पवित्र आत्मा का बपतिस्मा विचारधारा में निहित दुष्प्रभाव?
हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन बाइबल के आधार पर, “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा”, जो मसीही विश्वासी के पवित्र-आत्मा में डुबो दिए जाने यानि कि उसे अंदर-बाहर से परमेश्वर पवित्र-आत्मा से ओतप्रोत कर देने को दिखाता है, तो है; किन्तु “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वचन में कहीं नहीं दिया गया है; यह पूर्णतः बाइबल के बाहर की बात है, जो बाइबल की शिक्षाओं के साथ कोई मेल नहीं रखती है, वरन उनके विरुद्ध है। इसी प्रकार से हमने पिछले लेख में यह भी देखा है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” की गलत धारणा को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद एक अतिरिक्त या दूसरा अनुभव कह कर उसे सही ठहराने के प्रयास भी बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं हैं, वरन इसमें मनुष्य द्वारा परमेश्वर को नियंत्रण कर पाने की अनुचित और ओछी धारणा निहित है, जो एक बार फिर बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध है।
वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” को स्वीकार करने के साथ मसीही विश्वासी के लिए और भी दुष्प्रभाव जुड़े हैं, और ये सभी चीनी में लिपटे कड़वे घातक जहर के समान हैं। बाइबल के विरुद्ध शिक्षाओं पर आधारित इस अनुचित धारणा पर थोड़ा गहराई और गंभीरता से विचार करने से इस विचारधारा में निहित दुष्प्रभावों को समझना कुछ कठिन नहीं है। भक्ति और धार्मिकता के नाम पर यह मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का प्रयास है; उन्हें घमंड में गिराने का तरीका है; उनकी मसीही सेवकाई को अप्रभावी करने की चाल है:
यह मसीही विश्वासियों को विभाजित करती है - यह धारणा मसीही विश्वासियों को दो गुटों, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पाए हुए, और न पाए हुए में बाँट देती है। वचन स्पष्ट दिखाता है कि जब भी किसी भी आधार पर मसीही विश्वासियों ने अपने आप को परस्पर भिन्न दिखाने का प्रयास किया है, तो कलीसिया में परेशानियाँ ही आई हैं, फूट ही पड़ी है, कभी कोई उन्नति नहीं हुई - (i) अगुवों के नाम और अनुसरण के कारण कुरिन्थुस की मंडली में फूट पड़ी (1 कुरिन्थियों 1:11-13)। (ii) इब्रानी और यूनानी विश्वासी कहलाए जाने से फूट और बैर आया, जिसका बुरा प्रभाव प्रेरितों के प्रार्थना और वचन की सेवा पर पड़ने लगा (प्रेरितों 6:1-4)। (iii) यहूदी और गैर-यहूदी मसीही विश्वासियों के मध्य खींच-तान और अलगाव से सभी प्रेरितों और पौलुस को भी जूझते ही रहना पड़ा (प्रेरितों 15:1-2, 5, 10-11; इफिसियों 2:17-22)। यही स्थिति, इस प्रकार बपतिस्मा पाए और न पाए हुओं के मध्य उत्पन्न होकर प्रभु के लोगों में फूट और मतभेद उत्पन्न करती है।
जो अपने आप को अलग से पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए समझते हैं, वे अपने आप को अन्य विश्वासियों से कुछ उच्च (superior) समझने लगते हैं; घमंड में आ जाते हैं। और यह उनकी मसीही सेवकाई, तथा संसार में मसीही गवाही और कलीसिया के काम के लिए घातक है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के घमंड के साथ कार्य नहीं कर सकता है, उसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। इसके विपरीत जिन्होंने यह तथाकथित बपतिस्मा नहीं पाया है, और बहुत प्रयास करने के बाद भी उन्हें यह अनुभव नहीं मिला है, और न कभी मिलेगा क्योंकि ऐसा कुछ है ही नहीं, उनमें निराशा और हीन भावना आने लगती है; उन्हें अपने विश्वास पर और अपने मसीही विश्वासी होने पर संदेह होने लगता है, और वे अपनी सेवकाई में कमज़ोर पड़ने लगते हैं। दोनों ही स्थितियों में हानि प्रभु के लोगों और उनकी सेवकाई ही की होती है, और लाभ शैतान को मिलता है।
इस विचारधारा से यह गलत समझ भी फैलती है कि अलग सेवकाइयों के लिए अलग वरदानों ही की नहीं वरन अलग या अतिरिक्त सामर्थ्य की भी आवश्यकता होती है; जिसका अभिप्राय यह निकलता है कि कुछ सेवकाई प्रमुख हैं, जिनके लिए विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, और शेष हलकी या गौण हैं, जिनके लिए किसी विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं है। यह फिर से मसीही सेवकों में दरार और ऊँच-नीच की भावना को जन्म देता है। यह सेवकाई के लिए दिए जाने वाले पवित्र आत्मा के वरदानों के समान महत्व का होने की शिक्षा के बिल्कुल विरुद्ध है। वरदान कोई भी हो, सब मिलकर एक ही देह के अंग हैं, कोई बड़ा या छोटा, अथवा महत्वपूर्ण या गौण नहीं है (रोमियों 12:3-5)। परमेश्वर प्रत्येक को उसे सौंपी गई सेवकाई के आधार पर प्रतिफल देगा, न कि वरदानों के अधिक अथवा कम महत्वपूर्ण होने की धारणा के अनुसार (मत्ती 20:9-15)। पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता से ही उसकी सामर्थ्य सभी के लिए समान रीति से उपलब्ध है।
हम अगले लेख में देखेंगे कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” किस प्रकार एक अन्य आधार, कितने बपतिस्मे? के अनुसार भी बाइबल की शिक्षाओं से कतई मेल नहीं रखता है।
यदि आप मसीही हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः आपका न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए आपके लिए मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बनना अनिवार्य है, नहीं तो अनन्त जीवन में अनंतकाल की हानि उठानी पड़ेगी। अपने जीवन में गंभीरता से झांक कर देख लें, और जिन भी बातों को सही करना है, उन्हें अभी समय और अवसर रहते हुए सही कर लें; कहीं कल या “बाद में” पर टाल देने से बहुत विलंब और हानि न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
1 शमूएल 25-26
लूका 12:32-59
Inherent Harmful effects of “Baptism of the Holy Spirit”
