक बात सामान्य थी - जो वेदी पर परमेश्वर के सामने चढ़ा दिया
गया, वह फिर लौट
कर उस बलिदान चढ़ाने वाले मनुष्य के हाथ में वापस नहीं आता था! या तो वह चढ़ाया
गया बलिदान जल कर राख हो जाता था, या फिर याजकों के
उपयोग के लिए दे दिया जाता था। इसी प्रकार से जो जीवन परमेश्वर को अर्पित कर
दिया गया है, उसे वापस लेकर फिर से संसार के साथ नहीं
जोड़ा जा सकता है, सांसारिकता की बातों के लिए प्रयोग
नहीं किया जा सकता है। यदि उसे वापस लिया जा रहा है, शारीरिक
लालसाओं और सांसारिक बातों के लिए प्रयोग किया जा रहा है, तो इसका अर्थ है कि वह जीवन वास्तव में सही रीति से ‘बलिदान’ नहीं
किया गया है - पूर्णतः परमेश्वर को समर्पित नहीं किया गया है। इसलिए वह
परमेश्वर के लिए उपयोगी और उसकी महिमा का कारण भी नहीं होगा। साथ ही यह संसार
और शरीर के भी, तथा आत्मा के साथ भी निभाने की
प्रवृत्ति उस व्यक्ति की “आत्मिक सेवा” भी नहीं मानी जाएगी।
- फिर 2 पद मसीही सेवक के लिए कहता है
कि उसके अंदर आया परिवर्तन, मसीही विश्वास में आने से
उसकी बुद्धि के नए हो जाने का प्रमाण, उसके बदले हुए
जीवन में, उसके परिवर्तित चाल-चलन के द्वारा दिखाई देना
चाहिए। उसके अंदर हुए परिवर्तन का यही बाहरी प्रमाण है; इसके अतिरिक्त व्यक्ति के आत्मिक या परमेश्वर का जन हो जाने, उसके अंदर परमेश्वर पवित्र आत्मा के बस जाने का और कोई प्रमाण बाइबल
में नहीं दिया गया है - मन का परिवर्तन, व्यवहार और
जीवन के परिवर्तन से दिखाई देता है।
- जिनके
अन्दर यह परिवर्तन दिखाई देने लगता है, वे फिर परमेश्वर की इच्छा को जानने वाले भी बन जाते हैं; यह एक निरंतर होती रहने वाली, और भी उन्नत होती
रहने वाली प्रक्रिया है। जैसे-जैसे “बुद्धि के नये
हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए” वैसे-वैसे
व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा को और अधिक जानता चला जाता है; और यह उसके परमेश्वर के साथ होते चले जाने वाले अनुभवों में होकर
होता है।
यदि आप एक
मसीही विश्वासी हैं, परमेश्वर के लिए उपयोगी होना चाहते हैं,
तो उसको समर्पित और उसकी आज्ञाकारिता का जीवन भी जीना सीखिए।
धार्मिक रीति-रिवाजों, कार्यों, और
परंपराओं के निर्वाह से कोई परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सका है (प्रेरितों 15:10;
1 पतरस 1:18-19)। परमेश्वर ने आपको उद्धार
देने के साथ ही आपके लिए कुछ भले कार्य निर्धारित कर रखे हैं (इफिसियों 2:10);
आपकी सहायता तथा मार्गदर्शन के लिए अपना पवित्र आत्मा आप में बसा
दिया है, जो सर्वदा आपके साथ रहता है; अपना
जीवता वचन आपके हाथों में दे दिया है; और आपको अपने परिवार
का, अपनी कलीसिया का एक अंग बना लिया है। अब आपको परमेश्वर
द्वारा दिए गए इन संसाधनों एवं प्रयोजनों के उचित प्रयोग के द्वारा, रोमियों 12:1-2 का पालन करना है, जिससे आप तथा आपके कार्य उसे स्वीकार्य हो सकें, और
आप उसकी आशीषों के संभागी हो सकें। परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अतिरिक्त, उसे प्रसन्न करने, उसे आशीषें पाने का कोई अन्य
मार्ग नहीं है (1 शमूएल 15:22)।
यदि आपने प्रभु
की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त
जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में
अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके
वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और
सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- ज़कर्याह
1-4
- प्रकाशितवाक्य 18
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