We have seen in previous articles that based in the Word of God, the Bible, "Baptism with the Holy Spirit", which implies that a Christian Believer is immersed in the Holy Spirit, i.e., is permeated with the Holy Spirit, is written. But the phrase “Baptism of the Holy Spirit” is nowhere mentioned; this is something completely out of the Bible, and not only is incompatible with, but also against, the teachings of the Bible. Similarly, we have also seen in the previous article that attempts to justify the wrong notion of "Baptism of the Holy Spirit" by calling it an additional or extra experience, after receiving the Holy Spirit is also not correct according to the teachings of the Bible. Rather, it implies the wrong and petty notion of man being able to control God, which is once again, against the teachings of the Bible.
Accepting the phrase "Baptism of the Holy Spirit" brings other harmful effects for the Christian Believer, and all of them are like bitter, deadly poison coated in sugar. With a little serious consideration and analysis in some depth, it is not difficult to unveil and understand the ill effects of this ideology, of this unjustified notion, which is entirely based on anti-biblical teachings. In the name of reverence and spirituality, it is an attempt to create differences and divisions among Christians; a way to make them proud; a trick is to render their Christian ministry ineffective:
It divides Christian Believers - This notion divides Christian Believers into two groups, those "baptized by the Holy Spirit," and those who are not. The Word clearly shows that whenever Christians have tried to differentiate themselves on any ground, the church has only been in trouble, has split, and has never progressed - (i) By segregating based on the names of the Church leaders and the following men instead of Christ, led to divisions in the Corinthian Assembly (1 Corinthians 1:11-13). (ii) According to their ethnicity, by calling themselves Hebrew and Greek Believers led to division and serious discord, which adversely affected the apostles' prayer and ministry of the Word (Acts 6:1–4). (iii) All the apostles and even Paul had to contend with the strife and separation between Jewish and Gentile Christians because of their insistence on maintaining their ethnic individuality (Acts 15:1-2, 5, 10-11; Ephesians 2:17-22). Similarly, the situation, thus arising between the baptized and the unbaptized, creates divisions and differences among the people of the Lord.
Those who consider themselves to be additionally baptized with the Holy Spirit begin to view themselves as superior to other believers; develop a pride. And this is very detrimental to their Christian ministry, to Christian witnessing, and Church work in the world, because God cannot work with man's pride, cannot compromise with it. On the contrary, those who have not received this so-called baptism, even after many efforts, have not had it, and never will have it, because it is non-existent, they begin to feel depressed and develop an inferiority complex. They begin to doubt their faith and their being Christian Believers, and thereby they begin to fall short in their ministry. In both cases, the loss is of the Lord's people and His ministry, and the benefit goes to Satan.
This ideology also spreads the misconception that separate ministries require not only separate gifts but also separate or additional powers. Which implies that some ministries are major, requiring special powers, and the rest are minor or secondary, requiring no special powers. This again gives rise to rifts and inferiority complexes among Christian ministers. This is quite contrary to the teaching of the equal importance of the gifts of the Holy Spirit given for the ministry. Whatever be anyone’s individual gift, they are all part of the same body, no one is big or small, or important or unimportant (Romans 12:3-5). God will reward each on the basis of the ministry entrusted to him, and not according to the assumption that their gifts are more important or less important (Matthew 20:9-15). It is through obedience to the Holy Spirit that His power is equally available to all.
We will see in the next article, on another basis, “how many baptisms?” how “the Baptism of the Holy Spirit” does not match the teachings of the Bible at all.
If you are a Christian, it is essential for you to follow the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, you will neither be judged by any man, nor on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which not only are vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But everyone will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), and only on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for you to be pleasing to God, instead of striving to please men; else you will have to suffer the loss of eternal life and eternity. Take a serious account of your life, and whatever things you need to rectify, do it right now, while you have the time and opportunity; procrastinating and postponing it for tomorrow or "later" may be very harmful.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
1 Samuel 25-26
Luke 12:32-59
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